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मोदी देश के लिए नहीं अपनी टीम के लिए प्रतिबद्ध

मोदी देश के लिए नहीं अपनी टीम के लिए प्रतिबद्ध

नरेंद्र मोदी तीसरी बार फिर से प्रधानमंत्री बन गए हैं। हालांकि इस बार उनकी सरकार दो अन्य दलों की बैसाखियों पर टिकी है। लेकिन क्या इससे मोदी अपनी प्राथमिकताएं और प्रतिबद्धताएं बदल लेंगे। ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा। उन्होंने अपने ढर्रे पर ही चलने का फैसला कर लिया है। 

4 जून को लोकसभा चुनावों के परिणाम आने के बाद 9 जून, रविवार, को नरेंद्र मोदी ने भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ तीसरी बार ले ली। अखबारों ने मोदी की तुलना भारत के महान प्रगतिशील प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू से करना शुरू कर दिया। शायद यह तुलना संख्या की थी व्यक्तित्वों की नहीं। तकनीकी रूप से देखा जाए तो संख्या के आधार पर यह तुलना भी बेमानी ही है। नेहरू 1946 में पहले अंतरिम प्रधानमंत्री बने, फिर 1947 में संविधान बनने तक प्रधानमंत्री रहे इसके बाद 1950 में भारत का संविधान लागू होने के बाद से 1964 में अपनी आखिरी सांस तक वे लगातार प्रधानमंत्री बने रहे। 

कोई नेता अगर तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ले लेता है, तो उसकी ये मात्र योग्यता उसे नेहरू से तुलना लायक नहीं बना देती, ऐसी तुलना किया जाना भी ‘अन्याय’ है। नेहरू की सिर्फ एक मात्र पहचान भारत का प्रधानमंत्री बनना नहीं थी, वो वैश्विक नेता थे, दुनिया के सभी नए उभरते और स्वतंत्र होते देश उनसे प्रेरणा ले रहे थे। नेहरू ऐसी दुनिया के सर्वमान्य नेता बन गए थे जो दुनिया अमेरिका और तत्कालीन सोवियत संघ के लिए कुछ खास मायने नहीं रखती थी। नेहरू ‘तृतीय विश्व’ के नेता बने उन्होंने गुटनिरपेक्ष आंदोलन की अगुआई की। नेहरू एक अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व थे जो लगातार एशिया, अफ्रीका और अमेरिकी महाद्वीप में चल रहे उदारवादी आंदोलनों को अपना नैतिक और बौद्धिक समर्थन प्रदान कर रहे थे। 

शांति के लिए प्रतिबद्ध नेहरू, तत्कालीन स्वेज नहर, कांगो, वियतनाम, कोरिया और अरब-इस्राइल जैसे अंतर्राष्ट्रीय संकटों के निवारण के लिए व्यक्तिगत रूप से सक्रिय थे। भारत के पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बेटे और प्रख्यात इतिहासकार सर्वपल्ली गोपाल का मानना था कि “बीसवीं शताब्दी के इतिहास में नेहरू ने भारतीयों के नेता के रूप में और एशिया की नवीन पद्धति के रूप में और अंतर्राष्ट्रीय आत्मा के प्रवक्ता के रूप में एक निर्णायक भूमिका निभाई है”। 

नेहरू से तुलना करने के लिए मात्र प्रधानमंत्री बनना काफी नहीं है। जैसा कि माइकल ब्रेचर ने कहा है कि “नेहरू के सार्वजनिक जीवन की पवित्रता, उनकी ईमानदारी और उनकी बेईमानी के प्रति घृणा…एक दुर्ग के समान थी”, नरेंद्र मोदी को ऐसा बनना होगा।

मोदी राष्ट्रीय आत्मा के प्रवक्ता बनने की स्थिति में ही नहीं हैं, अंतर्राष्ट्रीय आत्मा का प्रवक्ता बनना तो अभी बहुत दूर का विषय है। साल भर से जलते हुए मणिपुर पर मोदी की निरीहता देखना बहुत दुखद है। इतने बड़े लोकतान्त्रिक देश के प्रधानमंत्री से आशा की जा रही थी कि वो इस्राइल-गाजा संघर्ष में एक अंतर्राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरेगा। वो तो मणिपुर पर ही असहाय हो गए, ऐसे में उनसे कोई आशा किया जाना बेमानी है।

