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यूक्रेन युद्ध से क्यों हो रही है भारत की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर किरकिरी?

यूक्रेन युद्ध से क्यों हो रही है भारत की अंतरराष्ट्रीय मंचों पर किरकिरी?

यूक्रेन संकट पर क्या भारत का रूख साफ़ नहीं है? और क्या संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा करने वाले प्रस्ताव से खुद को अलग करने के कारण भारत असहज स्थिति में है? या गुट निरपेक्षता का रास्ता ही सबसे उपयुक्त है?

यूक्रेन पर हमले को लेकर संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा करने से इनकार करने से नई दिल्ली-वाशिंगटन रिश्ते में तनाव आ चुका है। इस तनाव का फ़ायदा उठा कर अमेरिका की भारत-विरोधी लॉबी वहां की सरकार पर कितना दबाव डाल पाती है या जो बाइडन प्रशासन किस बहाने भारत को मिल रही छूट को कब तक चालू रख सकता है, यह आने वाले समय में मालूम हो जाएगा। पर यह साफ़ है कि बाइडन प्रशासन में दोनों सरकारों के बीच जो दोस्ती और खुशनुमा माहौल बना था, उसे झटका लगा है। यह दोनों देशों के बीच के रिश्तों को निकट भविष्य में प्रभावित कर सकता है, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है।

संयुक्त राष्ट्र में रूस की निंदा से जुड़े एक के बाद एक तीन प्रस्तावों पर भारत ने मतदान में भाग नहीं लिया। पहले संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद प्रस्ताव, उसके बाद संयुक्त राष्ट्र महासभभा का विशेष सत्र बुलाने से जुड़े प्रस्ताव और फिर महासभा के प्रस्ताव पर भारत वोटिंग से दूर रहा। भारत के प्रतिनिधि मतदान के समय वहां मौजूद थे, लेकिन हाथ उस समय उठाया जब यह कहा गया कि कौन- कौन देश मतदान में भाग नहीं ले रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि टी. एस. तिरुमूर्ति ने तीनों ही मौकों पर यूक्रेन की स्थिति पर चिंता जताई, उसकी संप्रभुता को बनाए रखने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया और सभी पक्षों की सुरक्षा चिंताओं को ध्यान में रखने की बात कही। पर मतदान में भाग नहीं लिया।

यह पश्चिमी देशों और रूस के बीच भारत के संतुलन कायम करने की रणनीति थी। भारत ने एक साथ ही यूक्रेन की संप्रभुता बरक़रार रखने की बात कही और रूस की सुरक्षा चिंता यानी नाटो के विस्तार नहीं करने का संकेत भी दिया। यानी, वह किसी का पक्ष नहीं लेने की नीति पर चल रहा था।

भारत यदि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में प्रस्ताव के पक्ष में वोट दे भी देता तो भी उसके पारित होने की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि रूस का उसे वीटो करना बिल्कुल स्वाभाविक था। संयुक्त राष्ट्र महासभा में किसी के पास वीटो पावर नहीं होता है, लेकिन वह प्रस्ताव बाध्यकारी भी नहीं होता है। वह प्रस्ताव पारित हो तो गया, पर इससे रूस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत ने इन दोनों ही मौकों पर यदि प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिया होता तो युद्ध रुक गया होता और यूक्रेन में ख़ून खराबा नहीं हो रहा होता।

लेकिन तटस्थता बरतने की भारत की नीति से यह संकेत ज़रूर गया कि वह पश्चिमी देशों के साथ खड़ा नहीं है। यह कहा जा रहा है कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश यूक्रेन पर बग़ैर किसी उकसावे के हमले और उसकी संप्रभुता के उल्लंघन करने के मामले पर चुप रहा।

अमेरिका में इस पर ज़्यादा शोरगुल हो रहा है। बाइडन प्रशासन और अमेरिकी संसद यानी कांग्रेस में भारत से सहानुभूति रखने वाले सदस्यों के लिए परेशानी का माहौल है। भारत के इन फ़ैसलों ने उन्हें सुरक्षात्मक स्थिति में ला खड़ा किया है और वे बगले झांक रहे हैं।

