देश संविधान के आधार पर चलेगा या धर्म के?
देश की सुरक्षा और समृद्धि विभिन्न राज्य सरकारों व केंद्र सरकार का दायित्व है लेकिन सरकारों द्वारा प्रयोग में लायी जा रही संशोधित धर्म-निरपेक्षता देश में आंतरिक सुरक्षा व निवेश के माहौल के लिए लगातार ख़तरा बनती जा रही है। संविधान प्रदत्त धर्मनिरपेक्षता कोई किताबी ख़्याल नहीं, बल्कि देश की आवश्यकता है। लेकिन संशोधित धर्म-निरपेक्षता धीरे-धीरे देश को दो भागों में बाँट रही है।
पहला भाग वह है जिसमें एक धर्म विशेष के ख़िलाफ़ कहीं ज़्यादा सतर्कता से क़ानून की शक्ति का इस्तेमाल किया जा रहा है तो दूसरी तरफ़ स्वयं क़ानून व उसे बनाने वाले, संविधान में अंतर्निहित मूल्यों की जानबूझकर अनदेखी करते नज़र आ रहे हैं। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा लाए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’, जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी 1947 को अंगीकार किया था, संविधान की उद्देशिका (प्रस्तावना) का आधार बनी। संविधान की उद्देशिका ‘भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुतत्वसम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य’ बनाने के लिए भारत की जनता का आह्वान करती है। साफ है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान के उद्देश्यों में शामिल है। उद्देशिका कितनी महत्वपूर्ण है यह इस बात से समझा जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने बेरुबारी यूनियन मामले में कहा था कि जहां भी संविधान की भाषा में संशय हो वहाँ संविधान की व्याख्या के लिए प्रस्तावना की ओर देखना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि यह समझना हो कि धर्मनिरपेक्षता का संविधान में कितना महत्व है तो ऐतिहासिक केशवानंद भारती मामले के निर्णय को देखना चाहिए। अब तक की सबसे बड़ी संवैधानिक पीठ केशवानंद मामले में बैठी थी। इस पीठ ने संविधान के ‘आधारभूत ढांचे’ (बेसिक स्ट्रक्चर) का सिद्धांत दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता को संविधान के आधारभूत ढांचे का हिस्सा माना है जिसे किसी भी सरकार द्वारा ख़त्म नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसा लगता है कि संविधान की इस मूल अवधारणा को चोटिल करने के लिए उच्च राजनैतिक पदों का इस्तेमाल किया जा रहा है। कभी हिजाब के नाम पर हिन्दू संगठनों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ आवाज उठाई जाती है तो कभी नमाज़ पढ़ने को लेकर ही मुद्दा बना लिया जाता है। पिछले 6 महीने को ही देख लें तो पता चलेगा कि इस देश को न सिर्फ सांप्रदायिकता का घुन लग रहा है बल्कि इसे बनाए और बचाए रखने के लिए शासन और सत्ता का भी इस्तेमाल हो रहा है।
जून में, अलीगढ़ में एक प्रोफेसर को सिर्फ इसलिए दंडित कर एक महीने के लिए छुट्टी पर भेज दिया गया क्योंकि उन्होंने अपने ही कॉलेज के लॉन में नमाज़ पढ़ ली थी। कॉलेज ने प्रोफेसर के खिलाफ जांच बैठा दी और पुलिस ने भी जांच शुरू कर दी। प्रोफेसर साहब वर्षों से यह धार्मिक प्रैक्टिस करते रहे होंगे, वर्षों से कई हिन्दू भी उनके सामने अपने अपने धार्मिक तौर तरीकों से पेश आते रहे होंगे लेकिन न कभी हिंदुओं को कोई शिकायत हुई होगी और न ही प्रोफेसर साहब को। सबकुछ आपसी समन्वय से चलता रहा। पर कोई है जो अब ऐसा नहीं होने देना चाहता!
