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विदेशी मुद्रा भंडार घटा, भुगतान संतुलन का संकट तो नहीं?

विदेशी मुद्रा भंडार घटा, भुगतान संतुलन का संकट तो नहीं?

दुनिया भर के देशों के सामने आ रहे आर्थिक संकट के बीच अब भारत की आर्थिक स्थिति को लेकर आख़िर चिंताएँ क्यों उठने लगी हैं? क्या विदेशी मुद्रा भंडार पर असर पड़ रहा है इसलिए?

विदेशी मुद्रा भंडार लगातार कम हो रहा है। डॉलर के मुक़ाबले रुपया लगातार कमजोर हो रहा है। भुगतान संतुलन में भी कुछ गड़बड़ी दिख रही है। तो क्या ये किसी आर्थिक संकट की ओर इशारा करते हैं?

भुगतान संतुलन को किसी देश की आर्थिक स्थिति को पता लगाने की अहम नब्ज माना जा सकता है। अब यदि इस आधार पर देखें तो भारत की आर्थिक स्थिति कितनी ख़राब या कितनी बढ़िया दिखती है? इस हालात को समझने से पहले यह समझ लें कि भुगतान संतुलन क्या है। तकनीकी भाषा में कहें तो किसी देश के भुगतान संतुलन उसके शेष विश्व के साथ एक समय की अवधि में किये जाने वाले मौद्रिक लेन-देन का विवरण है। लेकिन मोटा-मोटी समझें तो भुगतान संतुलन का मतलब है कि किसी देश के विदेशी मुद्रा भंडार में अपने आयात के बिल को चुकाने की क्षमता कितनी है। 

भारत को 1991 में अपने सबसे बड़े भुगतान संतुलन संकट का सामना करना पड़ा था। उसी संकट के बाद भारत ने आर्थिक सुधार कार्यक्रम को गति दी। उस समय भारत का विदेशी मुद्रा भंडार अपने आयात बिल के एक महीने से भी कम समय के लिए भुगतान कर सकता था। इसे ख़तरे के निशान में माना जाता है। क्योंकि यदि किसी देश के पास एक महीने से भी कम भुगतान करने के लिए पैसे न हों तो वह देश कंगाल हो सकता है। इसकी मिसाल श्रीलंका में मौजूदा संकट में भी मिलती है। श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार खाली था और उसके पास सामान आयात करने पर उसके चुकाने के भी पैसे नहीं थे। वह पेट्रोल-डीजल भी नहीं खरीद पा रहा था। बिजली संकट पैदा हो गया था। कई ज़रूरी चीजें आयात नहीं हो पा रही थीं। इसी वजह से वह देश कंगाल घोषित हो गया।

बहरहाल, भारत का भुगतान संतुलन 1991 के बाद से लगातार सुधरा। कभी-कभार उतार-चढ़ाव को छोड़ दिया जाए तो विदेशी मुद्रा भंडार लगातार बढ़ता गया। 1991 के बाद से आयात के बिल को चुकाने के लिए भारत के पास विदेशी मुद्रा भंडार पर्याप्त रहा है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी यानी सीएमआईई के आँकड़ों से पता चलता है कि मार्च 1992 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार इतना था कि तब के 4.8 महीने के आयात का भुगतान किया जा सकता था। 

2000 के पहले दशक में यह विदेशी मुद्रा भंडार इतना हो गया कि 16 महीने से भी ज़्यादा के आयात का भुगतान किया जा सका था। अप्रैल 2020 में तो यह 28.1 महीने तक पहुँच गया। लेकिन उसके बाद से यह लगातार कम होता गया। 

अगस्त 2022 के महीने में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार 8.8 महीने के आयात के लिए भुगतान के बराबर है। यह आँकड़ा अप्रैल 2020 के बाद भारी गिरावट को दिखाता है।

वैसे, आर्थिक मामलों के जानकार इस गिरावट को ख़तरे के निशान के तौर पर नहीं देखते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि 2 साल से लगातार स्थिति ख़राब होती दिख रही है। सवाल है कि क्या आगे स्थिति सुधरेगी? 

विदेशी मुद्रा भंडार 16 सितंबर को समाप्त सप्ताह में कम होकर 545.65 अरब डॉलर पर आ गया है। यह मार्च 2022 में 607.31 अरब डॉलर था। इधर, आज के शुरुआती कारोबार में अमेरिकी डॉलर के मुकाबले घरेलू मुद्रा 40 पैसे गिरकर 81.93 रुपये के सर्वकालिक निचले स्तर पर आ गई। आरबीआई ने पिछले कुछ महीनों में रुपये के मूल्य को स्थिर करने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा इस्तेमाल किया है।

पहले दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक तंगी से गुजरने के बाद भी भारत की अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी बताई जा रही थी। लेकिन अब कहा जा रहा है कि भारत पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। और इसी वजह से भारत की आर्थिक वृद्धि की दर के पूर्वानुमानों को अब पहले से कम किया जा रहा है। 

बता दें कि मशहूर अर्थशास्त्री नूरील रूबिनी ने हाल ही में 2022 में भयावह आर्थिक मंदी की चेतावनी दी है। रूबिनी को संदेह है कि अमेरिका और वैश्विक मंदी पूरे 2023 तक चलेगी और यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपूर्ति के झटके और वित्तीय संकट कितने गंभीर होते हैं। 

नूरील रूबिनी वो अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने 2008 के आर्थिक संकट की सटीक भविष्यवाणी की थी। कहा जाता है कि जब उन्होंने आर्थिक संकट के बारे में सबसे पहले बात की थी, तब किसी ने उनकी बातों को गंभीरता से नहीं लिया था, लेकिन उनकी सारी बातें सही साबित हुईं। तब अमेरिका गंभीर आर्थिक संकट से गुजरा था। नूरील रूबिनी को उनकी 2008 की सटीक भविष्यवाणी के लिए डॉ. डूम का उपनाम दिया गया था।

कहा जा रहा है कि दुनिया भर की आर्थिक अनिश्चितताओं, बढ़ती महंगाई ने आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया है। जब दुनिया की अर्थव्यवस्थाएँ तंग होंगी तो भारत भी प्रभावित होगा। ऐसे हालात में कहा जा रहा है कि सरकार को राजकोषीय घाटा को काबू में रखना मुश्किल होगा। हालाँकि सरकार चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटा 6.4 प्रतिशत रखने के लक्ष्य पर कायम है। लेकिन क्या यह इस लक्ष्य को पाने में सफल होगी? 

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