भारत दलाई लामा के ज़रिए चीन पर दबाव क्यों नहीं बनाता?
भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर पिछले दो महीने से जारी तनाव फ़िलहाल तो जैसे-तैसे ख़त्म हो गया है, लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं कि यह विवाद फिर से पैदा नहीं होगा। अतीत के अनुभव भी बताते हैं और भारत-चीन संबंधों पर नज़र रखने वाले अंतरराष्ट्रीय राजनीति के जानकारों का भी मानना है कि चीन अपने विस्तारवादी मंसूबों को अंजाम देने की दिशा में हमेशा चार क़दम आगे बढ़ा कर दो क़दम पीछे हटने की रणनीति पर काम करता रहा है। चीन ऐसा सिर्फ़ भारत के साथ ही नहीं करता है बल्कि जापान और वियतनाम जैसे पड़ोसियों से भी अक्सर उसकी तू-तू, मैं-मैं होती रहती है।
भारत और चीन बड़े व्यापारिक साझेदार हैं। दोनों देशों का आपसी व्यापार क़रीब 95 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। चीन की कई कंपनियों ने बड़े पैमाने पर भारत में निवेश कर रखा है। दोनों ही देश परमाणु शक्ति संपन्न भी हैं। इसलिए दोनों के बीच युद्ध भी संभव नहीं है। ऐसे में भारत सिर्फ़ अपने कूटनीतिक कौशल से ही चीन को जवाबी तौर पर परेशान करते हुए उसे अपनी हद में रहने के लिए मजबूर कर सकता है। लेकिन इस सिलसिले में भी भारत का सबसे कमज़ोर पक्ष यह है कि नेपाल, भूटान, श्रीलंका, म्यांमार जैसे तमाम पड़ोसी देश जो कभी भारत के घनिष्ठ मित्र हुआ करते थे, वे अब चीन के पाले में हैं। पाकिस्तान की पीठ पर तो पहले से चीन का हाथ है और बांग्लादेश भी भारत के बजाय अब चीन के ज़्यादा नज़दीक है। इस सबके बावजूद भारत के पास एक ऐसा 'हथियार’ है, जिसके ज़रिए चीन को परेशान किया जा सकता है, छकाया जा सकता है। उस नायाब हथियार का नाम है- दलाई लामा।
तिब्बतियों के सर्वोच्च धर्मगुरु दलाई लामा अपने हज़ारों तिब्बती अनुयायियों के साथ पिछले छह दशक से भारत में राजनीतिक शरण लिए हुए हैं। वह अब 85 साल के हो चले हैं। क़रीब एक दशक पहले उन्होंने निर्वासित तिब्बत सरकार के मुखिया की ज़िम्मेदारी से मुक्त होने का एलान कर ख़ुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग कर लिया था। उनका मूल नाम तेनजिन ग्यात्सो है। उन्हें उनके पूर्ववर्ती तेरह दलाई लामाओं का अवतार माना जाता है। तिब्बती बौद्ध पदाधिकारियों के एक दल ने जब उनके अवतार होने का एलान किया था तब उनकी उम्र महज दो साल की थी।
चार साल का होने से पहले ही उन्हें विधिवत दलाई लामा के पद पर आसीन करा दिया गया था। यह वह समय था जब तिब्बत एक स्वतंत्र देश था। बाद में चीन ने अपनी आज़ादी के कुछ समय बाद ही तिब्बत पर हमला कर उसे अपना हिस्सा घोषित कर दिया था।
तिब्बती सरकार के मुखिया की ज़िम्मेदारी और राजनीतिक गतिविधियों से निवृत्त होने के दलाई लामा के एलान को चीनी नेतृत्व ने एक नाटक क़रार दिया था। हालाँकि दलाई लामा ने तब से ही अपनी घोषणा के मुताबिक़ ख़ुद को राजनीतिक गतिविधियों से अलग रखते हुए आध्यात्मिक गतिविधियों तक ही सीमित कर रखा है। इसके बावजूद चीनी हुक्मरान दलाई लामा को लेकर अब भी आशंकित रहते हैं। दलाई लामा ने तिब्बती परंपरा के विपरीत यह एलान भी कर रखा है कि उनके उत्तराधिकारी यानी 15वें दलाई लामा का चुनाव लोकतांत्रिक तरीक़े से किया जाएगा। लेकिन चीनी नेतृत्व इस इंतज़ार में हैं कि कब मौजूदा दलाई लामा की इस दुनिया से रवानगी हो और वे अपनी मर्ज़ी का कठपुतलीनुमा दलाई लामा तिब्बतियों पर थोप सकें।