संभवतया यही बात भारत का नागरिक भी समझ गया है। नरेंद्र मोदी ने अपने चेहरे पर चुनाव लड़, किसी और नेता का नाम सामने भी नहीं आने दिया। पिछले दस सालों में हर गली, चौराहों, पेट्रोल पंप, कोविड वैक्सीन सर्टिफिकेट, राशन की बोरियों समेत हर वेबसाइटों में चल रहे भाजपा के प्रचार में सिर्फ मोदी ही दिख रहे थे।

मोदी को भरोसा था कि जनता उनके चेहरे को देखकर उनके ही नाम पर वोट डाल देगी। जनता ने उनके तथाकथित काम को भी समझा और वोट भी डाला लेकिन यह वोट नरेंद्र मोदी के लिए नहीं, यह वोट नरेंद्र मोदी के खिलाफ किया गया। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी बहुमत से 31 सीटें पीछे रह गई। जनता ने यह बता दिया कि उसे प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी नहीं चाहिए। लेकिन फिर भी मोदी जी ने सहयोगियों की मदद से सरकार बना ही ली और सत्ता में फिर से आ गए।

मेरी नजर में नरेंद्र मोदी जी ने देश की जनता द्वारा चुनी गई लोकसभा का अपमान किया है। भारत के मतदाताओं ने जिस तरह का निचला सदन चुनकर दिया है उससे तो यही लगता है कि वो यह चाहती थी कि सरकार चाहे जिसकी बने लेकिन जिन लोगों ने पिछले दस सालों से देश में बढ़ रही बेरोजगारी, भुखमरी और गरीबी के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाए हैं उन्हे सत्ता के आसपास भी नहीं भटकना चाहिए था। जो लोग देश की सीमाओं की सुरक्षा के लिए समुचित नीतियाँ बनाने में असफल रहे, उन्हे सत्ता में भागीदार नहीं बनना चाहिए था। लेकिन नरेंद्र मोदी ने जनता की इच्छा को एक तरह से नकार दिया।

जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद मोदी को दो ऐसे दलों का साथ मिला जिनकी नींव में भरे पत्थर नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं से वास्ता नहीं रखते। तेलगू देशम पार्टी (TDP) की बुनियाद तेलगू सिनेमा के प्रख्यात अभिनेता, एन. टी. रामाराव (NTR) ने रखी थी। NTR का आधार धर्मनिरपेक्ष राजनीति से बना था। यह बात सही है कि TDP का जन्म काँग्रेस के विरोध में हुआ था लेकिन यह कहानी तो भारत की लगभग हर राजनैतिक पार्टी की है। 

TDP ने भले ही बीजेपी को पहले भी समर्थन दिया हो और उनसे समर्थन लिया हो लेकिन NTR हमेशा से ऐसे व्यक्तित्व रहे जिनके लिए क्षेत्रीय अस्मिता, धर्मनिरपेक्षता और केंद्र-राज्य संबंध सबसे पहले स्थान पर रहे। चंद्रबाबू नायडू को नरेंद्र मोदी का समर्थन करने से पहले खुद से यह पूछना चाहिए कि क्या पिछले दस सालों में देश NTR के विजन से एक कदम भी आगे बढ़ा है?

धर्मनिरपेक्षता का यही मूल जनता पार्टी का भी रहा है। आज 70 के दशक की जनता पार्टी तो नहीं रही है, पर जो भी बची है उसमें लालू की RJD के अतिरिक्त नीतीश कुमार की JDU और देवगौड़ा की JDS अहम है। लेकिन विरोधाभास देखिए, हेजेमनी और तानाशाही के खिलाफ खड़ा होने वाला जनता समूह आज जिस ओर खड़ा है वो 21वीं सदी के भारत में उदारवादी राजनीति, धर्मनिरपेक्षता और समन्वय के लिए नहीं जाना जाता। नीतीश और चंद्रबाबू दोनो ही अपनी अपनी विरासत के खिलाफ जाकर खड़े हुए हैं। इन दोनो को तय करना है कि राष्ट्र उन्हे कैसे याद रखेगा।  

क्योंकि मोदी जी तो ‘अहंकार’ पर सवार हैं। सभी पुराने चेहरों को उनके मंत्रालय वापस दे देना जबकि जनता ने मतदान के माध्यम से इसका विरोध किया था, बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। मोदी के पुनः सत्ता हासिल करने को मीडिया, ‘मोदी-3.0’ का नाम दे रहा है। मोदी-2.0 को जनता ने पूरी तरह नकार दिया था इसके बावजूद ‘मोदी-3.0’ में उन्ही चेहरों को दोहराना ‘अहंकार’ का प्रतीक है। किसी ऐप के नए वर्जन सा प्रतीत होता यह नाम असल में हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर दोनो ही मामलों में पुराना है।

