न्यायालय के फैसले से और जटिल होता नजर आ रहा है प्रमोशन में आरक्षण
प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने का मसला अब और जटिल होता नजर आ रहा है। उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को एक अहम फैसले में कहा है कि अनुसूचित जाति व जनजाति के कर्मचारियों को प्रमोशन में आरक्षण दिए जाने के मामले में प्रतिनिधित्व की जांच पद के ग्रेड/कैटेगरी के मुताबिक की जानी चाहिए, न कि पूरे क्लास या ग्रुप के मुताबिक। न्यायालय ने यह भी कहा कि पात्रता के लिए आंकड़े एकत्र करने में कैडर को यूनिट माना जाना चाहिए। अगर पूरी सेवा के आंकड़े लिए जाते हैं तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है।
न्यायालय के इस फैसले को सरलता से समझने की कवायद करें तो संभवतः यह अर्थ निकलता है कि जिस पद पर संबंधित व्यक्ति का प्रमोशन किया जाना है, सरकार को यह देखना है कि उस पद पर पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं।
उदाहरण के लिए अगर पुलिस विभाग में किसी व्यक्ति का सिपाही पद से सब इंसपेक्टर पद पर प्रमोशन करना है तो सरकार इस आधार पर नहीं कर सकती है कि सब इंसपेक्टर, थानाध्यक्ष, सर्किल ऑफिसर, एएसपी, एसएसपी, डीआईजी और आईजी पदों पर अनुसूचित जाति व जनजाति का प्रतिनिधित्व कम है, इसलिए सिपाही का प्रमोशन सब इंसपेक्टर के रूप में किया जा रहा है। या अगर किसी व्यक्ति का प्रमोशन थानेदार से सीओ पद पर करना है तो सरकार को यह देखना होगा कि सीओ पद पर अनुसूचित जाति व जनजाति का उचित प्रतिनिधित्व है या नहीं।
अटार्नी जनरल केके वेणुगोपाल, एडीशनल सॉलिसिटर जनरल बलबीर सिंह व अन्य वरिष्ठ वकीलों ने राज्यों व सरकारी कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करते हुए कुछ मसलों पर न्यायालय की राय मांगी थी। मसला यह था कि प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता किस तरह निर्धारित की जाए। यह विभिन्न जातियों की आबादी के प्रतिशत के रूप में निर्धारित किया जाए या ए और बी श्रेणी के उच्च पदों पर आरक्षण के हिसाब से तय किया जाए, या आरक्षित श्रेणी के नियुक्त व्यक्ति के एंट्री लेवल की मेरिट के आधार पर तय की जाए। इस तरह के कई और सवाल चर्चा के दौरान उठाए गए थे।
इन तमाम मसलों पर चर्चा के बाद जस्टिस एल नागेश्वर राव, संजीव खन्ना और बीआर गवई के पीठ ने जो फैसला सुनाया, उसके मुताबिक न्यायालय प्रतिनिधित्व पर्याप्त होने या न होने के कोई मानदंड नहीं तय करेगा। इसका मतलब यह है कि आरक्षित वर्ग का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है, या नहीं इसके बारे में केंद्र या संबंधित राज्य सरकार को ही तय करना है।
दूसरा, राज्य प्रतिनिधित्व की पर्याप्तता के संबंध में मात्रात्मक डेटा एकत्र करने के लिए बाध्य है। यानी अब पहले की तरह से अनुसूचित जाति व जनजाति को प्रमोशन में आरक्षण नहीं मिलेगा, बल्कि अब सरकारों को पहले आंकड़े जुटाने होंगे, उसके बाद ही आरक्षण दिया जा सकता है।
कुल मिलाकर पर्याप्त प्रतिनिधित्व होने या न होने के आंकड़े के नाम पर अटका एससी और एसटी का रिजर्वेशन अब कहीं और कड़े आंकड़ेबाजी में आकर फंसता नजर आ रहा है।
विभाग में प्रतिनिधित्व है या नहीं, यह बताने की जगह सरकार को इससे कहीं और जटिल आंकड़ा एकत्र करना है कि व्यक्ति को जिस पद पर प्रमोशन दिया जा रहा है, उस पद पर अनुसूचित जाति और जनजाति का पर्याप्त प्रतिनिधित्व है या नहीं। साथ ही प्रतिनिधित्व का मानक तय करना संबंधित राज्यों व केंद्र सरकार का काम होगा।
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि वंचित तबके को प्रतिनिधित्व देने का मसला न्यायायपालिका से लेकर कार्यपालिका के तमाम स्तरों पर लगातार फंसाया जा रहा है। अगर जातिगत जनगणना की बात की जाती है, उस पर सरकार से लेकर न्यायालय तक कुछ कहने को तैयार नहीं है जिससे कि प्रतिनिधित्व के सही आंकड़े सामने आ सकें।
वहीं जब आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) के माध्यम से सवर्णों को आरक्षण देने की बात आती है तो उस पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता है कि इस तरीके से सरकार कितने लोगों को नौकरी देकर आर्थिक रूप से मजबूत बनाएगी? सरकार की इस संबंध में क्या कार्ययोजना है? वह आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देकर कितने वर्षों में उन्हें आर्थिक रूप से मजबूत कर पाएगी?
आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की देश में संख्या कितनी है और सरकार के पास कितनी नौकरियां हैं, जिसके माध्यम से उन्हें आर्थिक मजबूत बनाया जाना है? न्यायालय यह सब सवाल उठाए बगैर ईडब्ल्यूएस आरक्षण को आसानी से हरी झंडी दे देता है, वहीं जब अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़े वर्ग के आरक्षण से जुड़ा मसला आता है तो उन्हें नौकरियां देने के मसले को और जटिल बना दिया जाता है।