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क्या गणतंत्र के ऐसा बन जाने का सपना देखा था आंबेडकर ने?

क्या गणतंत्र के ऐसा बन जाने का सपना देखा था आंबेडकर ने?

भारत गणतंत्र दिवस मना रहा है लेकिन क्या डॉ. आंबेडकर के सपने का गणतंत्र हम बना पाए? क्या सामाजिक और आर्थिक असमानता मिल पाई? कहीं संविधान के आदर्श ही तो ख़तरे में नहीं?

75 साल पहले 1950 में, आज ही के दिन, 26 जनवरी को भारत ने अपना संविधान पूरी तरह से अंगीकार किया था। आज ही के दिन के बाद से भारत ‘रिपब्लिक’ अर्थात् गणतंत्र कहलाने लगा। इसका अर्थ यह था कि भारत में ‘क़ानून का शासन’ होगा और यह देश संविधान के आदर्शों के आधार पर ही चलेगा। कम से कम सैद्धांतिक रूप से तो यही तय किया गया था। 

26 जनवरी का दिन चुने जाने का ऐतिहासिक महत्व यह था कि इसी दिन 1930 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता वाले लाहौर अधिवेशन में कांग्रेस ने ‘पूर्ण स्वराज’ की घोषणा कर दी थी। साथ ही यह भी तय किया गया था कि इस दिन को हर साल ‘स्वतंत्रता दिवस’ के रूप में मनाया जायेगा। पूर्ण स्वराज की घोषणा का कारण अंग्रेजों का दुर्व्यवहार था, वे लोग भारतीयों से बराबरी का व्यवहार नहीं करते थे और न ही उन्हें संविधान/विधान बनाने में बराबर का सहयोगी मानते थे। उन्होंने पहले साइमन कमीशन (1927) का गठन किया और उसके बाद नेहरू रिपोर्ट (1928) को ख़ारिज कर दिया। इन दो बड़ी घटनाओं के बाद कांग्रेस ने अपना रूख तय कर लिया था, कांग्रेस ने सोच लिया था कि इस देश को अब सिर्फ़ ‘पूरा स्वराज’ ही चाहिए इससे कम पर कुछ भी नहीं स्वीकार किया जायेगा, कांग्रेस ने तय कर लिया था कि अब इस देश का संचालन इसी देश के नागरिकों द्वारा बनाये गए संविधान से ही होगा, न कि इंग्लैंड में बैठी ब्रिटिश सत्ता और संसद से।

26 जनवरी, 1950 को अंगीकृत किया गया संविधान, भारत में ‘क़ानून के शासन’ की घोषणा तो था ही; साथ ही इसे अलग दिन के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया जाना इस बात का भी प्रतीक था कि दो शताब्दियों तक भारत और इसके नागरिकों का शोषण करने वाली ब्रिटिश सत्ता यह जान ले कि शोषण भारत की नियति नहीं है, भारत में हर नागरिक समान है, भारत में राजा और राजशाही नागरिकों से ऊपर नहीं है और यह भी कि भारत में अब से नागरिकों को संविधान और क़ानून की नज़र से देखा जाएगा न कि किसी की ‘प्रजा’ के रूप में।

यह सच है कि भले ही ‘गणतंत्र दिवस’ (26 जनवरी) स्वतंत्रता (15 अगस्त) का ही परिणाम था लेकिन जहाँ स्वतंत्रता औपनिवेशिक सत्ता से आज़ादी का प्रतीक है वहीं गणतंत्र भारत को एक ऐसे देश के रूप में स्थापित करता है जहाँ शक्ति ‘लोगों’ के पास निहित है। एक गणतंत्र के रूप में भारत एक साथ कई आज़ादियों का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे- जातीय शोषण से आज़ादी, धार्मिक आज़ादी, आर्थिक और व्यक्तिगत आज़ादी। भारतीय गणतंत्र, न्याय और समानता की स्थापना करने के लिए सम्पूर्ण संविधान को भारत के लोगों को समर्पित करता है।

लेकिन ऐसा भी नहीं था कि संविधान बनाने और गणतंत्र घोषित किए जाने के तुरंत बाद भारत रातों-रात बदल जाने वाला था। संविधान ने प्रतिबद्धता जाहिर की थी, सुरक्षात्मक उपाय किए थे लेकिन असली चुनौती इसे लागू करने वालों पर थी जो पूरे देश में फैले हुए थे, जिनके विचारों और चरित्रों में आवश्यक रूप से ‘गणतंत्रात्मक’ परिवर्तन नहीं आया था। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर को भी इसी बात का डर था। 26 जनवरी 1950 से लगभग एक महीने पहले, संविधान सभा के आख़िरी दिन ड्राफ्टिंग कमेटी के अध्यक्ष डॉ. बी आर आंबेडकर ने अपने समापन भाषण में इसी गहरी चिंता को संबोधित किया और कहा कि

