मोदी सरकार में कोयला सचिव रहे अनिल स्वरूप ने पूर्व कम्प्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल विनोद राय पर आरोप लगाया है कि 2012 में सीएजी ने कोयला ब्लॉक आवंटन का जो ऑडिट किया था, उसमें उनसे गंभीर ग़लतियाँ हुई थीं। उनके मुताबिक़ सीएजी ने सरकार को हुए जिस नुक़सान का अनुमान लगाया था, वैसा नुक़सान नहीं हुआ था। आपको याद होगा सीएजी ने 2012 में दी गई अपनी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष दिया था कि 2004-2009 के बीच कोयला खदानों के आवंटन में नियमों की अवहेलना हुई और इस वजह से देश को 1.86 लाख करोड़ का नुक़सान हुआ। 2004 से ले कर 2014 के बीच देश में यूपीए की सरकार थी और इस घोटाले के कारण उसकी काफ़ी बदनामी हुई।
स्वरूप ने अंग्रेज़ी भाषा के आर्थिक अख़बार 'द इकोनॉमिक टाइम्स' में एक लंबा लेख कर विनोद राय की किताब ‘नॉट जस्ट एन अकाउंटेन्ट’ में कोयला ब्लॉक आबंटन के बारे में कही बातों का बिंदुवार जवाब दिया है। उन्होंने कोयला मंत्रालय में 38 साल के अनुभवों को समेटते हुए एक संस्मरण भी लिखा है, जिसमें उन्होंने इस मुद्दे पर भी अपनी बात रखी है। हम इन तमाम बिन्दुओं का सिलसिलेवार अध्ययन करते हैं और समझने की कोशिश करते हैं कि दरअसल मामला क्या है।
सीएजी का कहना है कि कोल इंडिया के कोयले का औसत दाम 1,028 रुपये प्रति टन था।
- स्वरूप का कहना है कि कोयले की क़ीमत 400 रुपये प्रति टन से 4,000 रुपये प्रति टन हो सकती है। यह उसकी क्वालिटी पर निर्भर करता है। सीएजी ने जो क़ीमत निकाली, वह सिर्फ़ अच्छी क्वालिटी के कोयले की ही होती है।
सीएजी ने माना है कि कोयला निकालने में औसत 583 रुपये प्रति टन का ख़र्च बैठता है। इसमें वित्तीय ख़र्च 150 रुपए प्रति टन जोड़ दिया जाए तो औसत मुनाफ़ा प्रति टन 295 रुपये बैठता है।
- पूर्व कोयला सचिव का कहना है कि अलग-अलग खदानों से कोयला निकालने का अलग-अलग ख़र्च होता है। इसका औसत नहीं हो सकता। इसके अलावा सीएजी ने कोयला के परिवहन ख़र्च और स्ट्रिपिंग रेशियो का ध्यान नहीं रखा। स्ट्रिपिंग रेशियो का मतलब होता है कि कितने टन सामान निकालने से उसमें कितना कोयला मिला। यह अलग-अलग खदानों में अलग-अलग होता है।
सीएजी ने कोयले का दाम और उस पर होने वाले ख़र्च के आधार पर यह तय किया था कि सरकार को प्रति टन 295 रुपए का फ़ायदा होता। खनन लायक कोयले का भंडार 6,282 मिलियन टन था और इस तरह देश को 1,80,000 करोड़ रुपए का लाभ हो सकता था, जो उसे नहीं हुआ, वह फ़ायदा निजी कंपनियाँ ले उड़ीं।
- स्वरूप का तर्क है कि यदि नुक़सान हुआ भी है तो उसका आकलन औसत के आधार पर नहीं कर सकते। हर ब्लॉक का अलग हिसाब हो सकता है। वे यह मानते हैं कि कुछ कोल ब्लॉक में वाकई बहुत मुनाफ़ा हुआ होगा। पर ऐसा हर ब्लॉक में हुआ होगा, यह नही कह सकते।
सवाल यह है कि यदि कोयले में इतना मुनाफ़ा नहीं हुआ तो साल 2015 में हुई 31 खदानों की नीलामी से 1.96 लाख करोड़ रुपए सरकार को कैसे मिले
