इज़राइल के मामले में भारत दक्षिण अफ्रीका के साथ क्यों नहीं है?
भारत ने इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस के उस फ़ैसले पर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है जिसमें उसने इज़राइल को फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ जनसंहार रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने को कहा है। उसने यह माना है कि दक्षिण अफ़्रीका के इस आरोप में दम है कि इज़राइल ग़ज़ा में फ़िलिस्तीनियों के ख़िलाफ़ जनसंहारात्मक कार्रवाई कर रहा है और आगे भी इसका ख़तरा है कि वह इसे जारी रखेगा। दक्षिणी दुनिया समेत कई देशों ने इस फ़ैसले का स्वागत किया है और इज़राइल को ग़ज़ा और पश्चिमी तट में अपनी खूँरेजी रोकने को कहा है। पिछले महीने दक्षिण अफ़्रीका ने इस अदालत में इज़राइल के ख़िलाफ़ मुक़दमा दायर किया था और अदालत से दरख्वास्त की थी कि वह इज़राइल को अपना हमला रोकने को कहे।
अदालत ने सीधे तो यह नहीं कहा है कि इज़राइल हमला फ़ौरन रोके लेकिन जो उसने स्पष्ट तौर पर कहा है कि इज़राइल को फ़िलिस्तीनियों का जनसंहार न होने के लिए सारे कदम उठाने चाहिए। उसने इज़राइल को वैसे सारे सबूत भी सुरक्षित रखने को कहा है जिनकी जाँच से यह मालूम किया जा सकेगा कि वह जो कर रहा है वह जनसंहार है या नहीं।
भारत ने जनसंहार के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय समझौते पर 1959 में दस्तख़त किए थे। इस समझौते पर दक्षिण अफ़्रीका ने भी नस्लभेदी शासन से मुक्ति के बाद दस्तख़त किए थे। लेकिन इज़राइल द्वारा ग़ज़ा और पश्चिमी तट से फ़िलिस्तीनियों का सफ़ाया करने के मक़सद से जो खूँरेजी की जा रही है, उसपर दोनों देशों की प्रतिक्रिया अलग अलग है। एक वक्त था जब दक्षिण अफ़्रीका में नस्लभेदी शासन के ख़िलाफ़ अंतरराष्ट्रीय जनमत बनाने में भारत ने अगुवाई की थी। याद रहे, उस वक्त जब दक्षिण अफ़्रीका के नस्लभेदी शासन से दुनिया के सारे देशों ने रिश्ते तोड़ लिए थे, इज़राइल और अमेरिका उसके साथ थे। यानी ये दोनों मुल्क नस्लभेद के पक्ष में थे। यह वह इज़राइल है जिसमें बसनेवालों को ख़ुद हिटलर की नस्लभेदी हिंसा का शिकार होना पड़ा था। हिटलर का नाज़ीवाद एक प्रकार की नस्लभेदी विचारधारा ही था जिसमें यहूदियों को आर्य जर्मनों के समान नहीं माना जाता था बल्कि उन्हें मनुष्य का दर्जा ही नहीं दिया जाता था। उसी वजह से हिटलर की इस विचारधारा को माननेवाले यहूदियों के पूरे सफ़ाए के पक्ष में थे क्योंकि उनकी समझ थी कि ये न सिर्फ़ मनुष्येतर जंतु हैं बल्कि ये एक तरह की गंदगी हैं जिसकी सफ़ाई अनिवार्य है।
हिटलर का नाज़ीवाद नस्ली श्रेष्ठता का विचार भी था जिसमें आर्य जर्मन बाक़ी सबसे श्रेष्ठ थे। यह विडंबना है कि जो यहूदी इस विचारधारा के कारण नस्लकुशी के शिकार हुए वे ख़ुद यह मानने लगे कि वे एक श्रेष्ठ नस्ल हैं और उनके ईश्वर ने उनको फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने का अधिकार दिया है। इसी ईश्वरीय विधान के तर्क से वे सब यूरोप और पश्चिमी देशों से फ़िलिस्तीन आते हैं और वहाँ के रहनेवाले अरबों की, वे मुसलमान हों या ईसाई, ज़मीन और घरों पर क़ब्ज़ा करने को जायज़ ठहराते हैं। उनका विचार है कि फ़िलिस्तीनी या तो इस ज़मीन से भगा दिए जाने चाहिए या उन्हें यहाँ यहूदियों के मुक़ाबले दोयम दर्जे की हैसियत में रखा जाना चाहिए।
दक्षिण अफ़्रीका के लोग इस विचारधारा को जानते हैं। उन्होंने नेलसन मंडेला के नेतृत्व में लंबे संघर्ष के बाद ख़ुद को इस श्वेत श्रेष्ठतावादी नस्लभेद से आज़ाद किया। इसलिए वे समझ सकते हैं कि फ़िलिस्तीनियों के साथ इज़राइल क्या कर रहा है। लेकिन यह बात भारत को भी मालूम है। वह जिस उपनिवेशवाद से लड़कर आज़ाद हुआ वह भी पश्चिमी और श्वेत श्रेष्ठतावाद के सिद्धांतपर भारत या अन्य मुल्कों पर अपने शासन को जायज़ ठहराता था। उसका तर्क था कि भारतीय कमतर बुद्धिवाले हैं और उनपर शासन करना एक तरह से उनपर उसका उपकार ही हैं। वह उन्हें सभ्य बना रहा है।
