विपक्ष पर अघोषित प्रतिबंध लगा दिया गया है
लोकतंत्र कोई ‘सीढ़ीनुमा’ ढांचा नहीं, बल्कि ऊबड़-खाबड़ किन्तु एक ‘मैदान’ जैसी संरचना है। यह एक असीमित विस्तार वाला अनंत में लिपटा हुआ मैदान है जहां अनगिनत धाराएं अपनी-अपनी रफ्तार से असंख्य दिशाओं में प्रवाहित हैं। यह धाराएं आपस में टकरा भी सकती हैं, मिल भी सकती हैं और यह भी हो सकता है कि दो धाराएं आपस में कभी भी न मिलें। ऐसे में यह जरूरी नहीं कि ऊपर से देखने (टॉप व्यू) पर लोकतंत्र बहुत सुंदर व व्यवस्थित सी संरचना हो लेकिन इतना तो तय है कि लोकतंत्र जैव-विकास की सबसे आवश्यक अभिव्यक्ति है। लेकिन आज के भारत में एक विचारधारा इस असीमित विस्तार वाले मैदान को एक सीढ़ी का आकर देने में लगी हुई है। एक व्यवस्था के रूप में ‘सीढ़ी’, किसी विकास का नहीं बल्कि निरंकुशता, एकाधिकारवाद और उत्तरोत्तर बढ़ती आत्मानुशंसा का प्रतीक है। और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए भारत को इसी ओर धकेल रही है।
2024 के लोकसभा चुनावों के लिए आचार संहिता लग चुकी है। राजनैतिक दल अपनी अपनी चुनावी तैयारियों में लग गए हैं पर वहीं दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा चुनावी मैदान से, विपक्षी दलों के नेताओं को हटा कर जेल भेजती जा रही है। झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के बाद अब दिल्ली के वर्तमान मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की ED द्वारा गिरफ़्तारी इसी दिशा में संकेत है कि भारत लोकतंत्र का धरातल लगातार खोता जा रहा है।
दिल्ली की वर्तमान जनसंख्या लगभग 3 करोड़ 38 लाख है। 3 करोड़ से अधिक जनसंख्या के प्रतिनिधि को एक अपुष्ट आरोप के बिना पर गिरफ्तार कर लेना ठीक नहीं है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय को भारत के संविधान का संरक्षक बनाया गया है। संविधान की रक्षा करना उसका परम कर्त्तव्य है। विपक्षी दलों के नेताओं को जेल में ठूंस देने की नीति के बीच निष्पक्ष चुनाव असंभव हो जाएगा। और एक निष्पक्ष चुनाव की अनुपस्थिति में लोकतंत्र का विलुप्त होना तय है।
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सर्वोच्च न्यायालय को सोचना चाहिए कि एक विलुप्त लोकतंत्र में किस संविधान की रक्षा की जा सकेगी?
