भारत और चीन के बीच पहले भी तनावपूर्ण संबंध रहे हैं पर इस बार ऐसा क्या हो गया कि शांत रहे लद्दाख में चीनी सेनाएं घुस आईं जिन जगहों पर भारत का नियंत्रण हमेशा ही रहा है, वहाँ भी चीन अपना दावा क्यों कर रहा है आख़िर क्या हो गया कि जिन इलाक़ों तक गश्त लगा कर चीनी सैनिक वापस लौट जाते थे, इस बार जम ही नहीं गए बल्कि अपना साजो सामान भी वहाँ जमा कर लिया
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र ग्लोबल टाइम्स में छपे एक लेख पर नज़र डालने से कुछ बातें साफ़ हो जाती हैं। इसमें छपी सामग्री को चीनी प्रतिष्ठान की नीति माना जाता है।
इस अख़बार के अनुसार 'नरेंद्र मोदी के दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद से चीन को लेकर भारत का रवैया बदल गया है'
क्या सचमुच
ग्लोबल टाइम्स ने भारत के रवैए में बदलाव को क्वाडिलैटरल स्ट्रैटेजिक डॉयलॉग यानी क्वैड और अमेरिका की हिंद-प्रशांत क्षेत्र नीति से जोड़ कर देखा है।
क्या वास्तव में ऐसा है पहले हम समझते हैं कि 'क्वैड' क्या है
क्वाडिलैटरल स्ट्रैटेजिक डॉयलॉग
'क्वैड' एक सामरिक- रणनीतिक गठबंधन है, जिसके सदस्य जापान, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और भारत हैं। इसका साफ़ मक़सद दक्षिण चीन सागर में बीजिंग के बढ़ते प्रभाव को रोकना है। उस इलाके़ पर नज़र डालने से साफ़ दिखता है कि प्रशांत महासागर के एक छोटे से ही सही लेकिन चीन के पास के इलाक़े में अमेरिका अपना दबदबा कायम कर सकता है।इसे इससे समझा जा सकता है कि इंडोनेशिया और ऑस्ट्रेलिया के बीच स्थित तिमोर सागर से सटे ऑस्ट्रेलियाई बंदरगाह डार्विन पर अमेरिकी नौसेना के पोत को ठहरने की इजाज़त दे दी गई।
डार्विन में यदि कोई अमेरिकी पोत रहे तो चीन के लिए साफ़ तौर पर ख़तरे की घंटी है क्योंकि ज़रूरत पड़ने पर अमेरिकी सैनिक डार्विन से उड़ान भर कर कुछ मिनटों में दक्षिण चीन सागर के चीनी बंदरगाहों तक पहुँच सकते हैं।
क्वैड को ख़ुद अमेरिकी संस्थान 'एशियन नैटो' कहने लगे हैं। यह अकारण इसलिए भी नहीं है कि क्वैड देशों की नौसेना इस इलाक़े में हर साल 'मालाबार' नामक नौसेना अभ्यास करती है। 2017-2019 के बीच क्वैड के नेताओं की अलग-अलग कारणों से 5 बार बैठकें हुई हैं।
ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है, 'भारत ने क्वैड के साथ अपनी साझेदारी मंत्री स्तर तक बढ़ा ली है।'
हिंद-प्रशांत रणनीति
अब हम अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति पर विचार करते हैं। इसके तहत पूरे हिंद महासागर और प्रशांत महासागर में जगह-जगह अमेरिकी नौसेना के अड्डे पहले से ही है। चीन के पास ही जापान में नौसैनिक अड्डे पहले से है। इसके अलावा गुआम से लेकर डिएगो गार्सिया तक अमेरिकी नौसैनिक अड्डे हैं।इसमें नया कुछ नहीं है। नयी है भारत की भागेदारी और दिलचस्पी, जिससे चीन डरा हुआ है। अमेरिका खुल कर हिंद- प्रशांत रणनीति में भारत की हिस्सेदारी की बात करता है और भारत भी इसमें बढ़ चढ़ कर दिलचस्पी ले रहा है। अमेरिका जब भारत के साथ स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप को बढ़ाने की बात करता है तो उसका मकसद सबसे पहले इस इलाक़े में भारत को किसी न किसी बहाने उलझाने और कही न कहीं तैनात करने की योजना है।
ट्रंप की भारत यात्रा