मई में ताजमहल के अंदर स्थित एक मस्जिद में नमाज करने के आरोप में चार पर्यटकों को गिरफ्तार किया गया था। पर्यटकों की गलती सिर्फ इतनी थी कि उन्होंने यह नमाज़ शुक्रवार की बजाय बृहस्पतिवार को पढ़ ली, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ऐक्ट के अनुसार नमाज़ की इजाज़त सिर्फ शुक्रवार को ही है। इस बात पर कानून की ‘सतर्कता’ इस स्तर पर पहुँच गई कि पर्यटकों को गिरफ्तार कर लिया गया।
जनवरी में, एक हिंदुत्ववादी संगठन बेंगलुरु के एक रेलवे स्टेशन के प्रतीक्षालय में घुस गया, जहाँ कुछ लोगों द्वारा नमाज अता की जा रही थी। संगठन ने शिकायत की कि नमाज़ "राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा" है और अगर अधिकारियों ने नमाज़ नहीं रोकी तो वे इसका गंभीर विरोध करेंगे।
नमाज़ और पूजा कब से देश की सुरक्षा के लिए खतरा बन गया, पता नहीं चला। जबकि राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा तो ऐसे संगठन से होना चाहिए जो बड़ी संख्या में बिना कोई रेलवे टिकट लिए रेलवे स्टेशन के अंदर घुस जाता है। अगर इस संगठन की आड़ में कोई शरारती तत्व भी रेलवे के अंदर घुस जाए और कोई दुर्घटना घट जाए तो उसका खामियाजा किसे भुगतना पड़ेगा? निश्चित रूप से रेलवे यात्रियों और वहाँ कार्यरत अधिकारियों-कर्मचारियों को! ऐसे में ऐसे शरारती तत्वों को स्टेशन से बाहर निकालना ज्यादा बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए बजाय वर्षों से चली आ रही शांति से होने वाली नमाज़ की परंपरा को रोकने के।
सितंबर में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय यानी बीएचयू के छात्रों के समूह ने चीफ प्रॉक्टर को एक ज्ञापन सौंपकर विश्वविद्यालय परिसर के अंदर सार्वजनिक स्थानों पर नमाज अता करने पर प्रतिबंध लगाने की मांग की थी।
प्रतिबंध की मांग की स्थिति इसलिए आई क्योंकि एक ऐसी तस्वीर चारों तरफ फैल गई जिसमें बीएचयू के आयुर्विज्ञान संस्थान (आईएमएस) के सर सुंदरलाल अस्पताल में एक युवक नमाज़ करते हुए दिखा। जिस संस्थान को शिक्षा और सौहार्द्र की मिसाल कायम करनी चाहिए थी वहाँ पर तो नमाज़ पढ़ने के खिलाफ सांप्रदायिकता की मशाल जलाई जा रही है। क्या यह वही बनारस हिंदू विश्वविद्यालय है जिसके उद्घाटन दिवस, 4 फरवरी, 1916, पर महात्मा गाँधी ने छात्रों के समूह को संबोधित किया था। निश्चित रूप से बीएचयू में आज उस स्तर का छात्र समूह नहीं रहा होगा जो उस समय के छात्रों की तरह महात्मा गाँधी के विचारों को सुनने के लिए लालायित था। वही महात्मा गाँधी जिन्हें भाषण के दौरान मंच पर आसीन कोई भी व्यक्ति नहीं चाहता था कि वो आगे बोलें क्योंकि वो अंग्रेजों और भारतीय राजा महाराजाओं को उनके कार्यों के लिए लगातार लज्जित कर रहे थे। वही महात्मा गाँधी जिनके ‘स्वप्नों का भारत’ ऐसा होने वाला था “…जिसमें सभी समुदाय पूर्णतया समरस होकर रहेंगे… और स्त्री व पुरुष समान अधिकारों का उपभोग करेंगे।“ निश्चित रूप से बीएचयू बदल गया है, जिसे रास्ता दिखाने के लिए मालवीय जी ने बनाया था वह खुद रास्ते से भटक गया है।
सितंबर में ही सबसे ताजा मामला है, जिसमें मुरादाबाद पुलिस द्वारा एक घर में नमाज अता करने के आरोप में 26 लोगों के खिलाफ आईपीसी की धारा 505(2) के तहत FIR दर्ज कर दी गई है। यह धारा सार्वजनिक तौर पर शरारती बयान देने वाले के खिलाफ लगाई जाती है। यहाँ भी कानून की ‘सतर्कता’ विचारणीय है।
