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पिछले पाँच सालों में लोकतांत्रिक आत्मा को क्षत-विक्षत किया गया है

पिछले पाँच सालों में लोकतांत्रिक आत्मा को क्षत-विक्षत किया गया है

हमारा लोकतंत्र अतीत की तरफ़ ज्यादा लपक रहा,  इसलिए हमें यह सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में हम क्या खो रहे हैं?

पिछले कुछ सालों में जो उम्मीद बंधाई गई थी कि भारत एक संरचनात्मक बदलाव की तरफ बढ़ रहा है, एक आशातीत विकास की तरफ बढ़ रहा है, रोज़गार में बढ़ोतरी होगी, वे सारी उम्मीदें निराशा में बदल रही हैं। ऐसे में आने वाले चुनाव से लोगों की उम्मीदें बहुत कम हो गई हैं। ऐसा क्यों हो रहा है मैं यह बात साफ़ करना चाहता हूँ कि हमारे लोकतंत्र के साथ कुछ हो रहा है जो हमारी लोकतांत्रिक अंतरात्मा को विक्षिप्त कर रहा है। हम एक आक्रोशित हृदय, क्षुद्र मानस और संकुचित मन वाला देश बनते जा रहे हैं। कई मायनों में लोकतंत्र उत्साह, विरलता, स्वतंत्रता और उत्सव का मंच होना चाहिए।

इससे फ़र्क नहीं पड़ता कि हम क्या थे फ़र्क इससे पड़ता है कि हम क्या होना चाहते हैं।  लेकिन हमारा लोकतंत्र अतीत की तरफ़ ज्यादा लपक रहा, इसलिए हमें यह सोचना चाहिए कि लोकतंत्र में हम क्या खो रहे हैं

राष्ट्र हमारे हाथों से फिसल रहा 

आइए मैं आपसे सवाल करता हूँ। इस कमरे में मौजूद कितने लोग मानते हैं कि वे राष्ट्रवादी हैं ऐसा जो लोग मानते हैं वो हाथ उठाएँ। जिन  लोगों ने हाथ उठाए हैं क्या वे बता सकते हैं कि उनमे से कितनों के पास राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र है। यानी 

पिछले कुछ सालों में हमसे हमारा राष्ट्रवाद छीन लिया गया है। बजाय इसके कि हम सब लोगों को राष्ट्रवादी माना जाता, हमें यह साबित करना पड़ रहा है कि हम राष्ट्रवादी हैं या नहीं।

राष्ट्रवाद के इस युग में यह कितना बडा विरोधाभास है कि राष्ट्रवाद जिसे सबको जोड़ना चाहिए, वह हमें बाँट रहा है। यानी राष्ट्रवादी कुछ भी कहें राष्ट्र हमारे हाथ से फिसल गया है।

सवाल मत करिए! 

आइए, अब सब सत्य की चर्चा करते हैं, जिसे हम बहुत संभाल कर रखते हैं। यह सच है कि हर समाज में प्रोपेगेंडा होता है, झूठ फैलाया जाता है और सच को ढंका जाता है । हर सरकार सच और झूठ को अपने हिसाब से बदलने की कोशिश करती है।

हर सरकार माहौल को अपने अनुरूप करने का प्रयास करती है। लेकिन, क्या पिछले बीस सालों में आपने किसी क्षण ऐसा महसूस किया है सरकारों का मक़सद ज्ञान का उत्पादन सच की तलाश न होकर कुछ लिजलिजा पैदा करने की कोशिश की जा रही है, जो पूरे समाज को एक साथ सोचने से महरूम कर रहा है। यह झूठ का मामला नहीं है; यह प्रोपेगेंडा की बात नहीं है; यह बात है सोचने पर रोक लगाने की, कि आप सवाल मत करिए; सवाल करेंगे तो राष्ट्रद्रोही हो जाएंगे। यानी राष्ट्र गया और सत्य भी चला गया।

स्वतंत्रता छीन ली गई है  

आइए, अब बात करते हैं लोकतंत्र के बुनियादी मूल्य की यानी ‘स्वतंत्रता’ की। आप सब लोगों को मालूम है कि आनंद तिलतुमड़े और सुधा भारद्वाज जेल में हैं क्योंकि ये लोग समाज में हाशिए पर मौजूद लोगों की सेवा कर रहे थे। यह सच है कि इस देश में किसी भी सरकार ने नागरिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देने की कोशिश नहीं की है। किसी भी सरकार ने यह प्रयास भी नहीं किया है कि देशद्रोह का क़ानून बदले। 

आज भी विपक्ष को इस बात के लिए प्रेरित नहीं कर सकते कि सब देशद्रोह के क़ानून को ख़त्म करने और संविधान की धारा 295 में बदलाव करने के लिए बनने वाले किसी कार्यक्रम पर हस्ताक्षर करें। लोकतंत्र में बोलना ख़तरनाक हो गया है यानी स्वतंत्रता भी हमसे छीन ली गई है। राष्ट्र गया, सत्य गया और स्वतंत्रता भी चली गई।

लोकतंत्र में प्रेस की स्वतंत्रता को 'चौथा खंभा' कहा जाता है। 19वीं शताब्दी में एक व्यंगकार थे मौरिस जौली। जिन्होंने यह कल्पना की थी कि आधुनिक समाज में एक लोकतांत्रिक लोकलुभावनकारी सरकार किस तरीके का प्रेस चाहेगी

