किरण रिजिजू से आख़िर क़ानून मंत्रालय क्यों छीन लिया गया?
हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट से फ़ैसले केंद्र के अनुकूल नहीं रहे हैं। इसमें से एक फ़ैसला तो कर्नाटक से जुड़ा है जिसको चुनाव पर असर डालने वाला माना जाता है। कहा जा रहा है कि कर्नाटक चुनाव से बीजेपी बौखलाई हुई है। इस चुनाव में कर्नाटक बीजेपी ने दाँव खेला था कि मुसलिमों को मिलने वाले 4 फ़ीसदी आरक्षण को ख़त्म कर इसे लिंगायत और वोक्कालिगा समुदायों में बाँट दिया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने बीजेपी के मंसूबों पर पानी फेर दिया था। यह कोई अकेला मामला नहीं है। हाल में ऐसे ही कई फ़ैसले बीजेपी के ख़िलाफ़ गए हैं।
बीजेपी के ख़िलाफ़ गए ऐसे बड़े फ़ैसलों का ज़िक्र बाद में, पहले यह जान लें कि किरण रिजिजू को लेकर फ़ैसला क्या लिया गया है। किरण रिजिजू को क़ानून मंत्री पद से हटा दिया गया है। उन्हें पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय सौंपा गया है। जुलाई 2021 में रिजिजू को क़ानून मंत्री बनाया गया था। उनका कार्यकाल 18 मई 2023 तक रहा। यानी वह दो साल भी उस मंत्री पद पर नहीं रहे। इससे पहले क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद थे और कैबिनेट के फेरबदल में उनको हटाकर रिजिजू को लाया गया था। यानी प्रधानमंत्री मोदी के दूसरे कार्यकाल में दो साल के भीतर दो क़ानून मंत्री बदल दिए गए। तो सवाल है कि आख़िर क़ानून मंत्रालय में कौन सा काम है जिसको करने में ये मंत्री खरे नहीं उतर रहे हैं? यदि इन मंत्रियों का काम बढ़िया होता तो मंत्री पद से हटा क्यों दिया जाता?
इन सवालों का जवाब वैसे तो मोदी सरकार ही दे सकती है, लेकिन इनके क़ानून मंत्री रहते जो फ़ैसले हुए हैं उसको देखकर भी अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वैसे, सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार को लेकर जो फ़ैसले आए हैं वे भी केंद्र के अनुकूल नहीं रहे हैं। ऐसा सबसे ताज़ा फ़ैसला तो दिल्ली नगर निगम में एलडरमैन की नियुक्ति को लेकर है।
दिल्ली एलजी पर फ़ैसला
सुप्रीम कोर्ट ने एक दिन पहले ही कहा है कि उपराज्यपाल को दिल्ली नगर निगम में एलडरमैन नामित करने की शक्ति देने का मतलब होगा कि वह एक निर्वाचित नागरिक निकाय को अस्थिर कर सकते हैं। सुनवाई के दौरान सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ ने मौखिक रूप से टिप्पणी की- 'इसे देखने का एक और तरीका है। क्या स्थानीय निकाय में विशेष ज्ञान रखने वाले लोगों का नामांकन भारत संघ के लिए इतनी बड़ी चिंता है? एलजी को यह शक्ति देकर, वह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित एमसीडी को प्रभावी रूप से अस्थिर कर सकते हैं।'
कर्नाटक में मुसलिम कोटा पर झटका
इससे पहले कर्नाटक में बीजेपी को तगड़ा झटका लगा था। अप्रैल महीने में जब राज्य में चुनाव प्रचार जोर शोर से चल रहा था तो सुप्रीम कोर्ट ने फ़ैसला दिया था कि कर्नाटक सरकार का मुस्लिमों के लिए चार फीसदी कोटा खत्म करने का फ़ैसला नौ मई तक लागू नहीं होगा। राज्य में मुसलमानों के लिए चार प्रतिशत कोटा खत्म करने के कर्नाटक सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी। सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के बीच ही गृहमंत्री अमित शाह ने एक चुनावी सभा में कहा था कि धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।