विपक्ष ने मोदी के खिलाफ यह चुनाव महंगाई, बेरोजगारी और संविधान बदले जाने की योजना के खिलाफ लड़ा था। ऐसे में मोदी का बहुमत तक पहुँच पाने को जनता की इच्छा समझना चाहिए। लेकिन नरेंद्र मोदी ने सरकार बनाने के बाद सभी प्रमुख मंत्रालय पुराने मंत्रियों को ही दे दिए। मोदी जी ने गृह मंत्रालय अमित शाह को ही दिया जबकि मणिपुर देखें तो शाह एक असफल गृहमंत्री रहे। मणिपुर की दोनो लोकसभा सीटें भी जनता ने बीजेपी से छीन लीं, इसके बाद भी पीएम मोदी को समझ नहीं आया। एक साल के बाद अभी भी मणिपुर न सिर्फ जल रहा है बल्कि जिरीबाम, जैसे क्षेत्र जो शांत थे वहाँ भी व्यापक हिंसा होने लगी है। 

2019 में धारा-370 को खत्म करते समय तत्कालीन गृहमंत्री अमित शाह ने ही कहा था कि अब जम्मू कश्मीर में आतंकी घटनाएं नहीं घटेंगी, पीएम मोदी ने 2016 में कुख्यात ‘विमुद्रीकरण’ योजना लाते समय कहा था कि इससे आतंकी फंडिंग को पूरी तरह रोका जाएगा। लेकिन दोनो ही नेता अपने वादे में असफल रहे, बीते तीन दिनों में जम्मू कश्मीर में तीन आतंकी हमले हो चुके हैं। अगर धारा-370 ही आतंकवाद को पोषित कर रही थी तो अब यह आतंकवाद कहाँ से आया? अगर विमुद्रीकरण से से आतंकी फंडिंग बंद हो जानी थी तो इन आतंकवादियों को फंडिंग कौन कर रहा है?

अमित शाह और पीएम मोदी बोलते रहे, देश की जनता सुनती रही, भरोसा करती रही, जम्मू कश्मीर की जनता ने महीनों का कर्फ्यू झेला, नेता नजरबंद कर दिए गए, इंटरनेट ऐतिहासिक समय के लिए बंद कर दिया गया इसके बावजूद कुछ नहीं बदला। कम से कम गृहमंत्री को तो बदल दिया जाता। गृहमंत्री जी तो नाक के नीचे हुए दिल्ली दंगों को भी रोकने में नाकामयाब रहे, पूरी दुनिया में भारत की बदनामी हुई। 

रक्षा मंत्रालय की ‘अग्निवीर’ जैसी असफल और विध्वंसक योजना जिसका खामियाजा भी बीजेपी को भुगतान पड़ा, सेना के अनुभवी और रिटायर्ड अधिकारियों की आपत्ति के बावजूद भी इस योजना को न ही बदला गया न ही खत्म किया गया। पूरे देश के हजारों लाखों छात्रों ने विरोध प्रदर्शन किया, कुछ की जान भी गई लेकिन अहंकार इतना कि यह योजना वापस ही नहीं ली गई।

आम आदमी नहीं समझ पा रहा है लेकिन फौज के रिटायर्ड अधिकारी सवाल पूछ रहे हैं कि अग्निवीर से हर साल मात्र 7 हजार ही भर्ती होनी है जबकि हर साल रिटायर होने वाले सैनिकों की संख्या 70 हजार है ऐसे में भरपाई कैसे होगी? क्या यह राष्ट्रीय सुरक्षा के साथ खतरा नहीं है? सैनिकों के लिए, देश की सुरक्षा के लिए इतनी लचर प्लानिंग वाली योजना लाने के बाद भी, राजनाथ सिंह रक्षा मंत्री बने हुए है। यही हाल निर्मला सीतारमण के वित्त मंत्रालय का है। महंगाई बेरोजगारी से देश उबल रहा है, लोगों ने इसके खिलाफ वोट भी किया लेकिन फिर भी उनका पद बरकरार रखा गया। आर्थिक विश्लेषक कह रहे हैं कि भारत इस समय 2008 जैसे वैश्विक आर्थिक संकट के मुहाने पर खड़ा है।

