पत्रकार मोहम्मद जुबैर को जमानत देने से इनकार करने और 14 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत में भेजने का फैसला दिल्ली की अदालत ने शाम 7 बजे सुनाया। हालांकि देश की समाचार एजेंसियों ने दिल्ली पुलिस के हवाले से यही खबर दिन में करीब पौने तीन बजे सुना दी थी। बेशक जुबैर को जमानत नहीं मिली, लेकिन इस केस में शनिवार का दिन जुबैर की वकील वृंदा ग्रोवर की जोरदार दलीलों के लिए याद रखा जाएगा। उन्होंने इस केस में दिल्ली पुलिस के तर्कों की धज्जियां उड़ा दीं।
लाइव लॉ के मुताबिक एडवोकेट वृंदा ग्रोवर ने दिल्ली पुलिस के पाकिस्तान और सीरिया से जुबैर को धन मिलने के आरोप का खंडन करते हुए कहा कि कथित धन कंपनी द्वारा प्राप्त किया गया था, न कि जुबैर द्वारा अपने व्यक्तिगत के लिए। मैं (जुबैर) यहां कोर्ट में स्पष्ट बयान दे रहा हूं कि "यह मेरे खाते में नहीं गया है।
उन्होंने अदालत एक अर्जी भी बताई, जिसमें कहा गया था कि जुबैर से जब्त किए गए इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों और हार्ड डिस्क से साइबर अपराध द्वारा अभी तक कोई हैश वैल्यू या क्लोन नहीं बनाया है। पुलिस जब्त किए गए उपकरणों के हैश वैल्यू को साझा नहीं किया है और ऐसे में इन उपकरणों से छेड़छाड़ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि जिस मोबाइल 2018 वाले ट्वीट को जुबैर ने पोस्ट किया था, उस मोबाइल को एक बाइक सवार ने उनसे 2021 में छीन लिया। इसकी रिपोर्ट पुलिस में दर्ज है। जिसके दस्तावेज कोर्ट के रिकॉर्ड पर भी हैं।
इस पर सरकारी वकील ने कोर्ट में कहा कि जब जुबैर को पूछताछ के लिए बुलाया तो वह जिस सिम का इस्तेमाल कर रहे थे, जब वो आए तो सिम बदल चुका था। उसे उन्होंने दूसरे मोबाइल में लगा लिया। पुलिस ने मोबाइल का एनालिसिस कर पाया कि सिम बदला गया था।
इस पर वृंदा ग्रोवर ने जवाबी सवाल करते हुए पूछा कि क्या मोबाइल बदलना या सिम बदलना अपराध है। क्या मेरे अपने फोन को फॉरेमेट करना अपराध है। और क्या चालाक होना भी अपराध है। ये किसी भी अपराध संख्या की धारा में अपराध नहीं माना गया है। आप किसी को न पसंद करें वो अलग बात है लेकिन उसके चालाक होने पर सवाल उठाएं यह दूसरी बात है। जाहिर है कि मेरी बुद्धिमानी मेरी आजादी में खलल नहीं डाल सकती।
मोबाइल फोन के मुद्दे पर वृंदा ग्रोवर ने शुरुआती बहस में यह भी कहा था कि मेरा मोबाइल मेरी प्राइवेट प्रॉपर्टी है। मैं अपने मोबाइल के साथ चाहे जो करुं। जब पुलिस ने जुबैर को बुलाया तो उसने जुबैर से मोबाइल लेकर आने की बात नहीं कही थी। यह कोई पुलिस स्टेट नहीं है, जिसमें हम लोग रहते हैं। वृंदा ने यह तर्क पुलिस द्वारा बाद में लगाई गई धारा 201 के संदर्भ में कही थी। पुलिस ने दो धाराएं शनिवार को जोड़ी थीं। दूसरी धारा एफसीआरए यानी विदेश से धन प्राप्त करने को लेकर है। उसमें भी स्पष्ट किया गया कि सारे डोनेशन एक कंपनी में आए, जो भारतीय कानून के हिसाब से चलती है। जुबैर के किसी भी खाते में विदेश से कोई धन नहीं आया। बता दें कि ऑल्ट न्यूज खुद भी डोनेशन मिलने की घोषणाएं अपने ट्विटर हैंडल पर सार्वजनिक करता रहता है।