चाहे अरविन्द केजरीवाल हों या हेमंत सोरेन या फिर अन्य कोई विपक्षी नेता, इन पर हत्या, बलात्कार या आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप नहीं हैं। इन पर जो आरोप हैं उनका स्वभाव आर्थिक है। यह मसला चुनाव के बाद भी देखा जा सकता है। दूसरी अहम बात यह कि जिस ED संस्था द्वारा इन नेताओं की गिरफ़्तारी को अंजाम दिया जा रहा है उसकी अपनी सत्यनिष्ठा भी संदेह के घेरे में है। जिस तरह ED भाजपा में शामिल होने के बाद आर्थिक अपराध के आरोपियों पर रहम और दया दृष्टि दिखा रही है उससे लगता है कि ED कानून प्रवर्तन एजेंसी से बदलकर एक राजनैतिक टूल के रूप में आ गई है।
ED एक अस्वस्थ संस्था का रूप धारण कर चुकी है। जो आरोपियों पर उनकी भाजपा के प्रति आस्था या अनास्था के आधार पर कार्यवाही करती है। इसके असंख्य उदाहरण है- नवंबर 2017 को पश्चिम बंगाल में TMC के मुकुल रॉय बीजेपी में शामिल हो गए थे। जबकि मुकुल रॉय वो नेता हैं जिन्होंने TMC बनाई थी। उनका यह फैसला प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा नारद स्टिंग मामले में मुकुल रॉय समेत तीन अन्य टीएमसी नेताओं को तलब करने के एक हफ्ते बाद आया था। अब यह मामला ठंडे बस्ते में है। यही हाल TMC के अन्य पूर्व नेता सुवेंदु अधिकारी का है। उन पर इसी मामले को लेकर ED जांच चल रही थी और इन्होंने भी भाजपा का दामन थाम लिया। अब इनकी जांच भी ठंडे बस्ते में चली गई है।
अगस्त, 2015 में, असम के पूर्व कांग्रेस नेता हिमंत बिस्वा सरमा भाजपा में शामिल हो गए थे। वर्तमान में हिमन्त बिस्वा सरमा असम की भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री हैं। यह आश्चर्य की बात है कि उनके दलबदल से ठीक एक महीने पहले, जुलाई 2015 में, भाजपा ने आरोप लगाया था कि वह 2010 में सामने आए गुवाहाटी जल घोटाले में एक 'प्रमुख संदिग्ध' थे। भाजपा में शामिल होते ही उन पर से सभी कानून एजेंसियों का दबाव हटा दिया गया।
यही हाल अरुणाचल प्रदेश में पेमा खांडू का हुआ। तत्कालीन मुख्यमंत्री पेमा खांडू राज्य में "भ्रष्टाचार और आपराधिक साजिशों" के आरोपों का सामना कर रहे थे। इसीके चलते पेमा खांडू पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल (पीपीए) के 32 विधायकों के साथ भाजपा में शामिल हो गए, जिससे दिसंबर 2016 में पूर्ण भाजपा सरकार का गठन हुआ। अबपेमा खांडू पर कोई जांच नहीं है कोई आरोप नहीं है।
यही हाल वर्तमान में नरेंद्र मोदी सरकार में केन्द्रीय मंत्री और पूर्व शिवसेना नेता नारायण राणे का है। उन पर भी आर्थिक भ्रष्टाचार का आरोप था, ED उनसे संबंधित कुछ शेल कंपनियों की जांच कर रही थी। लेकिन बीजेपी में शामिल होते ही, ED दृश्य से गायब हो गई। महाराष्ट्र में तो ऐसी घटनाओं का बहुत बड़ा विस्तार है जहां भावना गवली, प्रताप सरनाईक, हसन मुश्रीफ, अजित पवार, यामिनी जाधव, छगन भुजबल, अशोक चव्हाण जैसे नेता शामिल हैं। जो शिवसेना, NCP और काँग्रेस जैसी अपनी-अपनी पार्टियों को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए क्योंकि सभी के खिलाफ ED ने मोर्चा खोल रखा था। अब आज इन सभी के खिलाफ चल रहे मामले ठंडे बस्ते में डाल दिए गए हैं।
इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को सबसे पहले तो ED की कार्यप्रणाली, कानून के प्रति उसकी प्रतिबद्धता, निष्पक्षता आदि मुद्दों के साथ उसकी वैधता को स्थापित करना चाहिए। जब समूचा विपक्ष एकत्र होकर यह कह रहा है कि ED बदले की कार्यवाही से काम कर रही है तब संवैधानिक न्यायालय की अपनी क्षमताओं का उपयोग करके सर्वोच्च न्यायालय को इस बात की जांच जरूर करनी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय को यह बात सम्पूर्णता में समझनी चाहिए कि भाजपा की विपक्ष को समाप्त करने की रणनीति भारत को रूस और उत्तरी कोरिया में बदल देगी। एक बार ऐसी स्थिति आने के बाद स्वयं सुप्रीम कोर्ट भी शक्तिविहीन हो जाएगा। और तब लोकतंत्र को बचाने में कोर्ट की भूमिका निरर्थक हो जाएगी।
सर्वोच्च न्यायालय को 3 अक्टूबर 2023 को दिए गएअपने फैसले के बारे में सोचना चाहिए जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने M3M रीयलिटी समूह के निदेशकों को धनशोधन मामले में रिहा करते हुए ED को फटकार लगाया था और यह कहा था कि -EDके आचरण में ‘प्रतिशोध’ लेने की उम्मीद नहीं की जाती है। उसे पूरी ईमानदारी और निष्पक्षता से काम करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि- किसी आरोपी को सिर्फ इस आधार पर गिरफ्तार नहीं किया जा सकता कि वह ED द्वारा पूछे गए सवालों के जवाब से एजेंसी को संतुष्ट नहीं कर सका है। और जो सबसे अहम बात कोर्ट ने कही थी कि- PMLA-2002 कानून की धारा 50 के तहत दिए गए सम्मन में सहयोग न किये जाने पर आरोपी ऐक्ट की धारा-19 के तहत गिरफ़्तारी का पात्र नहीं बन जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी इसी बात को 22 मार्च को फिर से दोहराया है। ऐसे में अरविन्द केजरीवाल की गिरफ़्तारी पर रोक लगाई जानी चाहिए थी।
न्यायालय को केजरीवाल और हेमंत सोरेन के मुद्दे को पिछले दो सालों में घटी घटनाओं के संदर्भ में समझना चाहिए और जिन सरकारी एजेंसियों की निष्पक्षता पर स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल उठाया है उसे लोकतंत्र के सबसे बड़े चुनावों के पहले हथियार बनाए जाने से रोका जाना चाहिए। केंद्र सरकार संघीय ढांचा तोड़ रही है, केंद्र सरकार विपक्ष को खत्म करके निष्पक्ष चुनावों में बाधा डाल रही है, चुनाव आयोग विपक्षी दलों के मुद्दे को न सुनकर स्वयं निष्पक्ष चुनाव में बाधा डाल रहा है, चुनाव आयोग की नियुक्ति से भारत के मुख्य न्यायधीश को हटाकर निष्पक्ष चुनावों के खिलाफ, केंद्र अपनी मंशा जाहिर कर चुका है।
सिर्फ और सिर्फ विपक्षी दलों के नेताओं को ही जेल में भेजे जाने से निष्पक्ष चुनाव वास्तविकता से दूर किया जा रहा है, मुख्य विपक्षी दल काँग्रेस के खाते ब्लॉक करके केंद्र सरकार विपक्ष की आर्थिक लाइन काट रहा है, एक तरह से यह कोशिश कर रहा है कि विपक्ष न प्रचार कर पाए, न ही रैली कर पाए। बिना किसी प्रचार के काँग्रेस के लिए अघोषित रूप से चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा देने जैसी स्थिति पैदा कर दी गई है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई देरी 75 सालों से चल रहे लोकतंत्र और 200 साल की ग़ुलामी के बाद प्राप्त की गई आजादी को हमेशा के लिए खत्म कर देगा।
कानून को अपने आँख की पट्टी खोलकर V-DEM रिपोर्ट को जरूर देखना चाहिए। वी-डेम इंस्टीट्यूट की डेमोक्रेसी रिपोर्ट-2024 भारत के लोकतांत्रिक पतन की एक गंभीर तस्वीर पेश करती है। भारत पहली बार 2018 में चुनावी निरंकुशता वाले देशों में शामिल हुआ था। और तब से लगातार छठे साल चुनावी निरंकुशता के रूप में वर्गीकृत किया गया है। रिपोर्ट जिन मुद्दों पर प्रकाश डाल रही है उसे प्रत्येक नागरिक द्वारा प्रत्यक्ष रूप से देखा जा सकता है। रिपोर्ट कहती है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में धीरे-धीरे लेकिन पर्याप्त गिरावट, मीडिया की स्वतंत्रता से समझौता, सोशल मीडिया पर कार्रवाई और सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों का उत्पीड़न भारत के गिरते लोकतंत्र स्कोर के लिए जिम्मेदार हैं। इसके साथ ही रिपोर्ट में आलोचकों को चुप कराने के लिए राजद्रोह, मानहानि और आतंकवाद विरोधी कानूनों का उपयोग करने में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है।