इसे डोनल्ड ट्रंप की 24-25 फरवरी की भारत यात्रा से जोड़ कर देखा जा सकता है। इस यात्रा के दौरान भारत-अमेरिका में कोई समझौता नहीं हुआ, भारत को किसी तरह की व्यापारिक छूट नहीं मिली, जाते-जाते ट्रंप कह गए कि भारत को अमेरिका के साथ व्यापार में रियायतें देनी होंगी, व्यापार संतुलन ठीक करना होगा। इसके कुछ हफ़्तों बाद ही ट्रंप ने भारत को धमकाया कि हाइड्रॉक्सिक्लोरोक्विन की दवा नहीं दी तो भारत के ख़िलाफ़ वे बदले की कार्रवाई करेंगे।लेकिन इसके बावजूद उस यात्रा के दौरान ट्रंप ने रणनीतिक साझेदारी की बात कही। उनके कहने का अर्थ यह था कि भारत अमेरिका का सामरिक साझेदार बन जाएगा, दोनों देश सैनिक स्तर पर एक दूसरे की मदद करेंगे।
सामरिक समीकरण
बता दें कि नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन यानी नैटो के सैनिक संगठन के बाहर जो अमेरिका के सामरिक साझेदार हैं, वे इस समग्र रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय साझेदार स्तर के ही हैं। यह एक खास किस्म का सैनिक समझौता होता है जिसमें दोनों देशों के बीच रक्षा उपकरणों की आपूर्ति से लेकर ख़ुफ़िया जानकारी को साझा करने से लेकर ज़रूरत पड़ने पर सैनिक मदद करने तक की बातें शामिल होती हैं।
चीन का मानना है कि ट्रंप की इस यात्रा का मक़सद भारत से रणनीतिक व सामरिक साझेदारी बढ़ाना है और उसका मक़सद चीन को रोकने की कोशिश है। चीन को रोकने की अमेरिकी साजिश में भारत जानबूझ कर शामिल हो रहा है।
अखबार लिखता है, 'ट्रंप की योजना पर भारत का सकारात्मक जवाब आश्चर्यजनक नहीं है। लंबे समय से भारत की इच्छा अंतरराष्ट्रीय क्लबों की अगुआई करने की रही है। कई भारतीय रणनीतिकारों ने सलाह दी है कि चीन पर दबाव डालने के लिए भारत को अमेरिका के नज़दीक जाना चाहिए।'
ट्रंप का भारत दौरा चीन को नागवार गुजरा है और वह इससे परेशान भी है। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा है,
“
'फरवरी में ट्रंप के दौरे के समय भारत और अमेरिका ने कहा कि रिश्तों को समग्र अंतरराष्ट्रीय रणनीतिक साझेदारी स्तर तक ले जाएंगे। इसका मतलब यह है कि भारत अमेरिका के हिंद-प्रशांत रणनीति में सहयोग करने को तैयार है। इसके बदले में अमेरिका भारत को बड़ी ताक़त बनने और दूसरी योजनाओं में मदद करेगा।'
ग्लोबल टाइम्स में छपे एक लेख का अंश
भारत-अमेरिका रिश्तों का गठजोड़ चीन को रोकने के लिए है, ऐसा बीजिंग का मानना है। ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, इसकी पूरी संभावना है कि 'क्षेत्रीय स्वायत्तता बनाए रखने के दावों के बावजूद चीन को रोकने के लिए भारत अमेरिका के साथ आ खड़ा होगा।'
बीजिंग यह मानता है कि भारत में चीन को लेकर परेशानी बढ़ती जा रही है क्योंकि भारत की रणनीति और नीति तय करने का काम उन लोगों के हाथों में है जो चीन के प्रति नकारात्मक भाव रखते हैं।
जी-7 का पेच
इसी परिप्रेक्ष्य में ग्लोबल टाइम्स जी-7 में भारत को शामिल करने की अमेरिकी पेशकश को भी देखता है।
चीन ने जी-7 में शामिल होने के मुद्दे पर भारत को चेतावनी देते हुए कहा है कि वह आग में घी डालने का काम न करे।
बता दें कि जी-7 के मौजूदा अध्यक्ष अमेरिका के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने इस समूह के विस्तार की ज़रूरत पर ज़ोर दिया है। उन्होंने इसमें भारत को शामिल करने का संकेत दिया है और इसकी अगली बैठक में शामिल होने का न्योता भारत को दिया।
जी-7 दुनिया के सात विकसित देशों का संगठन है। इसके सदस्य अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, इटली, कनाडा, जापान और जर्मनी है। इनमें से कई देशों से बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद चीन इसमें नहीं है।