26 जनवरी 1950 को, हम विरोधाभासों से भरे जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी, लेकिन सामाजिक और आर्थिक जीवन में हमारे पास असमानता होगी।


डॉ. बी. आर. आंबेडकर

डॉ. आंबेडकर की चिंता जायज़ थी और आज भी है। लेकिन आज इसमें एक और आयाम जुड़ गया है वह है राजनीति में भी असमानता, आज उनके विचारों के उलट भारतीय राजनीति में भी समानता नहीं रह गई है। आज हमारा भारत नेहरू का भारत नहीं जिसमें आंबेडकर यह बातें कर रहे थे। यह 2025 का भारत है जहाँ नेहरू सत्ता में नहीं हैं आज उनके विचारों के और उनके ‘विरोधी’ सत्ता में हैं।

 - Satya Hindi

इसलिए मैं मानती हूँ कि 26 जनवरी 2025 को होने वाली ऐतिहासिक परेड, भारतीय सैन्य शक्ति का प्रदर्शन, विदेशी मेहमान और गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर महामहिम राष्ट्रपति का राष्ट्र के नाम संबोधन आदि के अतिरिक्त भी ऐसी तमाम बातें हैं जिन पर नजर डालना, चिंता करना और लोगों को जागरूक करना बहुत ज़रूरी है। भारतीय गणतंत्र का अस्तित्व क़ानून के शासन, क़ानून के समक्ष समता, प्रतिनिधियों के माध्यम से जनता के शासन और संविधान की सर्वोच्चता पर टिका हुआ है। गणतंत्र को सहारा देने वाले ये सभी स्तंभ आज बेहद कमजोर हो गए हैं। इन संस्थाओं में बैठे लोग संविधान का पालन करते वक़्त कमज़ोरी दिखा रहे हैं।

भारत जैसे संसदीय लोकतंत्रात्मक गणराज्य में जहाँ विधायी प्रतिनिधित्व के बिना न्यायप्रिय शासन संभव ही नहीं है वहाँ यदि विधायिका में पहुँचने की प्रक्रिया को ही मलिन और दूषित किया जाने लगे तब चिंता और सतर्कता बहुत ज़रूरी हो जाती है। आज भारत के निर्वाचन आयोग की निष्पक्षता पर लगातार सवाल उठ रहे हैं, उससे उसकी निष्पक्षता का सवाल पूछा जा रहा है; पर इस सवाल का जवाब आयोग नहीं दे रहा है बल्कि वह भ्रमित कर रहा है, अविश्वास की लकीरों को और गाढ़ा कर रहा है। जिसे उसकी निष्पक्षता का सर्टिफिकेट नहीं देना चाहिए वह है सत्तापक्ष पर वह निर्वाचन आयोग को निष्पक्षता का सर्टिफिकेट बाँटकर विपक्ष की चिंताओं को और नागरिकों के बीच अविश्वास को और बढ़ाते जा रहे हैं। 

अक्टूबर 2024 में शिवसेना नेता संजय राउत ने महाराष्ट्र और झारखंड में वोटिंग लिस्ट में किए जा रहे फेरबदल को लेकर सवाल उठाया था, अब दिल्ली चुनाव से पहले केजरीवाल सवाल उठा रहे हैं कि ‘वृहद स्तर’ पर टारगेट करके लोगों के वोट काटे जा रहे हैं, इससे बीजेपी को फ़ायदा होगा। बीजेपी और निर्वाचन आयोग दोनों ही इस आरोप का खंडन कर रहे हैं। लेकिन यह बात किसी से नहीं छिपी है कि बीजेपी अपने चुनावी हित के लिए किसी भी हद तक जा सकती है। चंडीगढ़ के मेयर चुनाव का उदाहरण गणतंत्र पर धब्बा है उसका उदाहरण सबने देखा। रिटर्निंग ऑफिसर अनिल मसीह ने कैमरे के सामने बेहद दुस्साहस और शर्मनाक व्यवहार करके वोटों की गलत गिनती की, विजयी किसी ऐसे को घोषित किया जो असल में हरा दिया गया था, यह ‘लोगों की ताकत’ और लोकतंत्र का मजाक था, और यह भारतीय गणतंत्र के इतिहास में एक मिसाल ही है। इस ‘खरीद-फरोख्त को लेकर बेहद चिंतित’ सुप्रीम कोर्ट इतना अधिक नाराज़ हुआ कि उसने मसीह को सजा देने की बात कही। पर अनिल मसीह पिछले दस सालों से चंडीगढ़ में बीजेपी के महत्वपूर्ण सदस्य हैं जोकि पार्टी की हर जरूरी मीटिंग और गतिविधियों में शामिल रहते हैं। जब हरियाणा चुनावों को लेकर निर्वाचन आयोग पर सवाल उठे, उच्च न्यायालय ने सभी दस्तावेजों को सौंपने की बात कही, तो यह सुनकर रातोंरात मोदी सरकार ने इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज ना देने के लिए नियमों को ही बदल डाला।

