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चाहकर भी 2015 जैसी 'पुरस्कार वापसी' नहीं कर पाएँगे? सरकार चिंतित क्यों

चाहकर भी 2015 जैसी 'पुरस्कार वापसी' नहीं कर पाएँगे? सरकार चिंतित क्यों

क्या 'अवार्ड वापसी' जैसी किसी घटना को अब नहीं होने देने की तैयारी है? आख़िर ऐसा क्यों किया जा रहा है? जानें आख़िर 2015 में क्या हुआ था कि इससे सीख लेने की तैयारी की जा रही है। 

क्या सरकार 2015 की 'अवार्ड वापसी' जैसी शर्मिंदगी से आगे बचना चाहती है? आठ साल पहले बढ़ती असहिष्णुता के मामले को लेकर बड़ी संख्या में साहित्यकारों ने अवार्ड वापस कर दिए थे। इससे सरकार की काफ़ी किरकिरी हुई थी। अब एक संसदीय पैनल ऐसी घटना को रोकने की तैयारी में है। इसने पुरस्कार विजेताओं से एक शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने की सिफारिश की है कि वे किसी भी राजनीतिक घटना के विरोध में किसी भी स्तर पर अपने पुरस्कार वापस नहीं लौटाएँगे। यदि यह सिफारिश मान ली गई तो फिर पुरस्कार पाने वाले किसी भी हालत में अवार्ड नहीं लौटा पाएँगे।

तो सवाल है कि आख़िर सरकार इस स्तर पर फ़ैसले लेने को मजबूर क्यों हुई? समझा जाता है कि यह फ़ैसला 2013 के घटनाक्रमों को देखते हुए लिया गया है। उस समय लेखकों ने साहित्य अकादमी को बताया था कि उनके पुरस्कार लौटाने का कारण बढ़ती असहिष्णुता और कर्नाटक के एक प्रतिष्ठित लेखक एम एम कलबुर्गी की हत्या का विरोध करना था।

दरअसल, लेखकों ने यह क़दम हिंसा पर सरकारी चुप्पी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन के रूप में उठाया था। सितंबर 2015 की शुरुआत से देश भर में असंतुष्ट लेखकों और कवियों ने भारत में सांप्रदायिक हिंसा की बढ़ती घटनाओं के विरोध में प्रतिष्ठित साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाना शुरू कर दिया था। उनका मानना ​था कि तत्कालीन बीजेपी सरकार के तहत देश में असहिष्णुता का माहौल था। 

हिंदी लेखक उदय प्रकाश एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में 4 सितंबर 2015 को प्रतिष्ठित पुरस्कार लौटाने वाले पहले व्यक्ति थे। लेखिका नयनतारा सहगल और कवि अशोक वाजपेई ने एमएम कलबुर्गी, गोविंद पंसारे और नरेंद्र दाभोलकर जैसे तर्कवादियों की हत्याओं के विरोध में अवार्ड लौटा दिए। वे चौंकाने वाली दादरी घटना के खिलाफ भी सामने आए, जिसमें भीड़ ने ग्रेटर नोएडा में गोमांस खाने और रखने की अफवाह पर एक मुस्लिम व्यक्ति की पीट-पीट कर हत्या कर दी थी।

कई विशिष्ट लेखकों और कवियों ने देश की शीर्ष साहित्यिक संस्था की जनरल काउंसिल में अपने पदों से यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि वे भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असहिष्णुता के स्तर से हैरान हैं। 

तत्कालीन केंद्रीय संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने 2018 में लोकसभा में बताया था कि इन लेखकों ने यह कहते हुए अपने पुरस्कार लौटाए थे कि उनकी अभिव्यक्ति की आजादी पर हमला किया जा रहा है और अकादमी इस मुद्दे पर चुप है।

बता दें कि सितंबर और अक्टूबर 2015 के बीच लगभग 39 लोगों ने पुरस्कार लौटा दिए। कुछ लोगों ने अपनी पट्टिकाएँ भेजीं, कुछ ने अभी भी नहीं भेजी हैं; अकादमी के अनुसार कुछ ने चेक भी भेजे। द इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार हालाँकि, इसने उन्हें सूचित किया था कि पुरस्कार वापस लेने की कोई व्यवस्था नहीं थी, और इसलिए, चेक जमा नहीं किए गए थे।

अकादमी ने यह भी बताया कि इनमें से कई लोग फिर से अकादमी से जुड़े हैं और कभी-कभी जूरी में भी काम कर चुके हैं और कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं। इस बीच, समिति ने ऐसे पुरस्कार विजेताओं की दोबारा नियुक्ति पर सवाल उठाया, जिन्होंने अकादमी का 'अपमान' किया।

बहरहाल, अब अवार्ड वापसी पर रोक लगाने के प्रयास चल रहे हैं। परिवहन, पर्यटन और संस्कृति पर संसदीय स्थायी समिति ने सोमवार को संसद के दोनों सदनों में एक रिपोर्ट पेश की, जिसमें कहा गया कि 'पुरस्कार वापसी से जुड़ी ऐसी अनुचित घटनाएं अन्य पुरस्कार विजेताओं की उपलब्धियों को कमजोर करती हैं और पुरस्कारों की समग्र प्रतिष्ठा पर भी असर डालती हैं'।

यह देखते हुए कि राजनीतिक मुद्दे सांस्कृतिक दायरे और संबंधित अकादमी की स्वायत्त कार्यप्रणाली के दायरे से बाहर हैं। रिपोर्ट में सुझाव दिया गया कि 'जब भी कोई पुरस्कार दिया जाता है, तो लेने वाले की सहमति अवश्य ली जानी चाहिए, ताकि वह राजनीतिक कारणों से इसे वापस न लौटा पाए, क्योंकि यह देश के लिए अपमानजनक है'।

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