धार्मिक ध्रुवीकरण की मोदी-नीति से दांव पर भारत की वैश्विक छवि
भारत में लोकसभा चुनाव के दो चरणों की समाप्ति के बाद प्रधानमंत्री मोदी द्वारा धार्मिक ध्रुवीकरण के विकट प्रयासों की चर्चा देश ही नहीं विदेश में भी हो रही है। अल्पसंख्यकों, ख़ासतौर पर मुसलमानों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से निशाना बनाने की उनकी कोशिश देश की लगभग बीस करोड़ आबादी के नागरिक गरिमा और मानवाधिकार को गहरे संकट में डाल रहा है। अफ़सोस कि भारत के मानवाधिकार आयोग सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं ने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। इसी का नतीजा है कि पहली मई को जेनेवा में होने जा रही एक महत्वपूर्ण बैठक में यह तय होगा कि भारत के मानवाधिकार आयोग का ‘ए-स्टेटस’ बरक़रार रखा जाये या फिर इसका दर्जा घटा दिया जाये।
मोदी जी के नेतृत्व में भारत के विश्वगुरु बन जाने की मुनादी कर रहे कथित मुख्यधारा मीडिया से ये ख़बर लगभग ग़ायब है। बहरहाल, इससे पता चलता है कि वैश्विक स्तर पर भारत की वास्तव में क्या गत बन रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा मान्यता प्राप्त ग्लोबल एलायंस ऑफ़ नेशनल ह्यूमन राइट्स इंस्टीट्यूशन्स (GANHRI) की सब कमेटी ऑन एक्रीडेशन (SAC) की बैठक में यह तय होगा कि भारत के मानवाधिकार आयोग की रेटिंग घटायी जाये या नहीं। अगर ‘ए’ रेटिंग घटाकर ‘बी’ कर दी गयी तो संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद और इससे जुड़ी कुछ समितियों में भारत के वोट देने की हैसियत पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
यह पहली बार नहीं है जब भारत के मानवाधिकार आयोग की स्वतंत्रता और कार्यक्षमता को लेकर ऐसा संदेह उत्पन्न हुआ है। 2016 में भी एक बार भारत की ‘ए रैंकिंग’ को एक साल के लिए स्थगित कर दिया गया था।मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की संरचना, मानवाधिकार जांच में पुलिसकर्मियों की उपस्थिति, लिंगऔर अल्पसंख्यक, ख़ासतौर पर मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व की कमी के कारण 2023 में इसकी रेटिंग रोक दी गई थी। माना जा रहा है कि भारत का मानवाधिकार आयोग सरकार के दबाव में है और सरकारी अधिकारी इसेचलाते हैं। यह तमाम मुसलमानों तथा अन्य अल्पंख्यक और वंचित समूहों की राज्य के अत्याचार से रक्षा नहीं कर पा रहा है।
ज़ाहिर है, प्रधानमंत्री के भाषण इस स्थिति को और ख़राब बना रहे हैं। भारतीय मीडिया तो मौन है, लेकिन विदेशी मीडिया में पीएम मोदी के मुस्लिमों को निशाना बनाने वाले बयानों की काफ़ी चर्चा है। ख़ासतौर परबाँसवाड़ा, राजस्थान के जिस भाषण में उन्होंने मुस्लिमों को ‘घुसपैठिया' और ‘ज़्यादा बच्चे पैदा करने वाला’ कहा था, उसकी कई विदेशी समाचार मंचों पर सुर्खियाँ बनीं।
अमेरिकी अखबार 'वाशिंगटन पोस्ट' ने 22 अप्रैल को 'मोदी पर चुनावी रैली में मुसलमानों के खिलाफन फ़रती भाषण देने का आरोप' शीर्षक से एक रिपोर्ट छापी थी। वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा कि प्रधानमंत्री मोदी ने राजस्थान के बांसवाड़ा और अलीगढ़ में विवादित बयान दिया। अख़बार ने नागरिकता क़ानून की आलोचना करते हुए लिखा कि इसमें धर्म के आधार पर नागरिकता देने की बात की गई है, जो भारत के धर्मनिरपेक्षता के मूलभूत सिद्धांतों से अलग है। अमेरिका की ‘टाइम्स मैगज़ीन’ ने लिखा कि मोदी की इस टिप्पणी का आधार विभाजनकारी हिंदू राष्ट्रवाद है, जिसके तार बीजेपी और आरएसएस से जुड़े हैं। मैगज़ीन ने अमेरिका मेंमुसलमानों के अधिकारों के लिए काम करने वाले समूह 'काउंसिल ऑफ़ अमेरिकन इस्लामिक रिलेशंस' (सीएआईआर) के एक बयान को अपनी रिपोर्ट में जगह दी है जिसमें मोदी के भाषण की आलोचना की गई है।
