भारत की वैक्सीन नीति पर मंडराते ख़तरे
ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी और दवा बनाने वाली कंपनी एस्ट्राजेनेका द्वारा विकसित की गई वैक्सीन को लेकर दुनिया भर में जो हो रहा है वह आगे चलकर भारत के लिए परेशानी खड़ी कर सकता है।
ताज़ा ख़बर यह है कि कनाडा ने 55 वर्ष के कम उम्र के लोगों को यह वैक्सीन देने पर रोक लगा दी है। वहाँ यह कहा जा रहा है कि कई मामलों में इस उम्र के लोगों में रक्तस्राव के मामले पाए गए हैं। उधर जर्मनी के बर्लिन और म्यूनिख में भी 60 साल से कम उम्र के लोगों को यह वैक्सीन देने पर रोक लगा दी गई है। कुछ दिन पहले इसी जर्मनी ने ब्लड क्लॉटिंग यानी ख़ून का थक्का जम जाने की आशंकाओं के चलते एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन के इस्तेमाल पर पूरी तरह से ही रोक लगा दी थी और ब्रिटेन को छोड़कर लगभग पूरे यूरोप ने इसका अनुसरण किया था। हालाँकि बाद में जब यह आशंका ग़लत साबित हुई तो रोक हटा ली गई, लेकिन आंशिक रूप से यह रोक फिर वापस आ गई है।
ब्रिटेन के कई टिप्पणीकार लगातार यह कह रहे हैं कि इन सब के पीछे दवा कंपनियों की आपसी स्पर्धा है जिसके चलते एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। यह बात सही भी हो सकती है लेकिन सिर्फ़ इसी तर्क से आशंकाओं को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता और इन मामलों में कोई भी जोखिम लेना महंगा पड़ सकता है। वैसे, एस्ट्राज़ेनेका की इस वैक्सीन को लेकर अगर शक व्यक्त किए जा रहे हैं तो इसका कुछ हद तक कारण खुद यह कंपनी भी है। वैक्सीन को लेकर उसकी सलाह लगातार बदल रही है। पिछले दिनों उसने जिस तरह से पहली और दूसरी डोज़ के अंतराल को बढ़ाया उससे यह कहा जाने लगा है कि यह वैक्सीन अभी ‘वर्क इन प्रोग्रेस‘ है यानी अभी इसे पूरी तरह तैयार नहीं माना जा सकता।
भारत की जो वैक्सीन नीति है उसमें एस्ट्राज़ेनेका की इस वैक्सीन की केंद्रीय भूमिका है। एक तो यह उन दो वैक्सीन में से एक है जो भारत में लोगों को लगाई जा रही हैं और दूसरे क्योंकि इस वैक्सीन का सबसे बड़े पैमाने पर उत्पादन भारत में ही हो रहा है और यहीं से यह पूरी दुनिया में निर्यात हो रही है।
एस्ट्राज़ेनेका की वैक्सीन कोविशील्ड के साथ ही भारत बायोटेक की कोवैक्सीन का भी इस्तेमाल देश में हो रहा है। कोरोना वायरस संक्रमण से लड़ाई में भारत ने अपने सारे दाँव इन्हीं दो वैक्सीन पर लगाए हैं।
इसके विपरीत अगर हम अमेरिका और यूरोप वगैरह को लें तो वहाँ फ़िलहाल मॉडर्ना, फ़ाइजर, एस्ट्राज़ेनेका और जॉनसन एंड जॉनसन की वैक्सीन का इस्तेमाल एक साथ हो रहा है। इस रणनीति में सुविधा यह है कि अगर किन्हीं एक या दो वैक्सीन को लेकर कोई समस्या भी आती है तो वैक्सीनेशन का काम रुकेगा नहीं।
भारत ने शुरू से ही दो वैक्सीन की नीति पर काम किया और इन दोनों को बहुत तेज़ी से एमरजेंसी इस्तेमाल की इजाज़त दे दी गई। जबकि भारत बायोटेक की वैक्सीन के तो ट्रायल भी पूरे नहीं हुए थे और अभी भी इसके सभी आँकड़े सार्वजनिक नहीं हुए हैं। अन्य वैक्सीन को इजाज़त देने में यह तेज़ी नहीं दिखाई गई। रूस की स्पूतनिक-वी वैक्सीन ने काफ़ी समय से इजाज़त के लिए अर्जी दी हुई है लेकिन इस पर अभी तक कोई फ़ैसला नहीं हुआ। इसी इजाज़त की उम्मीद में डॉक्टर रेड्डी लेबरोटरीज़ ने तो इसका भारत में उत्पादन भी शुरू कर दिया है। इसी तरह फाइज़र ने भी अपनी वैक्सीन की इजाज़त के लिए काफ़ पहले अर्जी दी थी। कुछ समय बाद उसने अर्जी वापस लेकर इसमें कुछ बदलाव करके दुबारा अर्जी दाखिल की, लेकिन अभी तक कोई फ़ैसला नहीं हुआ।
इन कंपनियों की भारत में दिलचस्पी दो कारणों से है। एक तो भारत का बाज़ार बहुत बड़ा है। दूसरी भारत में वैक्सीन की इतनी उत्पादन क्षमता मौजूद है कि यहाँ से बड़े पैमाने पर वैक्सीन का निर्यात किया जा सकता है। इस बीच ख़बर यह भी है कि अमेरिकी कंपनी जॉनसन एंड जॉनसन ने भी भारत में उत्पादन के लिए एक कंपनी से क़रार किया है।
भारत में जिस गति से यह टीकाकरण चल रहा है उसे देखते हुए कहा जा रहा है कि अगले ढाई साल में सिर्फ़ 70 फ़ीसदी लोगों को ही वैक्सीन दी जा सकेगी।
लेकिन वैक्सीन का परिदृश्य जिस तेज़ी से बदल रहा है उसमें ढाई साल तक चीजें काफ़ी बदल सकती हैं। अकेले जॉनसन एंड जॉनसन की वैक्सीन से चीजें बदलने लगी हैं क्योंकि इसमें वैक्सीन का सिर्फ़ एक ही टीका लगवाना पड़ता है।
फिर अगले कुछ महीनों में नेज़ल और ओरल वैक्सीन आने की पूरी संभावना दिख रही है। ऐसे में वैक्सीन नीति को लचीला बनाए रखना बहुत ज़रूरी है।
भारत लंबे समय तक उन दो वैक्सीन के भरोसे ही नहीं रह सकता जिन्हें लेकर दुनिया भर में कई आशंकाएँ हैं।