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क्या अब ‘जाति-अख़बार’ निकलेंगे?

क्या अब ‘जाति-अख़बार’ निकलेंगे?

क्या जातिभेद ख़त्म करके ‘विशुद्ध भारतीय’ बनने की चुनौती के सामने भारतीय समाज के सभी अंगों ने आत्मसमर्पण कर दिया है? और मीडिया इसे किस रूप में ले रहा है?

देश के सबसे बड़े मीडिया हाउस की ओर से प्रकाशित हिंदी अख़बार ने 18 दिसंबर को अपने लखनऊ दफ्तर में ‘कम्युनिटी कनेक्ट’ के तहत ‘कायस्थ समागम’ कराया। कायस्थ जाति में पैदा हुए महापुरुषों का गुणगान किया और इससे संबंधित ख़बर छापी। हद तो ये कि इसमें प्रेमचंद जैसे महान लेखक को भी ‘जाति गौरव’ के रूप में याद किया गया जिन्होंने अपने लेखन में जातिप्रथा पर जमकर प्रहार किया था।

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक और प्रेमचंद साहित्य के मर्मज्ञ वीरेंद्र यादव ने इसे लेकर फ़ेसबुक पर लिखा- “इस हिन्दू समय में हिंदी अख़बार द्वारा जाति समागम का यह आयोजन हिंदी पत्रकारिता की अधोगति का ही द्योतक है। काश इस अख़बार के कारकूनों को पता होता कि वे क्या कर रहे हैं! सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय।”

बहरहाल, अख़बार के कारकूनों ने जो किया वो जानबूझकर ही किया होगा। हिंदुत्व के बोलबाले वाले इस दौर के बीच जातियों पर ज़ोर और उनकी गोलबंदी एक ऐसा खुला सच है जिस पर सवाल करने के बजाय मीडिया ने उसके इस्तेमाल की इच्छा को ‘दफ़्तर’ दे दिया है। ऐसा नहीं है कि भारतीय मीडिया ने ‘जाति-विनाश’ का कोई प्रोजेक्ट चला रहा था लेकिन आमतौर पर वह प्रसार के लिए मोहल्लों से लेकर आय वर्ग तक को ‘टार्गेट’ करता आया था। जातियों को टार्गेट करना एक नयी बात है जिसको चिन्हित किया जाना चाहिए।

तो क्या जातिभेद ख़त्म करके ‘विशुद्ध भारतीय’ बनने की चुनौती के सामने भारतीय समाज के सभी अंगों ने आत्मसमर्पण कर दिया है? आदमी से इंसान बनने का सफ़र जातियों की झाड़ी में उलझकर ठहर गया है? क्या भारतीय लोकतंत्र महज़ जातियों का जमावड़ा बन कर रह गया है? क्या इस स्थिति को चुनौती देने वाली वैचारिक परंपरा के स्रोत पूरी तरह सूख गये हैं? अफ़सोस कि इन सभी सवालों का शायद एक ही जवाब है- हाँ।

वैसे, देखा जाये तो यह नई बात नहीं है। प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल तक भारतीय समाज में जाति ही सबसे बड़ी पहचान रही है। अंग्रेज़ों के समय भी यह पहचान बनी तो रही पर शूद्रों और स्त्रियों को कुछ अधिकार मिलने शुरू हुए जिसने जातिप्रथा की अकड़ थोड़ी कमज़ोर की, लेकिन इसे वैचारिक चुनौती तो स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान पैदा हुए स्वप्न से ही मिली।

अप्रैल 1909 में आगरा में कांग्रेस का प्रदेश सम्मेलन हुआ जिसमें बतौर अध्यक्ष मोतीलाल नेहरू ने कहा- “मैं आप लोगों से अनुरोध करता हूँ कि अपने को केवल प्रस्तावों तक सीमित न रखें। ...यही उपयुक्त समय है जब कि केवल डाकघर बनना बंद कर कुछ व्यावहारिक काम करें। हम लोगों को तत्काल एवं पूरी निष्ठा के साथ अपनी सामाजिक व्यवस्था के दो सबसे बदसूरत धब्बों- जाति प्रथा एवं पर्दा- को मिटाना शुरू कर देना चाहिए। ये दो ऐसी बुराइयाँ हैं जो हमें सामाजिक पैमाने पर बहुत नीचे घसीट लाई हैं और इन्होंने हमें आधुनिक सभ्यता के लिए उपहासास्पद बना दिया है। उन्होंने घोषणा की कि मैं स्वयं भारतीय पहले हूँ और ब्राह्मण बाद में।“

यानी ‘जाति बाद में और भारतीय पहले’ होने की इच्छा स्वतंत्र भारत के स्वप्न के गर्भ में था। ये संयोग नहीं कि आगे चलकर ‘जाति विनाश’ को आधुनिकता और सच्चे लोकतंत्र की शर्त बताने वाले डॉ. आंबेडकर ने भी कहा कि ”हम शुरू से लेकर अंत तक भारतीय हैं और मैं चाहता हूँ कि भारत का प्रत्येक मनुष्य भारतीय बने, अंत तक भारतीय रहे और भारतीय के अलावा कुछ न बने।”

आज़ादी के कुछ दशक बाद तक पं. नेहरू और कांग्रेस के समाजवादी स्वप्न के साथ आगे बढ़ते देश के पास ‘जातिप्रथा का नाश’ भी एक धीमा ही सही, मगर जीवंत प्रोजेक्ट था।

