+
जीडीपी, जातिवाद और जेहनी जड़ता का समानुपाती विस्तार!

जीडीपी, जातिवाद और जेहनी जड़ता का समानुपाती विस्तार!

भारत के ग्रामीण अंचल में होने वाली घटनाओं की चर्चा शहर तक नहीं आ पाती है। वरिष्ठ पत्रकार एन.के. सिंह ने महज़ दो घटनाओं को एक नमूने के रूप में पेश करते हुए कई महत्वपूर्ण बातें कहीं हैं। पढ़ियेः 

“इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,

अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ”

 – दुष्यंत कुमार

दुष्यंत कुमार ने जब लिखा था तो शायद गाँवों में खिड़कियाँ खुलती थीं. लेकिन उनके इंतकाल के कोई 50 साल बाद अब गाँवों में भी नहीं खुलती. शायद इस जमीनी मुद्दों पर झकझोरने वाले इस शायर पर मैथलीशरण गुप्त का “अहा, ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सब का मन चाहे” तारी रहा. अगर राजस्थान के अजमेर और बिहार के लखीसराय के गाँवों की दो ताज़ा घटनाओं को देखेंगें तो पता चलेगा कि खिड़कियाँ अब यहाँ भी नहीं खुलती. 

किस्सा न 1: लखीसराय के एक गाँव में शराब के नशे में देर रात कुछ लोग एक सिगरेट की दूकान खोलवाने के लिए दरवाजा पीटने लगे. दूकान-घर की मालकिन 65 वर्षीय वृद्धा के मना करने पर ये गुंडे छज्जे पर चढ़ दरवाजा तोड़ कर दाखिल हुए. इस बीच बुढ़िया के जवान बेटे-बहु पीछे के दरवाजे से निकल कर भाग गए. गुंडों ने पहले तो बुढ़िया को पीटा. फिर “बचाओ-बचाओ” पुकारती हुई बुढ़िया को खेत में ले गए और सामूहिक बलात्कार किया. 

कहते हैं रात के सन्नाटे में चीत्कार दूर तक जाती है. लेकिन पूरे गांव का एक भी आदमी ने यह “चीख, आर्तनाद और अंतत कराह” नहीं सुनी”. कोई खिड़की नहीं खुली. ग्राम्य-जीवन बहरा हो चला था या शायद जडवत. “जब बदमाश मुझे खींच कर खेत में ले जा रहे थे तो मैं चिल्ला रही थी लेकिन टोले का एक भी आदमी बाहर नहीं आया” बुढ़िया ने अस्पताल में बताया. 

बिहार में शराबबंदी लागू है. बिहार का आबादी घनत्व देश में सबसे ज्यादा और राष्ट्रीय औसत के तीन गुने से ज्यादा है. शहरीकरण मात्र 12 प्रतिशत. याने चीत्कार एक नहीं कई गाँवों ने सुनी होगी. इसमें भी दो राय नहीं कि ये गुंडे स्थानीय होंगें. क्या पूरे गाँव में एक भी ऐसा नहीं था जो यह समझे कि ऐसा हमला उसके घर पर भी हो सकता है. 

शायद बुढ़िया के बेटे-बहू पूरे गाँव के सामूहिक जडत्व से ज्यादा वाकिफ थे. तभी तो वे मां को छोड़ कर खुद निकल गए. शायद बूढी मां को गवारा नहीं हुआ कि “बसा-बसाया घर और सौ-हज़ार रुपये का दूकान का माल” लुटने के लिए खुला छोड़ दे.

इस जड़ता का कारण जाने: नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार बिहार में सजा की दर 8-12 प्रतिशत रहती है जबकि केरल में 86-91 प्रतिशत. याने केरल में अगर पुलिस ने किसी को अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया है तो उसका छूटना बेहद मुश्किल है लेकिन बिहार का अपराधी मूछों पर ताव देता हुआ “निर्दोष” करार दिया जाएगा. जरा सोचिये, उस सामजिक नैतिकता निभाने वाले ग्रामीण की स्थिति जिसने किसी ऐसी हीं सताई गयी बुढ़िया के पक्ष में अपराधियों के खिलाफ गवाही दी है उसकी ये अपराधी जेल से “दोषमुक्त” होने के बाद क्या हालत करेंगे!!  