सीएआईआर ने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन से अपील की है कि भारत में मुसलमानों और अल्पसंख्यक समूहों के साथ हो रहे भेदभाव के मामलों को देखते हुए, भारत को ‘चिंताजनक देशों’ की सूची में शामिल किया जाए। मैगज़ीन ने लिखा है कि 2002 में गुजरात में दंगे हुए थे, उस समय मोदी राज्य के मुख्यमंत्री थे और 2005 में मोदी पर अमेरिका ने अपने देश में प्रवेश पर रोक लगा दी थी। वहीं ‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ ने छापा कि नरेन्द्र मोदी आर्थिक और कूटनीतिक स्तर पर देश के विकास को लेकर वैश्विक नेता के तौर पर खुद को पेश कर रहे थे। देश में हो रहे धार्मिक और नफ़रती भाषण जो उनकी पार्टी के नेता दे रहे थे। अपनी छवि बचने के लिए मोदी इन भाषण से दूरी बना कर रखते थे। लेकिन अब उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और एक चुनावी सभा में मुसलमानों को कथित तौर पर 'घुसपैठिए' कहे दिया जिसको लेकर विवाद हो रहा है।
साफ़ है कि तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने के जुनून में मोदी जी उन तमाम मर्यादाओं को ताक़ पर रख रहे हैं जो इस पद के साथ जुड़ी हैं। वे अपने लाभ के लिए भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा दाँव पर लगाने से भी नहीं हिचक रहे हैं। कांग्रेस पर तुष्टीकरण का आरोप साबित करने के लिए वे पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के 18 साल पुराने एक भाषण को लेकर भी झूठ बोल रहे हैं। वे कहते हैं कि मनमोहन सिंह ने संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक़ वाला बताया था लेकिन मनमोहन सिंह ने 2006 के इस भाषण में कहा था, ''अनुसूचित जातियों औरजनजातियों को पुनर्जीवित करने की ज़रूरत है। हमें नई योजनाएं लाकर ये सुनिश्चित करना होगा किअल्पसंख्यकों का और ख़ासकर मुसलमानों का भी उत्थान हो सके, विकास का फायदा मिल सके। इन सभी का संसाधनों पर पहला दावा होना चाहिए।’'
ऐसा ही झूठ मोदी जी कर्नाटक के मुस्लिम आरक्षण के लिए कांग्रेस को निशाना बनाते हुए भी बोल रहे हैं।सच्चाई ये है कि धर्म के आधार पर आरक्षण संभव नहीं है लेकिन मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी मुस्लिम जातियों को आरक्षण देने की बात को स्वीकार किया गया था। इस संदर्भ में बने चिन्नपा रेड्डी आयोग की सिफ़ारिशों के आधार पर 1995 में कर्नाटक की देवगौड़ा सरकार ने ओबीसी कोटा के भीतर 2-बी विशिष्ट वर्ग बनाकर मुसलमानों को चार प्रतिशत आरक्षण दिया था। देवगौड़ा फ़िलहाल बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए का हिस्सा हैं।
इन 29 सालों में कर्नाटक में बीजेपी के पाँच नेता मुख्यमंत्री रहे और केंद्र में दो प्रधानमंत्री रहे। न राज्य के बीजेपी मुख्यमंत्रियों ने, न बतौर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पर कभी आपत्ति जतायी। स्वयं मोदी जी को भी कर्नाटक के मुस्लिम कोटा पर आपत्ति जताने की याद अपने दस साल का कार्यकाल समाप्त होने के बाद आयी है।
साफ़ है, मोदी जी कांग्रेस घोषणापत्र के आकर्षण और इसे लेकर पैदा हुए उत्साह से परेशान हैं। जाति जनगणना के मुद्दे ने उन्हें और भी बैकफ़ुट पर ला दिया है। ऐसे में वे तीखा धार्मिक ध्रुवीकरण के ज़रिए भारत के प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं, बिना ये सोचे कि उनकी इस नीति से भारत की क़रीब 14 फ़ीसदी आबादी किस क़दर अलगाव और हताशा का शिकार बनेगी या फिर दुनिया भर में ‘भारत’ की छवि को क्या नुक़सान होगा। वे भूल जाते हैं कि इस नीति से किसी को जीत मिली भी तो यह ‘भारत के विचार’ की हार ही होगी।
(पंकज श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और कांग्रेस से जुड़े हैं)