अंतरजातीय विवाहों को बढ़ावा और सम्मान देने की सरकारी योजनाएँ भी थीं जिसे ‘जाति विनाश’ का सबसे कारगर हथियार महात्मा गाँधी ने भी माना था और डॉ. आंबेडकर ने भी। माना जा रहा था कि औद्योगिक विकास के साथ जाति जैसे सामंती अवशेष जल्द ही अतीत की बात हो जाएँगे। मुख्यधारा का मीडिया भी इस विचार को हाथों हाथ लेता था और जाति गोलबंदी की बात करना आमतौर पर बुरा माना जाता था। डॉ. लोहिया ने भी जब ‘सौ में पायें पिछड़े साठ’ का नारा दिया तो उसे भागीदारी का मसला ज़्यादा माना गया बनिस्बत जाति गोलबंदी के, क्योंकि डॉ. लोहिया ने जगह-जगह ‘जाति तोड़ो सम्मेलन’ कराये थे जो उस समय के समाजवादी आंदोलनों की पहचान थे।

लेकिन बीसवीं सदी के तीसरे दशक का मंज़र बिल्कुल जुदा है। जब अल्लामा इक़बाल ने लिखा कि ‘जम्हूरियत वो तर्ज़े हुक़ूमत है कि जिसमें, बदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते,’ तो इसमें एक तंज़ था कि लोकतंत्र में हर आदमी के वोट की क़ीमत एक है जबकि दानिशवर और अनपढ़ या कमअक़्ल आदमी की राय में फ़र्क़ होना चाहिए। राजनीतिक दलों ने इस बात को कुछ यूँ समझा कि वे गिनती को सबसे ज़्यादा महत्व देने लगे। किसी विचार के आधार पर लोगों की गोलबंदी की मेहनत पहले से संगठित जातियों के साथ सीधे सौदा करना या कुछ जातियों के गठजोड़ के आधर पर सत्ता के शिखर तक पहुँचने का शॉर्टकट उन्हें ज़्यादा भाने लगा। इसमे हिंदुत्व की आड़ में समाज में सवर्ण वर्चस्व के पैरोकार तो थे ही, जातिप्रथा के नाश को ‘मिशन’ मानने वाले डॉ. आंबेडकर को पूजने वाले भी शामिल हैं। आज उत्तर प्रदेश जैसे प्रदेशों में ज़्यादातर जातियों की अपनी पार्टियाँ हैं जिनके नेता चुनाव के समय पर्याप्त क़ीमत मिलने पर इस या उस जाति-जमावड़े का हिस्सा बन जाते हैं।

पत्रकारिता को साहित्य की तरह राजनीति से आगे चलने वाली मशाल तो नहीं माना गया है लेकिन उससे इतनी उम्मीद तो रहती ही है कि वह कम से कम जाति जैसे सवाल पर होने वाली गोलबंदियों का समर्थन नहीं करेगा जिसने अतीत में भारत को न जाने कितने दुख दिये हैं और देश की एकता की राह में सबसे बड़ी बाधा रही है। उसका सबसे बड़ा दायित्व इस स्थिति पर प्रश्न खड़े करना है। वैसे भी भारत का मीडिया सवर्ण या एलीट वर्चस्व में होने के बावजूद समाज सुधार अभियानों के साथ काफ़ी हद तक नत्थी रहा है और उसकी मुख्य भंगिमा ‘प्रगतिशीलता’ की ही रही है। स्वभाविक था कि ‘जाति सम्मेलनों’ की सूचनाएँ अख़बारों में जगह पातीं लेकिन अगर अख़बार के दफ़्तरों में भी जाति गौरव का आयोजन होने लगे तो फिर समझना चाहिए कि जाति केंद्रित राजनीति पर प्रश्न उठाने की नैतिक शक्ति अब मीडिया के पास नहीं रही। ‘लोकतंत्र को जाति-तंत्र’ में बदलने के अभियान के सामने उसने भी हाथ खड़े कर दिये हैं या जाति गौरव की बहती गंगा में हाथ धोने में जुट गया है।

दिलचस्प बात ये है कि यह उस देश के मीडिया का हाल है जिसकी आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले तमाम नेता ख़ुद भी आला दर्जे के पत्रकार रहे हैं।

महात्मा गाँधी हों या नेहरू या फिर कानपुर से निकले वाले गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रताप में काम करने वाले भगत सिंह, सबने अपने लेखन से समाज की कुरीतियों पर चोट करते हुए पत्रकारिता से मशाल का काम लिया। मुनाफ़े को माई-बाप समझने वाले इस दौर में मीडिया से ऐसे उच्च आदर्शों की अपेक्षा तो नहीं की जा सकती है, लेकिन कम से कम उसे भारत को सच्चे मायने में आधुनिक बनाने के संकल्प के साथ तो नत्थी रहना ही पड़ेगा, वरना कल पार्टियों की तरह जातियों के भी अपने अख़बार होंगे जिनके आर्काइव में ‘नये भारत’ का संकल्प धूल खा रहा होगा।

यूँ ये सीधे-सीधे मनुष्य बने रहने या उसके स्वाद से वंचित रहने का मसला भी है। संत रैदास की चुनौती सामने है-

जात-जात में जात है, जस केलन के पात

रैदान न मानुस बन सके, जब तक जात न जात।

जाति के रहते आदमी का इंसान बन पाना मुमकिन नहीं है। जाति गौरव में डूबा मीडिया इंसानियत की राह में रोड़ा है।

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