उन्होंने कहा कि पुलिस ने इस मामले में जुबैर का लैपटॉप जब्त किया, जिसकी जरूरत ही नहीं थी। क्योंकि जिस ट्वीट के आधार पर गिरफ्तारी की गई है, उसे एंड्रायड फोन से पोस्ट किया गया था। बहुत साफ है कि यह जांच बहुत गलत मकसद से की जा रही है।
सरकारी पक्ष ने कहा कि इस मामले में समय (टाइमिंग) महत्वपूर्ण है। आपने पुलिस के पास आने से पहले ही क्यों सिम बदला, फोन को फॉर्मेट किया। एफआईआर दर्ज होने के बाद मोबाइल में बदलाव किस नीयत से किया गया। इसलिए इस शख्स को जमानत नहीं मिलना चाहिए। वकील वृंदा ग्रोवर ने कहा कि मोबाइल, लैपटॉप और अन्य चीजें पुलिस के पास हैं। आप जांच कीजिए। जुबैर की कस्टडी की जरूरत क्यों है। उसे जमानत मिलना चाहिए।
इसके बाद दोनों की बहस समाप्त हो गई। कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रखा और कहा वो कुछ देर बाद फैसला सुनाएगा।
कोर्ट ने जुबैर को जमानत से इनकार का फैसला शाम 7 बजे सुनाया लेकिन बाद दोपहर तीन बजे देश के तमाम बड़े मीडिया आउटलेट न्यूज एजेंसीयों के हवाले से खबर चला रहे थे कि जुबैर की जमानत अर्जी खारिज, 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजा। यह खबर पीटीआई और एएनआई ने दिल्ली पुलिस के डीसीपी के हवाले से चलाई, जिसने बाद में अपने बचाव में कहा कि उसने अपने एक सहयोगी से यह सुना था।
इससे पहले दिन में जो बहस हुई थी। उसमें वृंदा ग्रोवर ने अदालत को फिर से बताया कि इंडियन एक्सप्रेस अखबार ने 2018 में एक फोटो छापा था, जो 1983 में रिलीज हुई फिल्म किसी से न कहना से था। यह बहुत अच्छी कॉमेडी फिल्म थी, जिसे ऋषिकेश मुखर्जी ने निर्देशित किया था। फिल्म में हनीमून होटल को मिटाकर हनुमान होटल कर दिया गया था। फिल्म का यह सीन खासा लोकप्रिय है और इसे लेकर असंख्य ट्वीट अभी भी ट्विटर पर हैं। जुबैर ने उसी फिल्म का पोस्टर ट्वीट किया था।
उन्होंने कहा - 40 साल पहले बनी फिल्म के सीन को हटाने की कोशिश भारत सरकार ने नहीं की। ट्विटर पर इसे लेकर मजाक बनने वाले ट्वीट हटाने की कोशिश सरकार ने नहीं की। लेकिन 40 साल बाद मोहम्मद जुबैर के ट्वीट को समाज में अव्यवस्था फैलाने का दोषी मान लिया जाता है। वो फिल्म अभी भी ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध है। अमेजन प्राइम पर यह फिल्म ट्रेंडिंग में है।
इसका जवाब देते हुए सरकारी वकील ने तर्क दिया कि फिल्मों में तो तमाम दृश्य होते हैं, क्या आप अश्लील दृश्यों को भी इसी तरह ट्वीट कर देंगे। आप तो जिम्मेदार पत्रकार हैं, आपसे धार्मिक भावनाएं भड़काने वाले ट्वीट की उम्मीद नहीं थी।
वृंदा ग्रोवर ने जुबैर पर लगाई गई धारा 295ए पर बहस करते हुए अमीश देवगन केस का जिक्र किया। उस केस में हेट स्पीच और फ्री स्पीच पर बहस हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने उस केस में टिप्पणी की थी - तमाम मिलीजुली संस्कृति वाले देश के लिए प्रतिबद्ध राजनीति में, अभद्र भाषा लोकतंत्र के लिए किसी भी वैध तरीके से योगदान नहीं कर सकती है और वास्तव में, समानता के अधिकार के खिलाफ है।