यूक्रेन संकट के आर्थिक नुक़सान से भारत कैसे बचेगा?
यूक्रेन संकट ने भारत को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है, जहाँ यूरोप से हज़ारों किलोमीटर दूर एशिया प्रशांत और हिंद-प्रशांत में इसके हित प्रभावित हो सकते हैं, संकट के समय साथ खड़े रहने वाले पारंपरिक मित्र देशों से संबंध बिगड़ सकते हैं और भविष्य को देखते हुए इसने जिन देशों का हाथ थामा है, उनसे रिश्तों पर दूरगामी असर पड़ सकता है। यूरोप के जिस भौगोलिक-रणनीतिक संकट से भारत सीधे तौर पर जुड़ा हुआ नहीं है, उसका असर इसके अपने पास- पड़ोस के भौगोलिक राजनीतिक समीकरण पर प्रभाव पड़ सकता है और अंतरराष्ट्रीय जगत में इसके अपने हित प्रभावित हो सकते हैं।
यह उस समय हो रहा है जब घरेलू राजनीति के कारण भारत अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अलग-थलग पड़ने लगा है, इसकी पुरानी प्रतिष्ठा पर बट्टा लग चुका है और कूटनीति चलाने वाले लोग इससे आंखें मूंदे हुए अपनी दुनिया में पूरी तरह मस्त हैं।
अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने यूक्रेन के अलगाववादी इलाक़े डॉनबस में रूसी सैनिकों के भेजे जाने को यूक्रेन पर 'आक्रमण' क़रार दिया। अमेरिका ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों का भी एलान कर दिया, जिसके साथ ही इसके मित्र कनाडा और यूरोपीय संघ ने अलग-अलग आर्थिक प्रतिबंधों की घोषणा कर दी। रूस ने यूक्रेन से अलग होने का दावा करने वाले दोनेत्स्क और लुहांस्क को मान्यता दे दी है। साफ है, मॉस्को को इन आर्थिक प्रतिबंधों की चिंता नहीं है।
भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में यूक्रेन के आग्रह पर हुई बहस के बाद हुए मतदान में भाग नहीं लिया। ऐसा कर उसने संकेत दिया कि वह इस मामले में तटस्थ है, लेकिन रूस की आक्रामकता के कारण इसकी व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि नई दिल्ली मॉस्को की निंदा तक नहीं कर रहा है। इसी तरह देश के बाहर सैनिकों को भेजने और तैनात करने से जुड़े प्रस्ताव को रूसी संसद दूमा ने जिस तरह बगैर किसी विरोध के पारित कर दिया, उस पर भी भारत की चुप्पी को अमेरिका और यूरोपीय संघ ने नोट किया है।
जो बाइडन ने जिस तरह के प्रतिबंधों का एलान किया, उसके तहत रूस के पांच बैंक अमेरिका में या किसी अमेरिकी कंपनी से किसी तरह का कारोबार नहीं कर सकते। रूसी संसद के जिन सदस्यों ने सैनिकों को भेजने के प्रस्ताव के पक्ष में वोट दिए, वे अमेरिका नहीं जा सकते या उनके साथ कोई अमेरिकी किसी तरह का रिश्ता नहीं रख सकता। लगभग इसी तरह के प्रतिबंधों का एलान यूरोपीय संघ ने किया है।
सरसरी नज़र डालने से लगता है कि भारत को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। लेकिन ऐसा नहीं है। अमेरिका पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों का बेहद बुरा असर भारत पर पड़ सकता है।