किस्सा न 2: राजशाही के लिए मशहूर राजस्थान के अजमेर जिले के एक गाँव में 200 पुलिस वालों के घेरे और शीर्ष अफसरों की निगरानी में घोड़ी पर सवार एक दूल्हा जब दुल्हन के दरवाजे तक बारात ले कर पहुँचा तो प्रशासन ने राहत की सांस ली. आजादी 75 साल बाद भी अफसरों ने मीडिया को अपनी सफलता के बारे में हांफ-हांफ कर बताया. यह किसी वीआईपी की नहीं एक दलित की शादी थी.

डर यह था कि 20 साल पहले दुल्हन की बुआ की शादी में घुडचढ़ी के दौरान उच्च जाति ने जो कुछ किया था वह फिर न घटे. एक एनजीओ ने एनएचआरसी से और फिर जिला प्रशासन से गुहार लगाईं. तारीफ प्रशासन की है कि इसने ऐसे मुद्दे को हवा में टालने की जगह सकारात्मक भाव से लिया. लड़की के पिता ने बताया कि “कब तक डरते रहेंगें” का बलिदानी भाव ले कर हमने हिम्मत कर अबकी बार प्रशासन से मदद माँगी”. यह अलग बात है कि समाज के “समझदार” लोगों की राय पर इस विवाह-जुलूस में पटाखे या आतिशबाजी करने की हिम्मत फिर भी नहीं दिखाई गयी.

जाहिर है प्रशासन की भी इस पर मौन सहमति रही क्योंकि पुलिस का घेरा शाश्वत नहीं होता जबकि जातीय दबंगई संविधान और कानून की मोहताज नहीं होती. बहरहाल 20 साल के बाद भी वही मानसिकता - एक दलित की घोड़ी पर चढ़ कर उच्च वर्ग के प्रतीकों को अपनाने की जुर्रत? जैसे घोड़ी न हुई “राजा साहेब के पुरखों की हवेली हो गयी” !! कब तक यह भेदभाव बना रहेगा और क्या इससे हम अपनी संस्कृति को और दूषित नहीं कर रहे हैं?

20 साल में तो पीढी बदल जाती है. बाबा साहेब के संविधान ने तो “हम भारत के लोग” कहा था और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक समानता का वादा किया था. आजादी का लाभ भी बेहतर शिक्षा और  आर्थिक स्थिति के रूप में उच्च वर्ग को हीं मिला फिर क्यों यह सदियों पुरानी कुंठित सोच बदली नहीं जा सकी? यह सोच कन्याकुमारी से कश्मीर तक समान रूप से विद्यमान है जो दलित द्वारा घोड़ी चढ़ने पर हीं नहीं,  ख़ुशी के किसी भी अभिजात्य प्रतीक के अपनाने पर उच्च जाति के लोगों को आक्रोशित करती है जिस तरह सदियों पहले होता था. 

मान्यता है कि शिक्षा और सांस्कृतिक उन्नयन एक-दूसरे के पूरक होते हैं और बेहतर आर्थिक स्थिति शोषणवादी व्यवस्था को ख़त्म करती है. राम मंदिर और हिन्दू-मुसलमान के नाम पर मारने-मरने वाला “सनातनी” समाज अपने हीं लोगों के बीच इस विभेद को और गहरा क्यों कर रहा है? धर्मान्धता बढे़ तो समाजशास्त्रीय अवधारणा तो यह मानती है कि जातिवाद ख़त्म होगा. लेकिन ये दोनों एक-दूसरे के पूरक क्यों बन गए हैं. “हमारे घर राम आयेंगें” के गाने ने शहरी मध्यम उच्च वर्ग को राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के दौरान खूब रिझाया लेकिन राम-सबरी प्रकरण उन्हें याद नहीं आया. 

सेलेक्टिव अप्प्रोप्रिएशन ऑफ़ फैक्ट्स एक तर्क-शास्त्रीय दोष ने मुसलमानों के बरअक्स हिन्दू “पुनर्जागरण” की “संघीय” परिभाषा के कारण वैज्ञानिक-तार्किक सोच पनपने नहीं दिया? क्या नया भारत जीडीपी बढ़ने से ही बन जाएगा? 

(एनके सिंह ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के पूर्व महासचिव हैं)

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें