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जब देश क़ुर्बानी दे रहा था तो आरएसएस कहाँ था?

जब देश क़ुर्बानी दे रहा था तो आरएसएस कहाँ था?

आंबेडकर पर अमित शाह के बयान के बाद देश में बवाल मचा है और आरएसएस पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। जानिए, आख़िर आरएसएस का क्या योगदान रहा है? पढ़िए, दो साल पहले लिखा शमसुल इस्लाम का लेख...।

कांग्रेस ने 7 अगस्त, 1942 को 'भारत छोड़ो आन्दोलन' शुरू करने का प्रस्ताव पारित किया था। अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने बम्बई में अपनी बैठक में यह क्रांतिकारी प्रस्ताव पारित किया, जिसमें अंग्रेज शासकों से तुरंत भारत छोड़ने की माँग की गयी थी। 

अंग्रेज शासन से लोहा लेने के लिए स्वयं गांधीजी ने 'करो या मरो' ब्रह्म वाक्य सुझाया और सरकार एवं सत्ता से पूर्ण असहयोग करने का आह्वान किया। कांग्रेस का यह मानना था कि अंग्रेज सरकार को भारत की जनता को विश्वास में लिए बिना किसी भी जंग में भारत को झोंकने का नैतिक और क़ानूनी अधिकार नहीं है।

'भारत छोड़ो आन्दोलन'

अंग्रेजों से भारत तुरंत छोड़ने का यह प्रस्ताव कांग्रेस द्वारा एक ऐसे नाजुक समय में लाया गया था जब दूसरे विश्वयुद्ध के चलते जापानी सेनाएं भारत के पूर्वी तट तक पहुँच चुकी थी और कांग्रेस ने अंग्रेज शासकों द्वारा सुझाई 'क्रिप्स योजना' को खारिज कर दिया था।

'भारत छोड़ो' प्रस्ताव के साथ-साथ कांग्रेस ने गांधी जी को इस आंदोलन का सर्वेसर्वा नियुक्त किया और देश के आम लोगों से आह्वान किया कि वे हिंदू-मुसलमान का भेद त्याग कर सिर्फ हिदुस्तानी के तौर पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद से लड़ने के लिए एक हो जाएं।

'भारत छोड़ो आंदोलन' में क़ुर्बानियाँ

भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा के साथ ही पूरे देश में क्रांति की एक लहर दौड़ गयी। अगले कुछ महीनों में देश के लगभग हर भाग में अंग्रेज सरकार के विरुद्ध आम लोगों ने जिस तरह लोहा लिया उससे 1857 के भारतीय जनता के पहले मुक्ति संग्राम की यादें ताजा हो गईं।

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने इस सच्चाई को एक बार फिर रेखांकित किया कि भारत की आम जनता किसी भी कुर्बानी से पीछे नहीं हटती है। अंग्रेज शासकों ने दमन करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 9 अगस्त की सुबह से ही पूरा देश एक फ़ौजी छावनी में बदल दिया गया। गांधीजी समेत कांग्रेस के बड़े नेताओं को तो गिरफ़्तार किया ही गया, दूरदराज के इलाक़ों में भी कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को भयानक यातनाएं दी गईं। 

सरकारी दमन और हिंसा का ऐसा तांडव देश के लोगों ने झेला जिसके उदाहरण कम ही मिलते हैं। स्वयं सरकारी आँकड़ों के अनुसार, पुलिस और सेना द्वारा 700 से भी ज्यादा जगह गोलाबारी की गई, जिसमें 1100 से भी ज्यादा लोग शहीद हो गए।

पुलिस और सेना ने आतंक मचाने के लिए बलात्कार और कोड़े लगाने का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया। भारत में किसी भी सरकार द्वारा इन कथकंडों का इस तरह का संयोजित प्रयोग 1857 के बाद शायद पहली बार ही किया गया था। 

अगस्त क्रांति

अंग्रेज सरकार के भयानक बर्बर और अमानवीय दमन के बावजूद देश के आम हिंदू-मुसलमानों और अन्य धर्म के लोगों ने हौसला नहीं खोया और सरकार को मुँहतोड़ जवाब दिया। यह आंदोलन 'अगस्त क्रांति' क्यों कहलाता है, इसका अंदाजा उन सरकारी आँकड़ों को जानकर लगाया जा सकता है जो जनता की इस आंदोलन में कार्यवाहियों का ब्योरा देते हैं। सरकारी आँकड़ों के अनुसार, 208 पुलिस थानों, 1275 सरकारी दफ़्तरों, 382 रेलवे स्टेशनों और 945 डाकघरों को जनता ने नष्ट कर दिया। 