अमेरिकी सीनेट के विदेश मामलों की समिति की उपसमिति की बैठक गुरुवार को हुई। इसमें दक्षिण व मध्य एशिया के उप विदेश मंत्री डोनल्ड लियू पेश हुए और सदस्यों के सामने सरकार का पक्ष रखा। उनसे कई सदस्यों ने बार-बार यह पूछा कि यूक्रेन के मुद्दे पर भारत का रुख स्पष्ट क्यों नहीं है, भारत ने रूसी हमले की निंदा क्यों नहीं की और बाइडन प्रशासन इस मुद्दे पर भारत के साथ क्या कर रहा है?

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डोनल्ड लियू ने भारत का बचाव करते हुए कहा कि यूक्रेन पर रूसी हमले के मामले में नई दिल्ली का रुख विकसित हो रहा है, यूक्रेन में गोलाबारी में एक भारतीय छात्र की मृत्यु होने के बाद सरकार और आम जनता का रुख बदल रहा है। उन्होंने कहा कि बीते कुछ सालों में रक्षा मामलों में रूस पर भारत की निर्भरता काफी कम हुई है जो आने वाले समय में और कम होगी। विदेश उप मंत्री ने उपसमिति के सदस्यों को आश्वस्त किया कि बाइडन प्रशासन इस मुद्दे पर भारत से लगातार बात कर रहा है और जल्द ही भारत के रवैए में सकारात्मक परिवर्तन होने की उम्मीद है।

लेकिन उप विदेश मंत्री डोनल्ड लियू को सबसे अधिक विरोध का सामना करना पड़ा अमेरिकी प्रतिबंधों के मुद्दे पर। उनसे यह पूछा गया कि रूस से एअर डिफ़ेंस सिस्टम एस-400 ट्रायंफ लेने के कारण अमेरिका भारत पर कब आर्थिक प्रतिबंध लगाने जा रहा है।

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बता दें कि अमेरिका में काट्सा यानी काउंटरिेंग अमेरिकन एडवर्सरी थ्रू सैंक्शन्स एक्ट (सीएएटीएसए) लागू है। इसे अमेरिकी संसद ने 2017 में पारित किया था। इसका मूल मक़सद उत्तर कोरिया और ईरान को रूस से हथियार खरीदने से रोकना था। उत्तर कोरिया ने परमाणु परीक्षण नहीं करने पर किए गए पुराने वायदे को मानने से इनकार कर दिया था, छह देशों के समूह की तमाम सिफारिशों को खारिज कर दिया था और खुले आम अमेरिका को चुनौती दे रहा था।

इसी तरह ईरान ने परमाणु संवर्द्धन रोकने से इनकार कर दिया था, नतान्ज़ परमाणु केंद्र पर सेंट्रीफ़्यूज़ यानी परमाणु संवर्द्धन का काम तेज़ कर दिया था, यह साफ कहा जा रहा था कि ईरान की परमाणु संवर्द्धन क्षमता बिजली बनाने के लिए ज़रूरी स्तर से आगे निकल चुकी है और परमाणु बम बनाने के लिए ज़रूरी संवर्द्धन करने के नज़दीक पहुंच चुकी है।

काट्सा पारित होने के तुरन्त बाद उत्तर कोरिया और ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए गए।

लेकिन भारत के लिए चिंता की बात 2020 में हुई जब अमेरिका ने रूस से एस-400 खरीदने के कारण तुर्की पर आर्थिक प्रतिबंध का ऐलान कर दिया। हालांकि यह प्रतिबंध बहुत ही सीमित था, दिखावे के लिए था और जानबूझ कर ऐसा रखा गया था कि अंकारा का आर्थिक नुक़सान बहुत ही सीमित हो।

पर यह चिंता की बात इसलिए थी कि तुर्की नाटो यानी नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन का सदस्य है। इस तरह वह अमेरिका का सहयोगी ही नहीं, मित्र देश भी है।