मैं सिर्फ़ कुछ विवरण दे रहा हूँ और फिर, आप यह सोचें कि यह किसके बारे में है। नेपोलियन तृतीय ने ये सोचा था कि वह सारे लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं और उन्हें जनता के प्रतिनिधियों की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि वह ख़ुद सबके प्रतिनिधि हैं। वह कहता है “मेरा ये सोचना है कि प्रेस अपने आप को पूरी तरह से उदासीन कर ले।

पत्रकारिता बहुत शक्तिशाली है। क्या आपको मालूम है कि सरकार क्या करेगी सरकार आप जैसी ही हो जाएगी यानी सरकार ख़ुद पत्रकारिता जैसी हो जाएगी यानी पत्रकार बन जाएगी। भगवान विष्णु की तरह प्रेस के सौ हाथ होंगे और ये हाथ सब तरह के विचारों को प्रतिबिम्बित करेंगे। जो यह सोचते हैं कि वे अपनी ज़ुबान बोलेंगे, वह भी हमारी भाषा में बोलने लगेगें और जो लोग यह सोचते हैं कि वे अपने विचारों को आगे बढ़ायेंगे, वे भी हमारे ही विचारों को प्रतिपादित करेंगे।

बाहरी हो या अंदरूनी, सभी नीतियां, मैं अपनी इच्छा से तय करूँगा और ये भी तय करूँगा कि क्या कहना है और क्या नहीं मैं लोगों के दिमाग को अपने हिसाब से जगाऊँगा और अपने हिसाब से सुला दूँगा। मैं उन्हें भरोसा भी दिलाउँगा और उन्हें कन्फ़्यूज़ भी करूँगा। मैं ही सच और झूठ के पक्ष या विपक्ष में बोलूँगा।” मेरी बात क्या आपको कुछ याद दिलाती है.. वो महत्यावाकांक्षा।यानी प्रेस की स्वतंत्रता भी चली गई।

 धर्म के आधार पर बना रहे निशाना 

यह जो कुप्रचार किया जा रहा है कि आधुनिक भारत, सेक्युलर भारत में हमारे पारंपरिक मूल्यों को ख़त्म कर दिया गया है। (मेरा सोचना है कि वही लोग हाशिए पर चले गए हैं जिनको भारतीय पंरपरा में विश्वास नहीं है।)

मैं गंभीरता के साथ यह बात कहना चाहता हूँ कि हम लोग एक ऐसे मक़ाम पर हैं, जहां आधुनिक भारत में धर्म नाम के विचार में बुनियादी बदलाव होने को है।

यह काम तीन स्तरों पर हो रहा है। पहला, राजनीतिक स्वार्थ के लिए धर्म का इस्तेमाल हो रहा है जहाँ धर्म के सबसे नामचीन चेहरे सत्ता को नमस्कार करते हैं। वह, सिर्फ एक ही नश्वर ईश्वर बचा है। दो, भगवान की रक्षा करना हमारा काम है न कि हमारी रक्षा करना भगवान का काम। तीन, सारे धार्मिक विचारों को एकरूप सत्ता प्रतिष्ठान में स्थापित करना । धर्म जो हमारी पहचान से ऊपर उठकर हमें एक नई पहचान देता है, अब उसी धर्म के आधार पर हमारी पहचान कर हमें निशाना बनाया जा रहा है यानी धर्म भी हमारे हाथ से निकल गया। राष्ट्र गया, सत्य गया, स्वतंत्रता गई, प्रेस गया और अब धर्म भी गया।

राष्ट्र की आत्मा को विक्षत कर दिया है 

सभ्यता क्या है समाज कई मायनों में असभ्य होता है। समाज में सभ्यता के मानदंड सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग स्थापित करते हैं। सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों का एकमात्र काम है यह संकेत देना कि क्या कहा जा सकता है, और क्या नहीं कहा जा सकता है। लेकिन जब सत्ता का शीर्ष ही जब धमकी दें, तंग करें और इस कमरे में बैठे हुए लोगों को राष्ट्र विरोधी घोषित करें तो सभ्यता के नाम पर क्या बचता है

अगर आप पिछले पांच साल का रिपोर्ट कार्ड तैयार करेंगे तो सबसे महत्वपूर्ण चीज यह लिखी जाएगी कि राष्ट्र की आत्मा को विक्षत किया गया है। हर उस चीज की तरफ़दारी की जा रही है जो भारतीय नहीं है।


प्रताप भानु मेहता

वे हर उस चीज के खि़लाफ़ हैं जिसका वायदा भारतीय लोकतंत्र करता है। इस चुनाव का परिणाम कुछ भी हो, हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि पिछले पांच सालों में जो सार्वजनिक संस्कृति बनी है (जिसको बनाने में हम में से बहुत सारे लोगों का हाथ है) जब तक हम उसका बडे स्तर पर बहिष्कार नहीं करेंगे तब तक हम न तो अपना राष्ट्र वापस पा पाएंगे और न ही अपनी स्वतंत्रता और धर्म। 2019 के चुनाव में सबसे बड़ी कसौटी इसी बात की है।

(साभार - इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में दिये भाषण का संपादित अनुवाद)

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