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हिंसा बेकाबू होने के पीछे मुख्य कारण यह था कि पूरे देश में कांग्रेसी नेतृत्व को जेलों में डाल दिया गया था और कांग्रेस संगठन को हर स्तर पर ग़ैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया था। कांग्रेसी नेतृत्व के अभाव में अराजकता का होना बहुत अस्वाभाविक नहीं था। यह सच है कि नेतृत्व का एक बहुत छोटा हिस्सा गुप्त रूप से काम कर रहा था, परंतु आमतौर पर इस आंदोलन का स्वरूप स्वतः स्फूर्त बना रहा। 

अँग्रेज़ों को जिन्ना, सावरकर, आरएसएस का साथ

यह जानकर किसी को भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि दमनकारी अँग्रेज सरकार का इस आंदोलन के दरम्यान जिन तत्वों और संगठनों ने प्यादों के तौर पर काम किया वे हिंदू और इस्लामी राष्ट्र के झंडे उठाए हुए थे।

यह सच है कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने भी 'भारत छोड़ो आंदोलन' से अलग रहने का निर्णय लिया था। लेकिन आज के देशभक्तों के नेताओं ने किस तरह से न केवल इस आंदोलन से अलग रहने का फैसला किया था, बल्कि इसको दबाने में गोरी सरकार की सीधी सहायता की थी, जिस बारे में बहुत कम जानकारी है। 

जिन्ना की ग़द्दारी

मुसलिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेसी घोषणा की प्रतिक्रिया में अंग्रेज सरकार को आश्वासन देते हुए कहा, 

'कांग्रेस की असहयोग की धमकी दरअसल श्री गांधी और उनकी हिंदू कांग्रेस सरकार अंग्रेज सरकार को ब्लैकमेल करने की है। सरकार को इन गीदड़भभकियों में नहीं आना चाहिए।'


मुहम्मद अली जिन्ना, नेता, मुसलिम लीग

मुसलिम लीग और उनके नेता अंग्रेजी सरकार के बर्बर दमन पर न केवल पूर्णरूप से खामोश रहे, बल्कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज सरकार का सहयोग करते रहे। मुसलिम लीग इससे कुछ भिन्न करे, इसकी उम्मीद भी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वह सरकार और कांग्रेस के बीच इस भिड़ंत के चलते अपना उल्लू सीधा करना चाहती थी। उसे उम्मीद थी कि उसकी सेवाओं के चलते अंग्रेज शासक उसे पाकिस्तान का तोहफा ज़रूर दिला देंगे। 

हिंदू महासभा ने अंग्रेज़ों की मदद की

लेकिन सबसे आपत्तिजनक भूमिका हिंदू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की रही, जो भारत माता और हिंदू राष्ट्रवाद का बखान करते नहीं थकते थे। 'भारत छोड़ो आंदोलन' पर अंग्रेजी शासकों के दमन का कहर बरपा था और देशभक्त लोग सरकारी संस्थाओं को छोड़कर बाहर आ रहे थे, इनमें बड़ी संख्या उन नौजवान छात्र-छात्राओं की थी जो कांग्रेस के आह्वान पर सरकारी शिक्षा संस्थानों को त्याग कर यानी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़कर बाहर आ गये थे। लेकिन यह हिंदू महासभा ही थी, जिसने अंग्रेज सरकार के साथ खुले सहयोग की घोषणा की।

हिंदू महासभा के सर्वेसर्वा 'वीर' सावरकर ने 1942 में कानपुर में अपनी इस नीति का खुलासा करते हुए कहा, 'सरकारी प्रतिबंध के तहत जैसे ही कांग्रेस एक खुले संगठन के तौर पर राजनीतिक मैदान से हटा दी गयी है तो अब राष्ट्रीय कार्यवाहियों के संचालन के लिए केवल हिंदू महासभा ही रह गई है।' उन्होंने इसके आगे कहा, 

