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समरथ को नहीं मास्क गुसाईं

समरथ को नहीं मास्क गुसाईं

ओमिक्रॉन की दहशत के बीच मास्क को लेकर जारी की गई चेतावनी का ख़ुद प्रधानमंत्री और बाक़ी बड़े नेता ही पालन न करें तो फिर चेतावनी जारी करने का क्या मतलब है। 

शुक्रवार को जो चेतावनी दी गई वह काफी कड़ी थी। कोरोना को लेकर होने वाली केंद्र सरकार की डेली ब्रीफिंग में बताया गया कि ओमिक्रान को लेकर भारत अब महामारी के डेंजर जोन में पहुँच चुका है। इसलिए जरूरी है कि मास्क लगाने और सामाजिक दूरी बनाने के नियमों का सख्ती से पालन किया जाए। 

अगले ही दिन एक नया नारा भी दिया गया- ‘मास्क नहीं तो टोकेंगे, कोरोना को रोकेंगे’।

लेकिन दो दिन बाद जब वाराणसी में विश्वनाथ मंदिर परिसर का लोकार्पण हुआ तो टोकने और रोकने का यह सिलसिला कहीं नहीं दिखाई दिया। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे समय तक बिना मास्क के ही दिखाई दिए। 

यह जरूर है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब तक उनके साथ रहे उन्होंने बाकायदा मास्क लगाए रखा।

जब नए बने परिसर में प्रधानमंत्री का भाषण शुरू हुआ तो आगे की पंक्ति में बैठीं राज्य की राज्यपाल आनंदी बेन पटेल समेत तकरीबन सभी नेताओं और विशिष्ठजनों के चेहरे से मास्क हट चुका था। उस समय यह नहीं लग रहा था कि सोशल डिस्टेंसिंग नाम की भी कोई चीज होती है। वहां न कोई टोकने वाला था और न कोई रोकने वाला।

पर यह समस्या सिर्फ प्रधानमंत्री और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के साथ ही नहीं है।

सपा का भी वही हाल

इस समारोह से कुछ ही दिन पहले उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने लखनऊ में एक प्रेस कांफ्रेंस की थी। मौका था विरोधी दलों के कईं बड़े नेताओं के समाजवादी पार्टी में शामिल होने का। मंच पर तीन दर्जन से ज्यादा लोग विराजमान थे। उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे ये सब महामारी से पहले वाले युग में पंहुच गए हैं जब मास्क मुख्यधारा में आया ही नहीं था।

एक बार फिर लौटते हैं वाराणसी में। ऐसा नहीं है कि वहां सभी लोग मास्क के बिना थे। ऐसे भी बहुत से लोग थे जो मास्क लगाने के नियमों का पालन पूरी सख्ती और ईमानदारी से करते दिखे। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में लगे एसपीजी के लोग और पुलिसकर्मी वगैरह मास्क लगाकर ही वहां हर जगह मुस्तैद थे। यानी वे सभी लोग जो वहां ड्यूटी पर थे और संभवतः उन्हें इसकी कड़ी हिदायत भी रही होगी।

अब इस कार्यक्रम के एक दूसरे दृश्य को भी याद कीजिए। इस परिसर में निर्माण कार्य करने वाले मजदूरों को एक जगह बिठाया गया था। सब के चेहरों पर मास्क था और उनके बीच सामाजिक दूरी का ख्याल भी रखा गया था। प्रधानमंत्री ने वहां पहुँच कर उन मजदूरों पर पुष्प वर्षा की। उन ढेर सारे लोगों के बीच अकेले प्रधानमंत्री ही थे जिनके चेहरे पर मास्क नहीं था। 

इसके पीछे चिंता अगर यह थी कि मजदूरों को महामारी के दौर में भी पूरी सुरक्षा दी जाए तो इसकी तारीफ होनी चाहिए। लेकिन यही चिंता नेताओं और विशिष्टजनों के लिए क्यों नहीं दिखाई गई।

सख़्ती सिर्फ़ दिखावा

देश में बहुत सी जगहों पर मास्क न लगाने वालों के लिए जुर्माने का प्रावधान किया गया है। कुछ जगह यह सिर्फ नाम के लिए ही है जबकि कईं जगह इसे सख्ती से लागू भी किया जाता है। दिल्ली की सड़कों पर मोटर वाहनों के अंदर बिना मास्क के बैठने पर दो हजार रुपये तक जुर्माना देना पड़ सकता है। लेकिन किसी वीआईपी को ऐसा जुर्माना भरना पड़ा हो यह बात कभी कहीं सुनाई नहीं पड़ी। 

हालांकि सार्वजनिक जगहों पर बिना मास्क वाली उनकी तस्वीरें हम आए दिन अखबारों और टेलीविजन पर देख लेते हैं। 

दरअसल मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग के लिए बने नियमों, प्रावधानों, आदेशों और उपदेशों का देश में वही हश्र हो चुका है जो बाकी ज्यादातर नियमों और कानूनों का है। इनका इस्तेमाल आम लोगों पर ही किया जाता है, जबकि सामर्थ्यवान लोग आमतौर पर इनके पालन से बच जाते हैं। हम एक महामारी से भी उसी तरह लड़ रहे हैं जैसे दूसरी सामाजिक बुराइयों और नागरिक अपराधों से लड़ते रहे हैं। 

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