भाजपा सरकार पर 2019 में गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) में संशोधन करके धर्मनिरपेक्षता के प्रति संविधान की प्रतिबद्धता को कम करने का भी आरोप है। 2019 के इस संशोधन की तुलना यदि किसी औपनिवेशिक कानून से कर दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह खतरनाक संशोधन है जो केंद्रीय अधिकारियों को उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना किसी भी व्यक्ति को 'आतंकवादी' करार देने का अधिकार देता है। ऐसे व्यक्ति का नाम अधिनियम की 'चौथी अनुसूची' में शामिल किया जाता है। ऐसे व्यक्ति के लिए एकमात्र वैधानिक उपाय केंद्र सरकार के समक्ष अधिसूचना रद्द करने के लिए आवेदन करना है, जिस पर सरकार द्वारा गठित समीक्षा समिति द्वारा विचार किया जाता है। लगता है कि इस संशोधन के माध्यम से सरकार ने स्वयं को ही कानून समझ लिया है, और खुद को ही न्यायपालिका!
वर्तमान मोदी सरकार वी-डेम रिपोर्ट को नकार सकती है लेकिन जनता को यह जानना चाहिए कि यह रिपोर्ट भारतीय टीवी न्यूज चैनलों के न्यूजरूम में नहीं बनी है, न ही इसे बनाने वालों के किसी देश के पीएम से ‘व्यक्तिगत संबंध’ हैं। इस रिपोर्ट में 180 देशों के 4,200 विद्वान शामिल हैं, जो दुनिया भर में लोकतंत्र की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए 1789 से 2023 तक के आंकड़ों का विश्लेषण कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में 71 संकेतकों का इस्तेमाल किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में लोकतंत्र का स्तर अब "1975 में देखे गए स्तर से नीचे आ गया है...।” 21 वीं सदी के भारत के लिए यह वास्तव में चिंता की बात है।
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भारत को लोकतान्त्रिक राष्ट्र से एक चुनावी निरंकुशता वाले राष्ट्र(2018) और अब "सबसे खराब निरंकुशों में से एक" तक पहुँचा देने वाला नेतृत्व खतरनाक है।
वी-डेम रिपोर्ट में एक हालिया अध्ययन का हवाला दिया गया है जिसमें दिखाया गया है कि जिन लोकतंत्रों में निरंकुशता शुरू हो जाती है उनमें से 80% लोकतंत्र टूट जाते हैं। अगर PMLA कानून और ED ऐसे ही सरकारी टूल और विपक्षी दलों की कब्रगाह बनाते रहे तो भारत में लोकतंत्र एक कहानी के रूप में ही याद किया जाएगा। इन कहानियों को भी बंद दरवाजों में ही सुना जा सकेगा।
ऐसी घटना न घटित हो इसके लिए संविधान के अभिरक्षक को अपनी भूमिका को 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले समय रहते निभाना होगा। यदि विपक्ष को सरकार का ‘शिकार’ बनते रहने दिया गया, और 2024 का चुनाव निष्पक्षता की अनुपस्थिति में लड़ा गया, तो लोकतंत्र का पवित्र ‘मैदान’ एक विचारधारा की ‘सीढ़ी’ का रूप धर लेगा जहां ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा जैसे भाव प्रबल होंगे और समानता व धर्मनिरपेक्षता जैसे संवैधानिक और आजादी के मूल्य धूल में लिपटे अनंत समय के लिए खो जाएंगे।