सबसे पहले नज़र प़ड़ती है रूस से लिए जाने वाले एस-400 एअर डिफेंस प्रणाली पर। भारत लगभग पाँच अरब डॉलर में रूस से यह प्रणाली खरीद रहा है। इस प्रणाली की खूबी यह है कि इससे किसी तरह के हवाई जहाज़ या ड्रोन का समय रहते पता लगाया जा सकता है और उसे निशाने पर पँहुचने के पहले हवा में ही मार कर गिराया जा सकता है। चीन के साथ बुरी तरह ख़राब हो चुके वातावरण में यह पहले से अधिक ज़रूरी इसलिए है कि बीजिंग के पास यह प्रणाली पहले से है। उसने भी रूस से ही इसे खरीदा है।
अमेरिका इस सौदे के ख़िलाफ़ रहा है। उसका ज़ोर इस पर है कि वह इस तरह की प्रणाली भारत को देने को तैयार है, बस भारत यह रूस से न खरीदे। ऐसा नहीं हो सका। भारत ने सौदा पक्का कर लिया है, आंशिक भुगतान भी कर दिया है।
अमेरिका में काट्सा यानी काउंटरिंग अमेरिकन एडवरसरी थ्रू सैंक्संन्स एक्ट (सीएएटीएसए) है, जिसके तहत ऐसे देशों पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जा सकता है, जो अमेरिका के विरोधियों से हथियार खरीदते हैं। यानी, रूस से एस-400 खरीदने के कारण काट्सा के तहत भारत पर आर्थिक प्रतिबंध लगाया जा सकता है। अमेरिका में भारत के लिए लॉबीइंग करने वाले कॉकस यानी सांसदों का समूह भारत पर काट्सा लगाने का विरोध यह कह करता रहा है कि भारत से दोस्ती अमेरिकी हित में है, लिहाज़ा भारत को इस नियम से छूट मिलनी चाहिए। लेकिन यूक्रेन संकट के बाद इस कॉकस पर दबाव पड़ सकता है कि वह काट्सा से भारत को छूट दिलाने की बात न करे।
दूसरी बात रूस-भारत दोतरफा व्यापार से जुड़ी हुई है। वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान भारत-रूस व्यापार 8.14 अरब डॉलर का रहा, जिसमें भारत ने रूस को 2.56 अरब डॉलर का निर्यात किया। रूस से होने वाले आयात में हथियारों और दूसरे रक्षा उपकरणों के अलावा पट्रोलियम उत्पाद, प्राकृतिक गैस, परमाणु ऊर्जा से जुड़ी चीजें वगैरह हैं। वहीं, भारत से रूस को होने वाले निर्यात में खनिज पदार्थ, फल-जूस, तंबाकू, चाय, तिलहन, मसाले वगैरह हैं।
भारत में साल 2030 तक 30 अरब डॉलर के रूसी निवेश की बात हुई थी, इस लक्ष्य को 2018 में ही पूरा कर लिया गया तो इसे बढ़ा कर 50 अरब डॉलर कर दिया गया। यानी, रूस अगले सात-आठ साल में भारत में 20 अरब डॉलर का निवेश कर सकता है।
इसे इससे समझा जा सकता है कि रूस ने भारत में एके-56 असॉल्ट राइफ़ल और इनसास (इंडियन स्मॉल आर्म्स सिस्टम्स) यानी छोटे हथियार बनाने का कारखाना खोलने जा रहा है। यह अधिक महत्वपूर्ण इसलिए है कि फ़िलीपीन्स और वियतनाम जैसे चीन से छत्तीस का आँकड़ा रखने वाले एशियाई देश एके-56 राइफ़ल खरीद सकते हैं।
भारत अपने वायु सेना का आधुनिकीकरण बड़े पैमाने पर करने जा रहा है और नौसेना को सही अर्थों में ब्लू वॉटर नेवी बनाने के लिए भी इसे हथियारों और जहाज़ों की ज़रूरत है।
एक ऐतिहासिक सच यह है कि भारतीय वायु सेना के जहाज़ों के बेड़े में ज़्यादातर रूसी जहाज़ हैं, उनके कल पुर्जे भी रूस से ही लिए जाते हैं। अमेरिका ऐसे जहाज़ देने को तैयार है, लेकिन एक झटके से रूसी जहाज़ों को हटाया नहीं जा सकता है। यही हाल इसके नौसेना के जहाजों का है, मिसाइल प्रणाली और उसके उपकरणों और कल-पुर्जों का है। यह भारत की मजबूरी है।
दूसरी ओर, भारत-अमेरिका दोतरफा व्यापार वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान 80.5 अरब डॉलर का था, जिसमें भारत ने 51.62 अरब डॉलर का निर्यात किया तो उसे अमेरिका से 28.88 अरब डॉलर का आयात करना पड़ा।
भारत-यूरोपीय संघ दोतरफा व्यापार वित्तीय वर्ष 2020-21 के दौरान 62.8 अरब डॉलर का था। इसके अलावा भारत यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार क्षेत्र (फ्री ट्रेड एरिया यानी एफ़टीए) पर बात कर रहा है, जिसके तहत दोनों एक-दूसरे को आयात में कई तरह की छूट देंगे, आयात कर कम कर देंगे और निगेटिव लिस्ट यानी जिनके आयात की अनुमति नहीं है, उसे कम करेंगे, यानी अधिक से अधिक उत्पादों के आयात की अनुमति देंगे। ऐसा हुआ तो दोनों देशों के बीच का व्यापार जल्द ही कई गुणा बढ़ जाएगा।
इससे यह साफ़ है कि भारत रूस की कीमत पर अमेरिका या यूरोपीय संघ की उपेक्षा नहीं कर सकता। यदि इन लोगों ने रूस पर लगे आर्थिक प्रतिबंध के कारण भारत को निशाने पर लिया तो भारत को भारी आर्थिक नुक़सान होगा, जिसके एक छोटे से हिस्से की भरपाई भी रूस से होने वाले व्यापार से नहीं हो सकती है।
आर्थिक कारणों से ज़्यादा अहम भौगोलिक-रणनीतिक कारण और अंतरराष्ट्रीय समीकरण हैं। अपने राष्ट्रीय हित हों, या अमेरिकी जाल में फंसने की मजबूरी या बेवकूफ़ी, भारत अमेरिका का जूनियर पार्टनर बन चुका है। अमेरिका चीन को रोकने के लिए भारत का इस्तेमाल करना चाहता है तो भारत भी चीनी धौंस से बचने के लिए अमेरिका का सहारा चाहता है। यही कारण है कि अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान के गुट क्वाड्रिलैटरल स्ट्रैटजिक डायलॉग्स यानी क्वैड के ज़रिए चीन को रोकने की कोशिश की जा रही है तो यह भारत की रज़ामंदी से ही हो रहा है। क्वैड को यूरोपीय देश अभी से ही एशियाई नेटो कह रहे हैं तो उनकी नज़र बीज़िंग पर लगाम लगाने की रणनीति पर ही है।
अमेरिका हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत को बड़ी भूमिका के साथ शामिल करना चाहता है।
उसकी रणनीति ऑस्ट्रेलिया के बाद भारत पर फ़ोकस करने की है ताकि नई दिल्ली की मदद से दक्षिण चीन सागर ही नहीं, प्रशांत महासागर के बड़े हिस्से और पूरे हिंद महासागर में चीन को बढ़ने से रोका जा सके। हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारत का अपना कोई बड़ा हित नहीं है, न ही दक्षिण चीन सागर से उसे कोई मतलब होना चाहिए, ये उसकी पहुंच ही नहीं, ज़रूरत से भी बाहर हैं। लेकिन इसके बहाने चीन को रोका जा सकता है। अमेरिका विश्व राजनीति की इस बिसात पर भारत का इस्तेमाल अपने प्यादे के रूप में करना चाहता है ताकि वह दूर से ही चीन को शह और मात दे सके। चीन के विस्तार को रोकना अमेरिका ही नहीं, भारत के भी हित में है। वह अपनी इस ताक़त और रणनीतिक खूबी का इस्तेमाल कर बीजिंग को जवाब ही नहीं दे सकता है, बल्कि उस पर दबाव बना कर अपने लिए राहत और छूट चीन से ले सकता है।