हिंदू महासभा के मतानुसार, व्यावहारिक राजनीति का मुख्य सिद्धांत अंग्रेज सरकार के साथ संवेदनपूर्ण सहयोग की नीति है। जिसके अंतर्गत बिना किसी शर्त के अंग्रेजों के साथ सहयोग जिसमें हथियार बंद प्रतिरोध भी शामिल है।'


विनायक दामोदर सावरकर, नेता, हिन्दू महासभा

 हिन्दू महासभा-मुसलिम लीग की साझा सरकारें 

कांग्रेस का 'भारत छोड़ो आंदोलन' दरअसल सरकार और मुसलिम लीग के बीच देश के बँटवारे के लिए चल रही बातचीत को भी चेतावनी देना था। इस उद्देश्य से कांग्रेस ने सरकार और मुसलिम लीग के साथ किसी भी तरह के सहयोग का बहिष्कार किया हुआ था। लेकिन इसी समय हिंदू महासभा ने लीग के साथ सरकारें चलाने का निर्णय लिया। 'वीर' सावरकर ने इस शर्मनाक रिश्ते के बारे में सफाई देते हुए 1942 में कहा, 

'व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहाँ सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुसलिम लीग के साथ मिलीजुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है।'


विनायक दामोदर सावरकर, नेता, हिन्दू महासभा

सावरकर ने इसके आगे कहा, 'उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फ़जलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल व मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।'

यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि बंगाल और सिंध के अलावा नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविन्स (एनडब्लूएफ़पी) में भी हिन्दू महासभा और मुसलिम लीग की गठबंधन सरकार 1942 में सत्तासीन हुई।  

आन्दोलन दबाने के उपाय बताए

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन' को दबाने के लिए अंग्रेज़ों को उपाए सुझाए। हिन्दू महासभा के नेता नंबर दो श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तो हद ही कर दी।

मुखर्जी ने बंगाल में मुसलिम लीग के मंत्रिमंडल में गृह मंत्री और उप-मुख्यमंत्री होते हुये अनेक पत्रों में बंगाल के ज़ालिम अँगरेज़ गवर्नर को दमन के वे तरीक़े सुझाये जिनसे बंगाल में भारत छोड़ो आंदोलन को पूरे तौर पर दबाया जा सकता था।

मुखर्जी ने अँगरेज़ शासकों को भरोसा दिलाया कि  कांग्रेस अँगरेज़ शासन को देश के लिया अभशाप मानती है, लेकिंग उनकी मुसलिम लीग और हिन्दू महासभा की मिलीजुली सरकार इसे देश के लिए वरदान मानती है।

संघ की आपत्तिजनक भूमिका 

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रवैया 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के प्रति जानना हो तो  एम. एस. गोलवलकर के इस  वक्तव्य को पढ़ना काफी होगा: '1942 में भी अनेकों के मन में तीव्र आंदोलन था। इस समय भी संघ का नित्य कार्य चलता रहा। प्रत्यक्ष रूप से संघ ने कुछ न करने का संकल्प लिया।'

गोलवलकर की भूमिका

इस तरह स्वयं गोलवलकर, जिन्हें 'गुरुजी' भी कहा जाता है, से हमें यह तो पता चल जाता है कि संघ ने आंदोलन के पक्ष में परोक्ष रूप से किसी भी तरह की हिस्सेदारी नहीं की। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी भी प्रकाशन या दस्तावेज या स्वयं गुरुजी के किसी दस्तावेज से आज तक यह पता नहीं लग पाया है कि संघ ने अप्रत्यक्ष रूप से 'भारत छोड़ो आंदोलन' में किस तरह की हिस्सेदारी की थी।

'गुरुजी' का यह कहना कि 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का रोज़मर्रा का काम ज्यों का त्यों चलता रहा, बहुत अर्थपूर्ण है। यह रोज़मर्रा का काम क्या था, इसे समझना जरा भी मुश्किल नहीं है।

यह काम था मुसलिम लीग के कंधे से कंधा मिलाकर हिंदू और मुसलमान के बीच खाई को गहराते जाना। आरएसएस अंग्रेज सरकार के विरुद्ध किसी भी आंदोलन को कितना 'नापसन्द' करता था इसका अंदाज़ा श्री गुरुजी के इन शब्दों से लगाया जा सकता हैः 

'नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है। समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती ही रहती है। साल 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी। उसके पहले  1930-31 में भी आंदोलन हुआ था। उस समय कई लोग डाक्टर जी के पास गये थे। इस 'शिष्टमंडल' ने डाक्टर जी से अनुरोध किया कि इस आंदोलन से स्वातंत्र मिल जायेगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए। उस समय एक सज्जन ने जब डाक्टर जी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डाक्टर जी ने कहा-'जरूर जाओ। लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलायेगा?' उस सज्जन ने बताया 'दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है।' तो डाक्टर जी ने कहा- 'आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो।' घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गये न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले।'

क्या कहा था 'गुरुजी' ने?