क़रीब ढाई दशक पहले पंछेन लामा को भी उसने इसी नीयत से अगवा किया था। पंछेन लामा को तिब्बतियों का दूसरा बड़ा धर्मगुरु माना जाता है। 1989 में जब दसवें पंछेन लामा की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई थी तब भी यह माना गया था कि चीन सरकार ने उन्हें जहर देकर मरवाया है।
उसके बाद 1995 में दलाई लामा ने छह साल के गेझुन चोएक्यी न्यीमा की पंछेन लामा को 11वें अवतार के रूप में पहचाने जाने की घोषणा की थी। वे तिब्बत के नाक्शु शहर के एक डॉक्टर और नर्स के पुत्र हैं। 17 मई 1995 को चीन ने उन्हें अपने क़ब्ज़े में लिया था और तब से ही उन्हें लोगों की नज़रों से दूर रखा गया है।
दो सुझाव
ज़ाहिर है कि चीनी हुक्मरान अब भी तिब्बतियों के प्रथम पुरुष दलाई लामा को लेकर परेशान रहते हैं। इसलिए भारत चाहे तो उनके ज़रिए चीन को चिढ़ा सकता है। इस सिलसिले में हाल ही में जो दो सुझाव आए हैं, वे बेहद महत्वपूर्ण हैं और भारत सरकार चाहे तो उन पर आसानी से अमल कर सकती है।
एक सुझाव हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से भारतीय जनता पार्टी के सांसद किशन कपूर का है। उन्होंने दलाई लामा को 'भारत रत्न’ देने की माँग की है। ग़ौरतलब है कि हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में ही तिब्बत की निर्वासित सरकार का मुख्यालय है और वहाँ कई बौद्ध मठ भी हैं। दलाई लामा को 'भारत रत्न’ से सम्मानित करने, तिब्बत की आज़ादी का समर्थन करने का सुझाव देने वालों में समाजवादी आंदोलन से जुड़े मध्य प्रदेश के पूर्व मंत्री और शिक्षाविद रमाशंकर सिंह तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े वरिष्ठ पत्रकार विजय क्रांति भी हैं।
दूसरा सुझाव पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी की ओर से आया है जिनके मुताबिक़ दिल्ली स्थित चीनी दूतावास के सामने वाली सड़क का नाम दलाई लामा मार्ग कर देना चाहिए।
भारत सरकार के लिए दोनों सुझावों पर अमल करना कोई मुश्किल काम नहीं है। दिल्ली में वैसे भी कई सड़कों के नाम विदेशी हस्तियों के नाम पर हैं और भारत रत्न का सम्मान भी नेल्सन मंडेला जैसी विदेशी हस्ती को दिया जा चुका है। इसलिए अगर दलाई लामा को भारत रत्न दिया जाता है और दिल्ली में उनके नाम पर सड़क का नामकरण किया जाता है तो इसमें कोई अनोखी बात नहीं होगी। बल्कि अमेरिका सहित यूरोप के कई देश भी भारत के इस क़दम का स्वागत करेंगे। हाँ, ऐसा किया जाना चीन को ज़रूर नागवार गुजरेगा लेकिन वह चाह कर भी कुछ नहीं कर सकेगा।
सवाल यही है कि क्या भारत सरकार ऐसा करने की हिम्मत दिखाएगी उम्मीद कम ही है कि भारत सरकार ऐसा करेगी क्योंकि चीन से मिले ताज़ा धोखे और जख़्म के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दलाई लामा को चार दिन पहले उनके 85वें जन्मदिन पर बधाई और शुभकामना देने तक की औपचारिकता नहीं निभाई है।