राज्य में चुनाव से पहले 30 मार्च को मुख्यमंत्री बसवराज बोम्मई के नेतृत्व वाली सरकार ने मुसलमानों के लिए 4 प्रतिशत पिछड़े वर्गों के कोटा को समाप्त कर दिया था। सरकार ने अधिसूचना जारी कर कहा था कि उन्हें 100 से अधिक वर्षों से कर्नाटक में पिछड़े वर्ग के रूप में मान्यता दी गई है। बोम्मई सरकार के फ़ैसले में कहा गया था कि राज्य में दो सबसे प्रभावशाली समुदायों, लिंगायत और वोक्कालिगा को मुस्लिम ओबीसी कोटा आवंटित किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने बोम्मई सरकार के आदेश पर सवाल उठाया और कहा कि कर्नाटक सरकार का मुसलमानों के लिए चार प्रतिशत कोटा ख़त्म करने का फ़ैसला प्रथम दृष्टया पूरी तरह से गलत धारणा पर आधारित है।
उद्धव शिंदे विवाद
क़रीब दस दिन पहले ही महाराष्ट्र में उद्धव शिंदे विवाद मामले में भी फ़ैसला शिंदे-बीजेपी के ख़िलाफ़ आया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि तत्कालीन महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का फ्लोर टेस्ट के लिए बुलाने का फैसला कानून के अनुसार नहीं था जिससे उद्धव-ठाकरे के नेतृत्व वाली एमवीए सरकार गिर गई थी। शिंदे का भरत गोगावाले को शिवसेना का मुख्य सचेतक नियुक्त करने का निर्णय अवैध था। केवल स्पीकर और राजनीतिक दल द्वारा चुने गए नेता ही व्हिप जारी कर सकते हैं। हालाँकि, उद्धव ठाकरे सरकार को बहाल करने से अदालत ने यह कहते हुए इनकार कर दिया था कि उन्होंने फ्लोर टेस्ट का सामना किए बिना ही इस्तीफ़ा दे दिया था।
चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर केंद्र को झटका
हाल में मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार को जो सुप्रीम कोर्ट से सबसे बड़े झटके लगे हैं उनमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का मामला है। क़रीब तीन महीने पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। इसने कहा कि चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सरकार नहीं करेगी। अदालत ने आदेश दिया कि इनकी नियुक्ति अब सीबीआई निदेशक की तरह होगी जिसमें प्रधानमंत्री, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और सीजेआई का पैनल इनकी नियुक्ति करेगा।
5 सदस्यीय बेंच ने कहा कि ये कमेटी नामों की सिफारिश राष्ट्रपति को करेगी। इसके बाद राष्ट्रपति मुहर लगाएंगे। इसने अपने आदेश में साफ कहा कि यह प्रक्रिया तब तक लागू रहेगी, जब तक संसद चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर कोई कानून नहीं बना लेती।
फ़ैसले के दौरान जस्टिस के एम जोसेफ ने कहा था कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता बनाए रखी जानी चाहिए, नहीं तो इसके अच्छे परिणाम नहीं होंगे। उन्होंने कहा था,
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वोट की ताकत सुप्रीम है, इससे मजबूत से मजबूत पार्टियां भी सत्ता हार सकती हैं, इसलिए चुनाव आयोग का स्वतंत्र होना जरूरी है।
जस्टिस के एम जोसेफ, चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर
चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का मामला इसलिए आया क्योंकि हाल के वर्षों में चुनाव आयोग के कई फ़ैसलों पर सवाल उठे हैं। साल 2018 में चुनाव आयोग के कामकाज में पारदर्शिता को लेकर कई याचिकाएं दायर हुई थीं। इनमें मांग की गई थी कि मुख्य चुनाव आयुक्त यानी सीईसी और चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम जैसा सिस्टम बने। सुप्रीम कोर्ट ने इन सब याचिकाओं को क्लब करते हुए इसे 5 जजों की संविधान पीठ को भेज दिया था। सुप्रीम कोर्ट इसी मामले की सुनवाई कर रही थी।