गोलवलकर द्वारा प्रस्तुत इस ब्यौरे से यह बात स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है कि आरएसएस का मक़सद आम लोगों को निराश व निरुत्साहित करना था। ख़ासतौर से उन देशभक्त लोगों को जो अंग्रेजी शासन के ख़िलाफ़ कुछ करने की इच्छा लेकर घर से आते थे।

सच तो यह है कि गोलवलकर ने स्वयं भी कभी यह दावा नहीं किया कि आरएसएस अंगे्रज़ विरोधी था। अंग्रेज शासकों के चले जाने के बहुत बाद गोलवलकर ने 1960 में इंदौर (मध्य प्रदेश) में अपने एक भाषण में कहाः

'कई लोग पहले इस प्रेरणा से काम करते थे कि अंग्रेजों को निकाल कर देश को स्वतंत्र करना है। अंग्रेजों  के औपचारिक रूप से चले जाने के बाद यह प्रेरणा ढीली पड़ गयी। वास्तव में इतनी ही प्रेरणा रखने की आवश्यता नहीं थी। हमें याद होगा कि हमने प्रतिज्ञा में धर्म और संस्कृति की रक्षा कर राष्ट्र की स्वतंत्रता का उल्लेख किया है। उसमें अंग्रेज़ों के जाने न जाने का उल्लेख नहीं है।'

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विनायक दामोदर सावरकर

सरकार के ख़िलाफ़ नहीं

आरएसएस ऐसी गतिविधियों से बचता था, जो अंग्रेज़ी सरकार के खि़लाफ़ हों। संघ द्वारा छापी गयी हेडगेवार की जीवनी में भी इस सच्चाई को छुपाया नहीं जा सका है। स्वतंत्रता संग्राम में डाक्टर साहब की भूमिका का वर्णन करते हुए बताया गया हैः 'संघ-स्थापना के बाद डा. साहब अपने भाषणों में हिन्दू संगठन के संबंध में ही बोला करते थे। सरकार पर प्रत्यक्ष टीका नहीं के बराबर रहा करती थी।'

अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ संघर्ष में जो भारतीय शहीद हुए उनके बारे में गुरुजी क्या राय रखते थे वह इस वक्तव्य से बहुत स्पष्ट है- 

'हमने बलिदान को महानता का सर्वोच्च बिंदु, जिसकी मनुष्य आकांक्षा करे नहीं माना है, क्योंकि अंततः वह अपना उद्देश्य प्राप्त करने में असफल हुए और असफलता का अर्थ है कि उनमें कोई गंभीर त्रुटि थी।' 

शहीद!

शायद यही कारण है कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एक भी कार्यकर्ता अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हुए शहीद नहीं हुआ।

शहीद होने की बात तो दूर रही, आरएसएस के उस समय के नेताओं गोलवलकर, दीनदयाल उपाध्याय, बलराज मधोक, लाल कृष्ण अडवाणी, के. आर. मलकानी या अन्य किसी आरएसएस सदस्य ने किसी भी तरह इस महान मुक्ति आंदोलन में हिस्सा नहीं लिया।

भारत छोड़ो आंदोलन के 78 साल गुजरने के बाद भी कई महत्वपूर्ण सच्चाईयों से पर्दा उठना बाकी है। दमनकारी अंग्रेज शासक और उनके मुसलिम लीगी प्यादों के बारे में तो सच्चाइयाँ जगजाहिर है, लेकिन अगस्त क्रांति के वे गुनहगार जो अंग्रेजी सरकारी द्वारा चलाए गए दमन चक्र में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शामिल थे अभी भी कठघरे में खड़े नहीं किए जा सके है।

(आरएसएस और सावरकर के तमाम उद्धरण उनके दस्तावेज़ों से लिए गए हैं।)

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