भारत ने अहिंसक तरीक़े से संघर्ष करके यूरोप को बतलाया कि हथियार की यूरोप की ताक़त भले उसके पास नहीं है, वह उनसे अधिक सभ्य है क्योंकि उसने उनसे बिना घृणा किए उनकी ग़ुलामी को अनैतिक साबित करके उनसे मुक्ति हासिल की थी।
इसलिए भी भारत इसे अपना कर्तव्य मानता रहा था कि विश्व में जहाँ कहीं भी इस किसी प्रकार के श्रेष्ठतावाद की हिंसा से संघर्ष चल रहा हो, वह उसका साथ दे। हालाँकि यह ज़रूरी नहीं कि अन्याय का विरोध वही करे जिसने अन्याय झेला हो। भारत ने दक्षिण अफ़्रीका के लोगों को नस्लभेद से आज़ाद होने में अंतरराष्ट्रीय मदद की थी।
भारत उन देशों का अगुवा था जिन्होंने फ़िलिस्तीनियों के देश के अधिकार को स्वीकार किया था। इसके कारण यह अपेक्षा ग़लत न होगी कि फ़िलिस्तीन पर क़ब्ज़ा किए बैठे इज़राइल की हिंसा का वह विरोध करे, फ़िलिस्तीनियों की ख़ुदमुख़्तारी के संघर्ष का साथ दे। पिछले 10 सालों में उसने इसके उलट इज़राइल के साथ कुरबत बढ़ाने में अधिक उत्साह दिखलाया है। इस मामले में वह अमेरिका, इंग्लैंड, फ़्रांस, जर्मनी जैसे देशों के गुट में शामिल हो गया है जो फ़िलिस्तीन के ख़िलाफ़ इज़राइल की हिंसा को न सिर्फ़ जायज़ ठहरा रहे हैं बल्कि उसे हथियार, जहाज़ और पैसा दे रहे हैं जिससे वह अपनी खूँरेजी और ज़ोरों से जारी रखे।
इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस ने सिर्फ़ इज़राइल को पाबंद नहीं किया है। उसने उन देशों को भी एक तरह से चेतावनी दी है जो उसकी मदद कर रहे हैं। भारत इज़राइल की मदद हथियारों से भले न कर रहा हो, वह दूसरे तरीक़े से उसका उत्साह बढ़ा रहा है। ग़ज़ापट्टी पर हमले के साथ इज़राइल ने अपने यहाँ काम कर रहे सारे फ़िलिस्तीनियों को काम से निकाल दिया। इसे भी फ़िलिस्तीनियों को पूरी तरह तबाह कर देने की उसकी व्यापक कार्रवाई का हिस्सा माना जाएगा क्योंकि वह उन्हें भूखे मार देना चाहता है।
इसके बाद इज़राइल ने भारत से कहा कि मज़दूरों की इस कमी की भरपाई करने में वह उसकी मदद करे। भारत सरकार ने इज़राइल की मदद करने के लिए मज़दूरों की भर्ती शुरू कर दी है। इसका मतलब यही है कि वह इज़राइल की ताक़त बढ़ा रहा है। यह देखनेवाली बात होगी कि दक्षिण अफ़्रीका भारत को अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों के साथ रखता है या नहीं जो इज़राइल की खूँरेजी में उसकी मदद कर रहे हैं।
यह कहना ज़रूरी नहीं कि फ़िलिस्तीनियों के इस जनसंहार को रोकने में भारत ने कोई भूमिका नहीं निभाई। कोई 30 हज़ार फ़िलिस्तीनियों के क़त्ल के बाद जिनमें 70% बच्चे और औरतें हैं, इज़राइल को पाबंद करने की जगह भारत ने उसकी अर्थव्यवस्था को सुचारु रखने में उसकी मदद की है।
भारत सरकार के मंत्री दावा करते हैं कि आजकल दुनिया का कोई भी देश जब कुछ करता है तो भारत से सलाह लेता है। क्या दक्षिण अफ़्रीका ने इज़राइल के ख़िलाफ़ अपना मुक़दमा दायर करने में भारत से मशविरा किया था? न भी किया हो तो क्यों ब्राज़ील की तरह भारत ने इस मुक़दमे का समर्थन क्यों नहीं किया?
हम इसका उत्तर जानते हैं। भारत में इज़राइल की तरह ही एक ऐसा दल शासन कर रहा है जो नस्ली श्रेष्ठतावाद में विश्वास करता है। हिंदू श्रेष्ठतावाद और यहूदी श्रेष्ठतावाद में कोई फ़र्क नहीं। इसलिए अपनी स्थापना के समय वह हिटलर और ज़ायनवादियों का प्रशंसक था। आज इस नस्ली श्रेष्ठतावाद का सबसे ख़ूँख़ार संस्करण इज़राइल है। भारत उसके साथ खड़ा है।
भारत चाहे तो अभी भी इसका परिमार्जन कर सकता है। फ़िलिस्तीनियों की मदद के लिए काम करनेवाली संयुक्त राष्ट्र संघ की संस्था को अमेरिका, जर्मनी, फ़्रांस और इंग्लैंड ने आर्थिक अनुदान रोक दिया है। इसका मतलब यह है कि जो फ़िलिस्तीनी इज़राइल की बमबारी में नहीं मारे जाएँगे वे भूखों या इलाज के बिना मारे जाएँगे। क्या भारत उनसे अलग होकर इस संस्था को अपनी मदद बढ़ा सकेगा? क्या इसके लिए हम अपनी सरकार पर दबाव डाल सकेंगे?