लेकिन यह समीकरण ज़्यादा ख़तरनाक इसलिए है कि इसमें रूस की गहरी दिलचस्पी है। अमेरिका को रोकने के लिए रूस चीन के साथ कदम मिला कर चल रहा है। इस चीन-रूस धुरी में भारत के शामिल होने की संभावना को कांग्रेस की मनमोहन सिंह सरकार ने 2008 में ही ख़त्म कर दिया, जब उसने तमाम विरोधों के बीच अमेरिका के साथ नागरिक परमाणु संधि पर दस्तख़त किए। उस परमाणु संधि के समय किए गए वायदों के उलट न तो भारत अब तक न्यूक्लीयर सप्लायर्स ग्रुप का सदस्य बन सका है, न ही यहां किसी अमेरिकी कंपनी ने परमाणु से चलने वाला बिजलीघर लगाया है। यह ज़रूर हुआ कि अमेरिका से कई तरह के सैन्य समझौते हुए हैं, वाशिंगटन ने भारत को काट्सा की जद से बाहर रखा है और नेटो के बाद भारत उसका सबसे विश्वस्त सहयोगी बन गया है।
भारत के सामने चुनौती यह है कि वह इस रूस-चीन धुरी से खुद को दूर रखे ताकि अमेरिका नाराज़ न हो, अमेरिका के पक्ष में खड़ा न दिखे ताकि रूस और चीन को नागवार न गुजरे और यूरोपीय संघ को भी खुश रखे ताकि उसके साथ व्यापारिक रिश्ते और मज़बूत हों।
यह मुश्किल काम है, असंभव नहीं। कूटनीति के बारे में कहा जाता है कि यह नामुमिकन को मुमिकन करने की कला है और युद्ध को रोकने वाला बग़ैर ख़ून खराब के लंबे समय तक चलने वाला युद्ध है।
लेकिन भारतीय कूटनीति शायद सबसे बुरी हालत में है, आज़ादी के बाद से अब तक ऐसा कभी नहीं हुआ, जो अब हो रहा है। जिस ऑर्गनाइजेशन ऑफ़ इसलामिक कोऑपरेशन में ग़ैर मुसलिम देश होने के बावजूद भारत का ऐसा दबदबा था कि जम्मू-कश्मीर पर लोग पाकिस्तान की नहीं, नई दिल्ली की सुनते थे, भारत की महिला विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को सम्मेलन में आमंत्रित करते थे, वही ओआईसी भारत के ख़िलाफ़ एक के बाद प्रस्ताव पारित करता जा रहा है। सीएए हो, एनआरसी हो, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा हो या अब धर्म संसद में मुसलमानों के नरसंहार की अपील का मामला हो, भारत की स्थिति बुरी है। इस पर तुर्रा यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार डैमेज कंट्रोल और समझाने बुझाने के बजाय पलटवार करती है।
गल्फ़ कोऑपेरेशन कौंसिल, संघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन ही नहीं, संयुक्त राष्ट्र तक में भारत के तमाम मुहरे एक के बाद पिट रहे हैं, उसका मजाक उड़ाया जाता है, उस पर भरोसा नहीं रहा। नेपाल, भूटान, सेशेल्स और श्रीलंका तक भारत की परवाह नहीं करते। ऐसे में भारतीय कूटनीति के लोग चीन-अमेरिका-रूस को समान रूप से साधने की बाजीगरी कैसे कर सकते हैं?
लेकिन जैसाकि कहा जाता है, नामुमकिन को मुमकिन करने का खेल ही कूटनीति है। भारत इस यूक्रेन संकट को बखूबी संभाल सकता है और अपने हितों को बचा सकता है। लेकिन इसके लिए ज़रूरत यह है कि कूटनीति को कूटनीति करने वालों पर ही छोड़ दिया जाए। उस पर किसी महामानव की पकड़ या मस्कुलर राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मुलम्मा न चढ़ाया जाए।