अमेरिका में उस समय से ही भारत पर प्रतिबंध लगाने की मांग उठ रही है। यह पूछा जा रहा है कि जब अमेरिका नाटो के सदस्य पर एस-400 खरीदने के लिए प्रतिबंध लगा सकता है तो भारत पर क्यों नहीं। भारत उस समय तक रूस से पांच एस-400 सिस्टम खरीदने के लिए न केवल क़रार पर दस्तख़त कर चुका था, बल्कि आंशिक भुगतान भी कर चुका था।

पांच अरब डॉलर के इस क़रार के तहत एस-400 का पहला सिस्टम भारत को 2021 में मिल चुका है, जिसने इसने पंजाब में पाकिस्तान से लगने वाली सीमा पर तैनात कर दिया है।

बाइडन प्रशासन यह तर्क देता रहा है कि भारत को विशेष छूट देना अमेरिका के हित में है क्योंकि उससे वाशिंगटन के रिश्ते सुधर रहे हैं, वह एक बड़े साझेदार के रूप में उभर रहा है। लेकिन यूक्रेन संकट पर भारत के रवैए से यह मामला अधिक पेचीदा हो गया है।

सीनेट की उप समिति की बैठक में यह सवाल उठा और डोनल्ड लियू से पूछा गया कि क्या राष्ट्रपति या विदेश मंत्री भारत पर काट्सा के तहत आर्थिक प्रतिबंध लगाने जा रहे हैं। उनसे यह भी कहा गया कि भारत ने यूक्रेन पर हमले का विरोध नहीं किया, रूस की निंदा नहीं की और संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के ख़िलाफ़ स्टैंड अपनाया है। ऐसे में भारत को ख़ास छूट भला क्यों दी जा रही है? यह सवाल इन शब्दों में नहीं पूछा गया, पर जो कुछ कहा गया, उसका आशय यही था।

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उप विदेश मंत्री लियू ने गोलमोल जवाब दिया, उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपति या विदेश मंत्री के फ़ैसले को 'प्रीजज़' नहीं कर सकते, यानी उस पर पहले ही अपना निर्णय नहीं सुना सकते। पर उन्होंने यह ज़ोर देकर कहा कि अमेरिका ने भारत को यूक्रेन और संयुक्त राष्ट्र के मुद्दे पर 'एंगेज' किया है, यानी लगातार बातचीत कर रहा है और इसका सकारात्मक नतीजा जल्द आएगा।

अमेरिकी प्रशासन ज़बरदस्त दबाव में है। हालांकि उसने संयुक्त राष्ट्र में दोनों मौकों पर यानी सुरक्षा परिषद और महासभा में रखे गए प्रस्तावों पर वोटिंग के बाद भारत की यह कह कर तारीफ की कि उसका रवैया 'रचनात्मक' रहा है। लेकिन जानकारों का कहना है कि यह अंतरराष्ट्रीय डिप्लोमेसी की भाषा है और परोक्ष रूप से नाराज़गी जताने का तरीका भी।

अमेरिका और उसके सहयोगियों ने यूक्रेन को रूस से लड़ने के लिए हथियार देने का ऐलान कर दिया है। फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन जैसे बड़े व संपन्न ही नहीं, लिथुआनिया, लातविया व एस्टोनिया जैसे छोटे व ग़रीब देश और स्वीडन व नॉर्वे जैसे ऐतिहासिक रूप से तटस्थ रहने वाले देश तक यूक्रेन को कुछ न कुछ दे रहे हैं। नॉर्वे और स्वीडन तो नाटो के सदस्य भी नहीं हैं। ऐसे में अमेरिका का 'मित्र' और 'तेज़ी से उभर रहा साझेदार' भारत हमले की निंदा तक नहीं कर रहा है। बताइए भला! क्या जवाब दें राष्ट्रपति जो बाइडन या विदेश मंत्री एंथनी ब्लिंकन?