अख़बार के मुताबिक, 'भारत को जी-7 का सदस्य बनाने की कोशिश सिर्फ इसलिए नहीं की जा रही है कि यह दुनिया की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि यह देश अमेरिका की भारत-प्रशांत रणनीति का मजबूत स्तंभ है।'
काल्पनिक शत्रु है चीन
ग्लोबल टाइम्स ने लिखा, 'यदि भारत उस छोटे समूह के साथ जुड़ गया, जिसके लोग चीन को काल्पनिक शत्रु मानते हैं, तो यह भारत के हित में नहीं होगा।'
यानी, चीन एक आर्थिक मुद्दे को भी राजनीतिक व रणनीतिक नज़रिए से देखता है और उसे अपने ख़िलाफ़ साजिश का हिस्सा मानता है।
बातें बहुत ही साफ़ है, चीन ने एक तरह से भारत को साफ चेतावनी दे दी है कि वह उसे अपना शत्रु न माने, ऐसा मानना खुद उसके हित में नहीं। दूसरा, भारत चीन को रोकने की कोशिश न करे, तीसरा भारत अमेरिका का पिछलग्गू न बने।
तो क्या चीन ने लद्दाख में सेनाएं भेज कर भारत को चेतावनी दे दी है कि वह अमेरिका के साथ मिल कर उसके ख़िलाफ़ गोलबंदी न करे
इसे समझने के लिए इस पूरे लद्दाख संकट के दौरान अमेरिकी प्रतिक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं।
लद्दाख संकट पर अमेरिकी प्रतिक्रिया
राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप ने भारत और चीन के बीच मध्यस्थता करने की पेशकश कर दी, जिसे दोनों ही देशों ने अलग अलग खारिज कर दिया।इसके बाद अमेरिका के हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव यानी लोकसभा की विदेश मामलों की समिति के अध्यक्ष ने भारत पर 'चीन के हमले' ('चाइनीज़ अग्रेसन') पर चिंता जताई और बीजिंग से तुरन्त सेनाएं वापस बुलाने की माँग की।
दिलचस्प बात यह है कि हमले की बात तो भारत ने भी नहीं की। भारत में किसी मंत्री, यहाँ तक कि बड़बोलेपन के शिकार बीजेपी प्रवक्ताओं और ग़ैरज़िम्मेदार मीडिया ने भी यह नहीं कहा कि चीन ने भारत पर हमला कर दिया है।
पर अमेरिकी संसद ने ऐसा मान लिया कि चीन ने भारत पर हमला किया है।
रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अधिक परिपक्वता का परिचय दिया और इतना ही कहा कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर 'अच्छी तादाद' में चीनी सैनिक जमे हुए हैं।
अमेरिका की दिलचस्पी
अमेरिका की हड़बड़ी और ज़रूरत से तेज़ प्रतिक्रिया, भारत से किसी मदद की माँग के बग़ैर ही भरोसा देना उसकी दिलचस्पी दिखाता है। साफ़ लगता है कि अमेरिका जानबूझ कर लद्दाख में मामले को भड़कता हुआ देखना चाहता है।भारत और चीन के बीच 2017 का डोकलाम संकट तीन महीने तक बना रहा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ बातचीत के बाद ही चीनी सैनिक वापस हुए थे।
ग्लोबल टाइम्स के अनुसार, 'सिर्फ सामाजिक स्तर पर बातचीत से दोनों देशों के रिश्तों में सुधार नहीं होगा, इसके लिए राजनेताओं को कोशिश करनी होगी।'
इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री या इसी तरह किसी उच्च स्तर पर बातचीत के बाद ही इस बार भी चीनी सैनिक लौटेंगे
यदि ऐसा होता है तो यह साफ़ है कि चीनी सेना का घुसना सामरिक ही नहीं, राजनीतिक निहितार्थ रखता है। चीन साफ कहना चाहता है, भारत उन लोगों का पिछलग्गू न बने, जो उसे 'काल्पनिक शत्रु' मानते हैं। बातचीत का नतीजा जो हो, पीपल्स लिबरेशन आर्मी अपने मक़सद में कामयाब है, उसने संकेत दे दिया।