दो दिन पहले उत्तराखंड निकाय चुनावों में भी मतदाता सूची की गड़बड़ियाँ पायी गईं। सवाल यह है कि कौन भरोसा करेगा कि चुनाव निष्पक्ष हो रहे हैं? पारदर्शिता, निष्पक्षता की सबसे जरूरी शर्त है जिसे पूरा करने में भारतीय निर्वाचन आयोग विफल रहा है। आयोग की पारदर्शिता का स्तर यह है कि लोकसभा चुनावों के बाद और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के पहले महाराष्ट्र में लगभग 5 लाख 50 हज़ार मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए। मतलब जिन साढ़े पाँच लाख लोगों ने लोकसभा चुनावों में मतदान किया था उन्हें विधानसभा चुनावों में मतदान के लायक़ नहीं समझा गया। चुनाव परिणाम भी ऐसा आया कि आयोग पर सवाल उठना ज़रूरी हो गया। लेकिन भारतीय निर्वाचन आयोग आरोपों को नकार कर सफल हो जा रहा है उसकी सफलता सिर्फ़ आरोपों को नकारने में है, उन्हें संबोधित करने के नाम पर उसमें कोई अजीब सा ‘शायर’ जाग जाता है जबकि निर्वाचन आयोग को शक्ति प्रदान करने वाला अनुच्छेद-324 जिम्मेदारी और अधिकार की बात करता है और इन्हीं आधारों पर आयोग को आंका जाता है, न कि उसकी शायरी बोलने की प्रतिभा पर। सत्ता पक्ष के अतिरिक्त लगभग सभी दल जो विपक्ष में हैं इस बात को लेकर चिंता में हैं कि निर्वाचन आयोग ईमानदारी से अपना काम नहीं कर रहा है।

आज 26 जनवरी है लेकिन मुझे अफ़सोस और दुख के साथ कहना होगा कि ‘गणतंत्र’ ख़तरे में है। संस्थाओं को सशक्त बनाकर भी राजनैतिक जीवन में समानता नहीं लायी जा सकी। सामाजिक और आर्थिक जीवन को लेकर तब डॉ. आंबेडकर द्वारा जाहिर की गई चिंता आज भी उतनी ही बनी हुई है।

मध्यप्रदेश के छतरपुर का उदाहरण देखिए- यहाँ के एक गाँव में 20 परिवारों का सामाजिक बहिष्कार किया गया वह भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि इन परिवारों ने एक दलित के हाथ से प्रसाद ले लिया था। गाँव के सरपंच के आदेश से यह कुकृत्य किया गया। बहुत दुख और लज्जा की बात यह है कि अधिकारी सुलह करवाने में लगे हुए हैं जिससे लोगों की नाराज़गी कम हो जाए। संविधान का अनुच्छेद-17 ‘अस्पृश्यता के अंत’ की घोषणा कर चुका है। यह न सिर्फ़ असंवैधानिक है बल्कि इसके ख़िलाफ़ शासन के उच्चतम स्तर से कार्यवाही होनी चाहिए।