बहरहाल, जब सुप्रीम कोर्ट से इस तरह के कड़े फ़ैसले आ रहे थे तो तत्कालीन क़ानून मंत्री किरण रिजिजू न्यायपालिका से भिड़ रहे थे। वह कई मामलों में सुप्रीम कोर्ट पर सवाल उठा रहे थे।
इसी साल जनवरी में रिजिजू ने यह कहकर न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल खड़े किये थे कि जजों को चुनाव का सामना नहीं करना पड़ता। न्यायपालिका और सरकार के बीच न्यायाधीशों की नियुक्ति और संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत को लेकर चले आ रहे टकराव के बीच रिजिजू का यह बयान काफ़ी अहम था।
रिजिजू ने दिल्ली बार एसोसिएशन के कार्यक्रम में कहा था, 'जज बनने के बाद उन्हें चुनाव या जनता के सवालों का सामना नहीं करना पड़ता है... जजों, उनके फ़ैसलों और जिस तरह से वे न्याय देते हैं, और अपना आकलन करते हैं, उसे जनता देख रही है... सोशल मीडिया के इस युग में, कुछ भी नहीं छुपाया जा सकता है।'
केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने कहा था कि 1947 के बाद से कई बदलाव हुए हैं, इसलिए यह सोचना गलत होगा कि मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी और इस पर कभी सवाल नहीं उठाया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह बदलती स्थिति है, इसे ज़रूरतें निर्धारित करती हैं और यही कारण है कि संविधान को सौ से अधिक बार संशोधित करना पड़ा।
जजों की नियुक्ति में सरकार के हस्तक्षेप की मांग
रिजिजू का वह बयान तब आया था जब केंद्र सरकार न्यायाधीशों की नियुक्ति में एक बड़ी भूमिका की मांग कर रही थी, यह तर्क देते हुए कि विधायिका सर्वोच्च है क्योंकि यह लोगों की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। तब एक रिपोर्ट आई थी कि कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट को एक पत्र लिखा जिसमें मांग की गई कि जजों की नियुक्ति के मसले पर बनने वाली समिति में सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाना चाहिए। जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में केंद्र और संबंधित राज्य सरकार के प्रतिनिधि को शामिल किया जाए। पत्र में लिखा गया कि यह पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए ज़रूरी है।
किरण रिजिजू ने तब दिल्ली हाई कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश की टिप्पणियों के हवाले से भी अपनी बात रखी थी। दिल्ली के उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश आरएस सोढी ने लॉ स्ट्रीट यू-ट्यूब चैनल के साथ एक साक्षात्कार में कहा था, 'सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार संविधान का अपहरण कर लिया है। उन्होंने कहा है कि हम खुद न्यायाधीशों को नियुक्त करेंगे। सरकार की इसमें कोई भूमिका नहीं होगी।'
बता दें कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने संविधान के मूल ढाँचा के सिद्धांत पर जोर देते रहे हैं। उन्होंने जनवरी महीने में एक कार्यक्रम में इस सिद्धांत को 'नॉर्थ स्टार' जैसा बताया था जो अमूल्य मार्गदर्शन देता है। उन्होंने कहा था, 'हमारे संविधान की मूल संरचना, नॉर्थ स्टार की तरह है जो संविधान के व्याख्याकारों और कार्यान्वयन करने वालों को कुछ दिशा देता है।' सीजेआई ने कहा कि 'हमारे संविधान की मूल संरचना या दर्शन संविधान के वर्चस्व, कानून के शासन, शक्तियों के पृथक्करण, न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद, और राष्ट्र की एकता और अखंडता, स्वतंत्रता और व्यक्ति की गरिमा पर आधारित है।'