
बोध गया मंदिर विवाद क्या है, बौद्ध नियंत्रण के लिए आंदोलन क्यों
बोधगया का महाबोधि मंदिर, जहां गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था, बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र स्थल माना जाता है। यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल बिहार के बोधगया में स्थित है। हाल के महीनों में, यह मंदिर एक बड़े विवाद का केंद्र बन गया है, जहां बौद्ध भिक्षु और समुदाय मंदिर के प्रबंधन पर पूर्ण नियंत्रण की मांग कर रहे हैं। यह विवाद 1949 के बोधगया मंदिर अधिनियम (बीटीए) से जुड़ा है, जिसके तहत मंदिर का प्रबंधन एक संयुक्त समिति द्वारा किया जाता है। फरवरी 2025 से शुरू हुए प्रदर्शनों ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में ला दिया है।
फरवरी 2025 से, ऑल इंडिया बौद्ध फोरम (एआईबीएफ) के नेतृत्व में लगभग 100 बौद्ध भिक्षुओं ने महाबोधि मंदिर के पास प्रदर्शन शुरू किया। उनकी मुख्य मांग है कि 1949 का बोधगया मंदिर अधिनियम रद्द किया जाए, जिसके तहत मंदिर का प्रबंधन होता है। शुरू में यह प्रदर्शन मंदिर परिसर में हुआ, लेकिन स्थानीय प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद इसे पास की सड़क पर स्थानांतरित कर दिया गया। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि यह अधिनियम बौद्धों को उनके सबसे पवित्र स्थल पर पूर्ण अधिकार देने में नाकाम रहा है।
बोधगया मंदिर अधिनियम, 1949 क्या है
1949 का यह अधिनियम मंदिर के प्रबंधन के लिए एक आठ सदस्यीय समिति का गठन करता है, जिसमें चार हिंदू और चार बौद्ध सदस्य होते हैं। गया जिला मजिस्ट्रेट इस समिति का पदेन अध्यक्ष होता है। पहले यह शर्त थी कि मजिस्ट्रेट हिंदू होना चाहिए, जिससे समिति में हिंदू बहुमत हो जाता था। 2013 में बिहार सरकार ने इसमें संशोधन किया, जिसके बाद मजिस्ट्रेट किसी भी धर्म का हो सकता है।
हालांकि, बौद्ध समुदाय का कहना है कि बिहार सरकार का संशोधन उनकी मूल मांग—मंदिर पर पूर्ण बौद्ध नियंत्रण—को पूरा नहीं करता। उनका तर्क है कि संयुक्त प्रबंधन उनकी धार्मिक स्वायत्तता और मंदिर की बौद्ध पहचान को कमजोर करता है। नीतीश सरकार में बीजेपी भी शामिल है। बीजेपी इस पर हिन्दू नियंत्रण चाहती है। हालांकि उसके किसी नेता ने खुलकर कोई बयान नहीं दिया है.
महाबोधि मंदिर की कहानी तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से शुरू होती है, जब सम्राट अशोक ने इसे बनवाया था। यह मंदिर कई सदी तक बौद्ध धर्म का केंद्र रहा। लेकिन 13वीं शताब्दी में बख्तियार खिलजी के आक्रमण के बाद बौद्ध धर्म भारत में कमजोर पड़ गया, और मंदिर खंडहर में बदल गया।
1590 में, अकबर के शासनकाल में, एक हिंदू संन्यासी ने बोधगया मठ की स्थापना की, और मंदिर हिंदू नियंत्रण में आ गया। स्वतंत्रता के बाद, 1949 का अधिनियम हिंदुओं और बौद्धों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास था। लेकिन बौद्ध समुदाय इसे ऐतिहासिक अन्याय का हिस्सा मानता है, जिसे अब ठीक करने की जरूरत है।
बौद्धों की आपत्तियां क्या हैं
वर्तमान प्रदर्शन में बौद्ध भिक्षुओं ने कई खास शिकायतें उठाई हैं। उनका आरोप है कि मंदिर परिसर में हिंदू रीति-रिवाज, जैसे मूर्ति विसर्जन और विवाह समारोह, आयोजित होते हैं, जो बौद्ध सिद्धांतों के खिलाफ हैं। बौद्ध धर्म में मूर्तिपूजा और ऐसे कर्मकांडों को स्थान नहीं है।
एआईबीएफ ने बिहार सरकार को ज्ञापन सौंपकर कहा है कि भारत में किसी अन्य प्रमुख धर्म—हिंदू, इस्लाम या ईसाई—के पवित्र स्थलों पर दूसरे धर्म का सह-प्रबंधन नहीं है। वे पूछते हैं कि फिर बौद्धों के सबसे पवित्र स्थल पर यह व्यवस्था क्यों बनी हुई है?
प्रदर्शन में भूख हड़ताल और रैलियां शामिल हैं। एआईबीएफ को कई प्रमुख बौद्ध संगठनों का समर्थन प्राप्त है। इस आंदोलन ने अंतरराष्ट्रीय ध्यान भी खींचा है, क्योंकि बोधगया बौद्ध धर्म के चार सबसे पवित्र स्थलों में से एक है—अन्य तीन हैं लुंबिनी, सारनाथ और कुशीनगर।
यह विवाद नया नहीं है। 2012 में, बौद्ध भिक्षुओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें अधिनियम को रद्द करने की मांग की गई थी। यह मामला अभी तक अनसुना पड़ा हुआ है। 2023-2024 में गया और पटना में रैलियों ने इस मुद्दे को फिर से उठाया। मार्च 2025 तक, भूख हड़ताल 45 दिनों से अधिक समय तक चली, जो बोधगया के हाल के इतिहास में सबसे लंबा प्रदर्शन है।
महाबोधि मंदिर का महत्व केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक भी है। कवि एडविन अर्नोल्ड ने अपनी कविता द लाइट ऑफ एशिया में इसे "बौद्ध धर्म का मक्का" कहा था। इसने पश्चिम में बौद्ध धर्म को लोकप्रिय बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। मंदिर के परिसर में स्थित बोधि वृक्ष वह स्थान है, जहां बुद्ध ने ध्यान के बाद ज्ञान प्राप्त किया था। यह मंदिर आज भी दुनिया भर के बौद्ध तीर्थयात्रियों के लिए आकर्षण का केंद्र है।
बोधगया मंदिर विवाद एक जटिल मुद्दा है, जो ऐतिहासिक बदलावों, धार्मिक पहचान और प्रशासनिक नीतियों के टकराव को दर्शाता है। बौद्ध समुदाय इसे अपने पवित्र स्थल पर अधिकार की लड़ाई मानता है, जबकि मौजूदा व्यवस्था को सांप्रदायिक सौहार्द का प्रतीक बताया जाता है। 1949 का अधिनियम भारत की आजादी के बाद का समझौता था, लेकिन यह बौद्धों की स्वायत्तता की उम्मीदों को पूरा नहीं कर सका। अभी तक, यह विवाद अनसुलझा है, और प्रदर्शन जारी हैं।
रिपोर्ट और संपादनः यूसुफ किरमानी