उन लोगों को बाहर आना चाहिए जिन्हें लगता है कि अब आरक्षण की ज़रूरत नहीं या वे लोग बाहर आयें जिन्हें लगता है कि आरक्षण आर्थिक होना चाहिए। लोगों को अपने समाज की असलियत से सामना करना चाहिए जिसमें जातीय घृणा स्थायी घर बना चुकी है। यह आर्थिक स्थिति बदलने से नहीं, सोच बदलने से जाएगी। आंबेडकर यहाँ भी सही थे कि यदि राजनैतिक समानता आ भी गई तब भी कुछ नहीं होगा। जाति ही जीतेगी, और यह यथार्थ है। इलाहाबाद (प्रयागराज) का ही मामला देखिए जहाँ इन दिनों धर्म का महाकुंभ चल रहा है। यहाँ उत्तर प्रदेश बीजेपी के अनुसूचित जाति मोर्चा के कोषाध्यक्ष को थाने में खूब पीटा गया। सत्ताधारी दल बीजेपी के तथाकथित मजबूत और प्रभावशाली नेतृत्व में भी यह साहस नहीं कि इस घटना को होने से पहले रोक पाते! ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि जातीय सर्वोच्चता लोगों के बड़े हिस्से के डीएनए में समाहित हो चुकी है। 

राजनैतिक लामबंदी के दौर में इस भेदभाव को ख़त्म करना बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। पिछड़ा हो या अतिपिछड़ा या फिर दलित और आदिवासी सभी चुनावी जातीय समीकरण बन चुके हैं। इस समीकरण ने भी उनकी सामाजिक स्थिति को मज़बूत नहीं बनाया है। आज भी राजस्थान में दलित दूल्हे को घोड़ी चढ़वाने के लिए पूरा प्रशासन लग गया, बाराती से ज़्यादा पुलिसवाले शामिल थे, इतने पहरों के बाद दूल्हे को घोड़ी पर बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह यथार्थ है, 75 सालों से जारी गणतंत्र के बाद भी यह सब बदला नहीं जा सका है। तमाम अन्य मामलों में उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत हो सकता है लेकिन जब बात वंचितों और कमज़ोरों के शोषण की आती है तो पूरा भारत एक हो जाता है। तमिलनाडु की एक घटना पर गौर किया जाना चाहिए, यहाँ 17 साल के एक दलित लड़के को 6 लोगों ने घुटनों पर बिठाकर न सिर्फ़ माफ़ी मँगवाई बल्कि उसे जातिसूचक गालियाँ भी दीं।

गणतंत्र दिवस भारतीय संविधान की वर्षगाँठ है और इसे संविधान के आदर्शों की हत्या करके बरक़रार नहीं रखा जा सकता है।

जिस तरह भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने अपने पद पर रहते हुए भारत के पीएम नरेंद्र मोदी को गणेश पूजन के लिए आमंत्रित किया, पीएम चले भी गए, यह न्याय को आग से फूंकने का काम है। जिस तरह इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश विश्व हिंदू परिषद के कार्यक्रम में शामिल हुए और  मुस्लिमों के बारे में टिप्पणियाँ कीं और बहुसंख्यक शासन व्यवस्था और नीति निर्माण की वकालत किए, जिस तरह कर्नाटक हाई कोर्ट के दो जज, जस्टिस कृष्ण दीक्षित और जस्टिस श्रीशानंद ब्राह्मण सम्मेलन में भाग लेने चले गए और धर्मशास्त्र पर बोलने लगे, यह न्याय को ही फूंकने का काम है। जज और सामाजिक/राजनैतिक कार्यकर्ता में अन्तर करना भूल रहे इन लोगों को न्यायपालिका में होना ही नहीं चाहिए था। यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि संविधान को मलिन करने के लिए संविधान द्वारा प्रदत्त पदों पर बैठे लोग ही सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। कोई जातीय सम्मेलन में भाग ले रहा है तो कोई धार्मिक! 

सवाल ये है कि क्या संवैधानिक सम्मेलन उनके रिटायरमेंट के बाद के ऐशो-आराम की व्यवस्था नहीं कर पाएगा? क्या उन्हें यह नहीं समझना चाहिए कि यह संविधान के साथ, इसे बनाने वालों के साथ, इसके लिए संघर्ष करने वालों के साथ धोखा है। डॉ. आंबेडकर कहा करते थे कि “हम सबसे पहले और अंत में भी भारतीय हैं”। जब तक यह पहचान आखिरी पहचान नहीं होगी, तब तक अपने निजी लाभ के लिए भारत खेमों में बंटता रहेगा। जब तक जातीय गौरव और धार्मिक उन्माद आगे बढ़कर मानवीयता का नेतृत्व करता रहेगा, तब तक भारत का गणतंत्रात्मक स्वरूप ख़तरे में बना रहेगा, यह स्थायी नहीं हो पाएगा। गणतंत्र का अर्थ संविधान से है। संविधान का क्षय ही गणतंत्र का क्षय है।

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