क्या कानून सभी समुदायों के साथ एक जैसा व्यवहार कर रहा है? क्या इतनी ही सतर्कता तब बरती गई थी जब यति नरसिंहानंद, बजरंग मुनिदास और सुरेश चवानके जैसे लोगों ने सीधे घृणा फैलाने का काम किया? यद्यपि इन सभी लोगों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए लेकिन क्या इनके मामले में पुलिस ने उतनी ही तेजी दिखाई? निश्चित रूप से नहीं! तेजी तो छोड़िए उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य जैसे प्रतिनिधि जिनपर कानून बनाने का दारोमदार है वो भी ऐसे लोगों का बचाव करते नजर आए। न सिर्फ बचाव बल्कि, बीबीसी के अनुसार, मौर्य का इस मामले पर साक्षात्कार लेने पहुंचे उनके पत्रकार का वीडियो जबरदस्ती डिलीट कर दिया गया, ये अलग बात है कि उस वीडियो को बाद में रिकवर भी कर लिया गया जिसमें वह ऐसे हेटस्पीच करने वालों को बचाते नजर आते हैं। जबकि इन लोगों पर समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देना (धारा 153ए), एक समूह की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाना (धारा 295ए), किसी व्यक्ति को ग़लत तरीके से रोकना (धारा 341) और सार्वजनिक शरारत करने वाले बयान (धारा 505), जैसी धाराएँ लगाई गई हैं।
नरसिंहानंदों की तुलना नमाज़ियों से करना उचित नहीं होगा। एक मामला पूरी तरह से हेट स्पीच का है तो दूसरा संवैधानिक अधिकारों से संबंधित है।
संविधान, अनुच्छेद 25(1) के तहत, हर व्यक्ति को स्वतंत्र रूप से "धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने" के अधिकार की गारंटी देता है। ऐसा ही अधिकार अहमदाबाद एयरपोर्ट पर गरबा कर रहे नागरिकों के लिए भी है और कॉलेज के लॉन में नमाज़ पढ़ने वाले नागरिकों के पास भी। लेकिन शायद सरकारें ऐसा नहीं सोचतीं इसीलिए तो कानून का अलग समुदायों के साथ अलग व्यवहार साफ नजर आता है।
कानून द्वारा ऐसा व्यवहार करने के पीछे सरकारों के अपने चरित्र भी हो सकते हैं। ऐसे चरित्र जो संवैधानिक अनुच्छेदों और मान्यताओं पर विश्वास नहीं करती हैं। बीते दिनों ऐसे दो उदाहरण सामने आए।
पहला है मध्यप्रदेश की सरकार का, जिसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान हैं। हाल में उन्होंने उज्जैन में कैबिनेट की बैठक की। बैठक के बीचोंबीच महाकाल की बड़ी सी तस्वीर लगी हुई थी और कोने में बैठे मुख्यमंत्री मीटिंग की अध्यक्षता कर रहे थे। तकनीकी रूप से मंत्रिपरिषद की बैठक होनी चाहिए लेकिन निर्णय प्रक्रिया को तेज करने के लिए मंत्रियों के अपेक्षाकृत छोटे समूह ‘कैबिनेट’ की बैठक कर ली जाती है, इस संदर्भ में यह भी एक संवैधानिक कृत्य ही हुआ क्योंकि ऐसी सभी बैठकों की जानकारी लेने का अधिकार राज्यपाल को है और साथ ही मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी है कि ऐसी बैठक की सारी सूचनाएं राज्यपाल तक पहुंचाएं। लेकिन इस बैठक के संदर्भ में शिवराज सिंह चौहान का कहना था कि "यह महाकाल महाराज की सरकार है जो यहाँ के राजा हैं... उनके सभी सेवक महाकाल महाराज की धरती पर एक बैठक के लिए आए हैं।" मध्यप्रदेश के लगभग चार करोड़ वोटरों ने मिलकर जिस लोकतान्त्रिक उत्सव में भाग लिया, जिसके लिए हजारों करोड़ रुपये खर्च किए गए, और फिर एक सरकार बनकर सामने आई उसे आसानी से महाकाल महाराज की सरकार कहना संविधान का अपमान है, उस जनमानस का अपमान है जिसने इस सरकार को चुना ताकि वो उन्हें और उनके मुद्दों को सुन सके। जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है ताकि उसके पास जा सके, उससे शिकायत कर सके और अपनी बातों को मनवाने के लिए विरोध में नारे लगा सके, लेकिन जो सरकार भगवान द्वारा चलाई जा रही हो उससे शिकायत करने कौन और कैसे जाएगा?