इस अजीब और ऊहापोह वाले तिराहे पर खड़े भारत-अमेरिका दोतरफ़ा रिश्ता आगे किस तरफ जाएगा? यह इस पर निर्भर करता है कि यूक्रेन-रूस युद्ध कितना लंबा खिंचता है और आर्थिक प्रतिबंधों का कितना असर होता है। यदि भयानक लेकिन छोटी लड़ाई में बर्बादी के बाद यूक्रेन हथियार डाल देता है या रूस अपनी मर्जी का कर लेता है तो मामला यहीं रुक जाएगा।

लेकिन यदि लड़ाई लंबी चलती है और रूसी सेना यूक्रेन में फंस जाती है तो भारत को कुछ न कुछ फ़ैसला करना ही होगा। अमेरिका को भी भारत से अपने रिश्तों पर सोचना ही होगा और उसे आर-पार का निर्णय लेना होगा। वह भारत को काट्सा से छूट देकर उसे अपना 'विश्वस्त साझेदार', 'सुरक्षा साझेदार' या 'नाटो के बाद का सबसे बड़ा साझेदार' चाहे जो घोषित कर ले, करना ही होगा। या फिर उसे भारत पर काट्सा के तहत प्रतिबंध लगाना होगा, भले ही वह प्रतिबंध तुर्की की तरह दिखावे के लिए ही क्यों न हो।

इसी तरह यदि आर्थिक प्रतिबंध के तहत रूस का बायकॉट हो जाता है, इन प्रतिबंधों को पूरी तरह लागू करने में कामयाबी मिल जाती है तो भारत पर प्रतिबंध को बहानेबाजी से टालना मुश्किल होगा।

यह नहीं हो सकता कि अमेरिका के यूरोपीय साझेदार रूस से गैस व कच्चा तेल न खरीदें, अमेरिका सोयाबीन और गेंहू न बेचे, जर्मनी का ऑटो उद्योग नुक़सान उठाए, फ्रांस का एयरक्राफ्ट उद्योग तबाह हो और अमेरिका भारत के साथ गलबहियां करता फिरे। भारत रूस से एस-400 के बाकी चार सिस्टम भी ले ले, उसे बकाया के चार अरब डॉलर का भुगतान भी कर दे और अमेरिका दोस्ती के नाम पर आंख मूंदे रहे, ऐसा लंब समय तक नहीं हो पाएगा।

यूरोपीय संघ ने बड़ी होशियारी से रूस से कच्चा तेल व गैस नहीं खरीदने का ऐलान अब तक नहीं किया है, पर यदि लड़ाई लंबी खिंची और आर्थिक प्रतिबंध की मार पड़ी तो उसे यह भी करना पड़ेगा, जिससे खुद यूरोपीय देशों को भयानक नुक़सान होगा। इस दुहरे- तिहरे नुक़सान के बीच उसका सहयोगी अमेरिका भारत से दोस्ती गांठता रहे, यह नहीं चल पाएगा।

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अमेरिका में भारत-विरोधी लॉबी भी है, जिसे पाकिस्तान और चीन ही नहीं कई यूरोपीय देशों का भी समर्थन हासिल है। भारत समर्थक कॉकस थोड़ा मजबूत इसलिए है कि पाकिस्तान से अमेरिका के रिश्ते बुरी तरह बिगड़ते जा रहे हैं। लेकिन यदि पाकिस्तान और चीन ने मिल कर एक नया कॉकस खड़ा कर लिया तो भारत के लिए मुश्किल होगी। यह किसी से छिपा नहीं है कि इन कॉकस के सांसद पैसे लेकर लॉबीइंग करते हैं।

यूक्रेन संकट भारतीय कूटनीति के लिए बड़ी मुसीबत बन कर आया है। ऐसे समय जब भारत अपनी घरेलू राजनीति के कारण लिए गए फ़ैसलों से अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग पड़ता जा रहा है, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण और तेजी से सिमटता जा रहा है। यह भारत-अमेरिका दोतरफा संबंधों के लिए परीक्षा की घड़ी है। लेकिन भारतीय कूटनीति सबसे बुरी स्थिति में भी है, जहां स्पष्ट विदेश नीति नहीं है, विदेश नीति और कूटनीति के फ़ैसले भी गले मिल कर या झूले झूल कर या किसी देश का सबसे बड़ा नागरिक पुरस्कार हासिल कर या अपने किसी व्यवसायी मित्र के लिए किसी देश से ठेका या पूंजी लेकर लिए जाते हैं।

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