बड़े उद्योगपतियों ने निवेश कम कर दिया है, इस वजह से बैंक से लोन नहीं ले रहे हैं। बैंक और अन्य वित्तीय संस्थान अपने प्रॉफ़िट के लिए घरेलू लोन बाँट रहे हैं हैं। इस समय भारत में घरेलू लोन ऐतिहासिक रूप से उच्च स्तर (जीडीपी का 40%)पर पहुँच गया है। अर्थशास्त्र में एक सामान्य समझ है कि घरेलू लोन जितना बढ़ता जाता है अर्थव्यवस्था में संकट उतना ही गंभीर होता जाता है। क्योंकि घरेलू लोन न ही उत्पादकता बढ़ा पाते हैं और न ही नौकरियां। धड़ल्ले से घरेलू लोन दिए जा रहे हैं जबकि उन्हे चुका पाने की दर लगातार कम होती जा रही है क्योंकि भारत में नौकरियां और मानव पूंजी की कमी लगातार बढ़ती जा रही है।

भारत में 2011 में क्रेडिट कार्ड्स की संख्या 2 करोड़ थी जो आज बढ़कर 10 करोड़ हो गई है जबकि कार्ड धारक इनके बिल चुकाने की स्थिति में नहीं हैं। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने भी माना है कि ऐसे लोगों को भी क्रेडिट कार्ड दिए जा रहे हैं जो इन्हे नहीं चुका पाते और कार्ड का बिल चुकाने के लिए किसी अन्य वित्तीय संस्थान से कर्ज ले बैठते हैं जिससे लगातार कर्ज के बोझ में दबते जा रहे हैं। इससे भारत के वित्तीय नेटवर्क पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है। खाद्य वस्तुओं के दाम लगातार बढ़ते जा रहे हैं, दालें, आटा जैसी जरूरत की चीजें पॉकेट से बाहर हो रही हैं, देश का गेंहू रिजर्व 16 सालों के निम्नतम स्तर पर है। हालत यहाँ तक पहुँच चुकी है कि फूड सिक्योरिटी ऐक्ट की संसद की अपनी वैधानिक जिम्मेदारी के लिए सरकार को गेहूं आयात करना पड़ेगा। 

जो व्यक्ति और सरकार इन नीतियों के लिए जिम्मेदार है उसे ही नहीं बदला जा रहा है मतलब यही नीतियाँ चालू रहने वाली हैं ऐसे में भारतीयों को 2008 जैसे विशाल आर्थिक संकट के लिए खुद को तैयार रखना चाहिए। ऐसा लगता है मोदी जी ने एक टीम बना ली है और वो भारत, भारत के लोगों से ज्यादा अपनी टीम के प्रति प्रतिबद्ध हैं। वर्ना और क्या कारण हो सकता है कि 80 साल की उम्र में पहुँचने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, अजीत डोभाल, को फिर से इस पद पर बिठा दिया जाय? 

 - Satya Hindi

अजीत डोभाल

यदि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को देखें तो आखिर डोभाल भी तो एक असफल अधिकारी ही हैं। डोभाल को पुलवामा की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? क्या डोभाल को पंजाब में फिर से पैर पसार रहे खालिस्तानी आतंकवाद की जिम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए? मेरी नजर में तो लेनी चाहिए लेकिन पीएम मोदी शायद अपनी टीम के बिना मुश्किल में पड़ सकते हैं इसलिए न सिर्फ सुरक्षा सलाहकार बल्कि अपने प्रधान सचिव तक को वो नहीं बदलना चाहते। 

यह तो तय है कि मोदी की तुलना नेहरू से नहीं की जा सकती। यही भी सही है कि इतिहास इस सरकार को मोदी सरकार के रूप में नहीं बल्कि ऐसी सरकार के रूप में याद रखेगा जिसे नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू के बिना एक कदम भी नहीं चलाया जा सकता था। इन दोनो नेताओं को यह सवाल खुद से पूछना चाहिए कि क्या उनका मोदी को दिया जा रहा समर्थन- किसान आंदोलन समेत देश के तमाम नागरिक आंदोलनों और विपक्षी राजनैतिक दलों को कुचलने की कोशिश का समर्थन नहीं माना जाना चाहिए? 

(लेखक कुणाल पाठक स्तंभकार हैं और लखनऊ पोस्ट डॉट कॉम के सह संस्थापक हैं)

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