चौहान ने यह भी कहा कि लगभग 200 वर्षों के बाद सरकार उज्जैन में एक बैठक के लिए इकट्ठी हुई है। क्या वो 200 वर्ष पूर्व स्थापित राजशाही सरकारों और अंग्रेजों से आज की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की तुलना करना चाह रहे हैं? यह ‘संवैधानिक-ब्लासफेमी’ है।
शिवराज सिंह चौहान ‘प्रतीकात्मकता’ के परदे के पीछे नहीं छिप सकते! करोड़ों लोगों की जान गई तब जाकर इस देश को आजादी मिली, एक संविधान मिला ताकि धर्म और आस्था के नाम पर किसी का शोषण न हो और देश व सरकारें संवैधानिक ढांचे के तहत निर्मित किए गए कानूनों के माध्यम से चलें, लेकिन मुख्यमंत्री ने एक झटके में जनता को ‘भगवान भरोसे’ कर दिया।
इससे अच्छा तो था कि स्वयं महाकाल ही चुनाव लड़ते, उन्हीं को वोट दिया जाता! क्या शिवराज सिंह चौहान को नहीं पता कि उनके राज्य में मुस्लिम भी हैं, उन्होंने भी वोट किया होगा, आखिर वो क्यों आपके व्यक्तिगत धार्मिक मत को मानने के लिए बाध्य हों, खासकर तब जब मामला संवैधानिक दायित्व का है। क्या यह सरकार दावे के साथ कह सकती है कि महिलाओं और दलितों के साथ मंदिरों में भेदभाव नहीं होता? हजारों वर्षों के भेदभाव को रोकने के लिए ही संविधान ने धर्मनिरपेक्षता का प्रावधान किया है लेकिन उसे भी मिटाने की कोशिश की जा रही है।
लगभग ऐसा ही मामला यूपी सरकार द्वारा की गई कैबिनेट मीटिंग में सामने आया जिसमें मुख्यमंत्री बैठे तो बीच में हैं लेकिन उनके पीछे हिन्दू देवी की बड़ी सी फोटो लगी हुई है। हिंदुओं का पवित्र त्योहार नवरात्रि चल रहा है, मुख्यमंत्री जी की व्यक्तिगत आस्था हो सकती है लेकिन उनकी यह आस्था कैबिनेट मीटिंग में क्यों दिखनी चाहिए? संवैधानिक कृत्यों का निर्वहन धार्मिक दरवाजों के साथ नहीं किया जा सकता, इससे समाज में यह संदेश जा सकता है कि वर्तमान सरकार हिन्दू सरकार है जबकि संविधान, सरकारों के स्वरूप से धर्मनिरपेक्षता की आशा करता है। लेकिन सरकारों के धार्मिक रवैये का ही परिणाम है कि फिटजी जैसे संस्थान जिनका दशकों का इतिहास है कि कभी भी धार्मिक आधार पर उन्होंने खुद को प्रचारित नहीं किया लेकिन आज के दबाव के माहौल में वो भी धर्म को हथियार बना रहे हैं। उनके देश भर में छपे विज्ञापन बता रहे हैं कि उनके पास प्रेरणा लेने के लिए सिर्फ राम और कृष्ण हैं। जबकि उन्हें अच्छे से पता है कि उनके संस्थानों की रीढ़ में तमाम काबिल गैर-हिन्दू अध्यापक बैठे हुए हैं। कम से कम इन्हें ये करने की जरूरत नहीं। शिक्षा के अंतर्गत धर्म भी आ सकता है, लेकिन शिक्षा कभी धर्म से प्रेरणा नहीं ले सकती!
आंबेडकर सामाजिक लोकतंत्र को बढ़ावा देने की बात करते थे। उनकी नजर में सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ था “वह जीवन पद्धति जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुता को मान्यता देती हो”। लेकिन जब नमाज़ पढ़ने पर FIR होने लगे और सरकारें भगवान के नाम पर चलने लगे तब आंबेडकर का सामाजिक लोकतंत्र दम तोड़ देता है। स्वतंत्रता और समानता के पैमाने धर्म द्वारा शासित होने लगते हैं और बंधुत्व वोट बैंक की राजनीति के लिए शहीद हो जाता है। भारत में जो लोग धर्मनिरपेक्षता शब्द को इस आधार पर खारिज कर देना चाहते हैं कि यह अवधारणा मूल संविधान में नहीं थी बल्कि इसे तो 42वें संविधान संशोधन द्वारा इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा 1976 में स्थापित किया गया उन्हें यह बात भी समझनी चाहिए कि 1976 के इसी संविधान संशोधन द्वारा “..अखंडता” शब्द भी जुड़ा था। तो क्या भारत की अखंडता की अवधारणा को भी खारिज किया जा सकता है? भारतीय धर्मनिरपेक्षता धर्म को राज्य से अलग करती है लेकिन पश्चिमी संदर्भ के उलट यहाँ की धर्मनिरपेक्षता सभी धर्मों को समान संरक्षण के आदर्श पर स्थापित भी करती है जो समय आने पर धार्मिक मामलों पर हस्तक्षेप भी कर सकती है लेकिन हस्तक्षेप के पहले राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह किसी भी धर्म के प्रति खास जुड़ाव नहीं रखता है, परंतु दुर्भाग्य से देश के सामने जो उदाहरण हैं उनसे यह नहीं लगता। नागरिकों द्वारा चुनी गई सरकारें यदि धर्म के आधार पर चलने लगेंगी तो देश की अखंडता को ख़तरा भी इन्हीं चुनी हुई सरकारों से होगा। इसलिए जब भी ऐसा हो, संविधान को बचाने के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त तरीकों व शक्तियों से ऐसी सरकारों को बदल देना चाहिए ताकि आने वाली सरकारों को सबक व रास्ता दोनों आसानी से मिल जाए।