- पूर्व कोयला सचिव का कहना है कि अलग-अलग ब्लॉक में दिलचस्पी की अलग-अलग वजह हो सकती है। सरकार के मुताबिक़, इन ब्लॉकों से सालाना 5.60 करोड़ टन कोयला निकलना चाहिए था, पर सिर्फ़ 1.60 करोड़ टन कोयला निकल रहा है। कुछ खदानों में तो उत्पादन अब तक शुरू ही नहीं हुआ है। स्वरूप का तर्क है कि अगली नीलामी 2016 में हुई और उसके लिए 9 ब्लॉक रखे गए थे, पर किसी ने दिलचस्पी नहीं दिखाई। वे अब तक यूं ही पड़े हुए हैं।
सरकार को कोयला ब्लॉक आबंटन की वजह से नुक़सान निश्चित रूप से हुआ है।
- पूर्व कोयला सचिव नुक़सान के आकलन को खारिज करते हुए तर्क देते हैं कि अभी भी 120 ब्लॉक पड़े हुए हैं। सीएजी के 295 रुपये प्रति टन मुनाफ़े के आधार पर तो इन खदानों में 3.13 लाख करोड़ रुपये फँसे पड़े हैं। सरकार इनकी नीलामी क्यों नहीं करती
विनोद राय अपनी किताब में सवाल उठाते हैं कि क्या सीएजी को कोयला नीलामी की जाँच नहीं करनी चाहिए या क्या उसे संसद के सामने नहीं लाना चाहिए
- स्वरूप का कहना है कि कोयला नीलामी में ग़लतियाँ हुई थीं, उनकी जाँच होनी चाहिए और संसद को उसकी जानकारी भी देनी चाहिए थी। पर उसे जिस तरह प्रेस कॉन्फ़्रेंस कर सार्वजनिक किया गया, वह ग़लत था। राय ने एक अनुचित पंरपरा की नींव डाल दी। अब हर सीएजी ‘विनोद राय’ बनना चाहेगा, जो अच्छी बात नहीं है।
पूर्व कोयला सचिव का कहना है कि जहाँ ग़लतियाँ हुईं, सीएजी ने वह पकड़ा, लेकिन जहाँ ग़लती नहीं हुई, उसे भी ग़लत क़रार दिया। वे जाँच करने के बजाय ग़लतियाँ निकालने बैठ गए। उन्होंने सीएजी पर कई दूसरे आरोप भी मढ़े हैं।
- अफ़सर किसी भी फ़ाइल पर फ़ैसला लेने से बचने लगे, उन्हें यह डर सताने लगा कि सीएजी की ऑडिट में वे फँस जाएंगे। इससे सरकार का कामकाज बुरी तरह प्रभावित हुआ।
- सीएजी ने पूरी जाँच के बाद भी किसी पर ज़िम्मेदारी नहीं डाली। तत्कालीन कोयला सचिव हरीश चंद्र गुप्ता जैसे अफ़सरों को इसका नतीजा भुगतना पड़ा।
- कोयला ब्लॉक की नीलामी के लिए जो लोग वाकई ज़िम्मेदार थे, वे पूरी तरह बच निकले।
- बाद की नीलामी में पारदर्शिता बरती गई, पर वह सीएजी की वजह से नहीं बरती गई। वह सरकार की वजह से बरती गई, इसका श्रेय सीएजी को देना ग़लत है।
पूर्व कोयला सचिव का संस्मरण अभी तक बाज़ार में नहीं आया है। यह स्टैंड पर पहुँचने के बाद सुर्खियाँ बटोरेगा, यह तय है। उस पर चर्चा होगी और आरोप-प्रत्यारोप लगेंगे, इससे इनकार नहीं किया जा सकता है। पर दिसचस्प बात यह है कि यह सब कुछ आम चुनावों के कुछ पहले ही होगा। पिछले लोकसभा चुनाव के समय सीएजी की रिपोर्ट बहस के केंद्र में थी। विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने उसे बड़ा मुद्दा बना कर केंद्र में उस समय मौजूद कांग्रेस पर ज़बरदस्त हमला किया था। अगले चुनाव में कांग्रेस क्या रुख अपनाती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
दूसरी ग़ौर करने लायक बात यह है कि अदालत ने 2-जी मामले में सीएजी के फ़ैसले को दरकिनार करते हुए तमाम अभियुक्तों को निर्दोष मान बरी कर दिया था। उस समय कांग्रेस का स्टैंड था, हमने तो पहले ही कहा था कि कोई घोटाला नहीं हुआ, बस राजनीतिक कारणों से आरोप लगाए गए और उसे चुनाव का मुद्दा बनाया गया। उस समय बीजेपी ने इसका ज़ोरदार जवाब नहीं दिया था। कोयला ब्लॉक आबंटन के मामले में अब कांग्रेस और बीजेपी क्या कहती हैं और इसे लेकर चुनाव में उतरती है या नहीं, यह देखना दिलचस्प होगा।