मैं होता तो राज्यसभा का सदस्य नहीं बनता : जस्टिस दीपक गुप्ता
सुप्रीम कोर्ट में तीन साल तक जज रहने के बाद पद से रिटायर हुए जस्टिस दीपक गुप्ता ने साफ़ शब्दों में कहा है कि उन्हें किसी ने राज्यसभा पद की पेशकश नहीं की, पर वे इसे किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करते। उन्होंने कहा कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप से न्यायपालिका की प्रतिष्ठा गिरी, जनवरी 2018 में सुप्रीम कोर्ट जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस बहुत अच्छी बात नहीं थी। उन्होंने यह भी कहा कि बड़े लॉ फ़र्म और पैसा वालों के मामलों को सुनवाई में प्राथमिकता मिलती है।
सवाल : सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों ने रिटायर होने के पहले यह स्पष्ट कर दिया कि वे रिटायर होने के बाद सरकार की पेशकश पर कोई पद स्वीकार करेंगे या नहीं। आपकी क्या राय है?
जवाब : मैं सरकार की कोई पेशकश स्वीकार नहीं करूंगा। ऐसे कई पंचाट (ट्राइब्यूनल) हैं, जिनमें क़ानूनन सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज नियुक्त होते हैं, पर यह मेरे लिए नहीं है। आपको सुप्रीम कोर्ट की ओर से होने वाली छोटी अवधि के असाइनमेंट और सरकार की ओर कमेटियों में की जाने वाली नियुक्तियों में अंतर करना होगा।
सवाल : जैसा मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के मामले में हुआ, राष्ट्रपति द्वारा राज्यसभा के लिए मनोनीत किए जाने को क्या रिटायरमेंट पश्चात काम माना जाएगा?
जवाब : मेरे विचार से यह ऐसा ही है। मैंने इसे स्वीकार नहीं किया होता। अव्वल तो मुझे लगता है कि कोई मुझे इसकी पेशकश ही नहीं करता।
सवाल : जस्टिस गोगोई ने कहा है कि वह कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच सेतु का काम करेंगे। आपकी प्रतिक्रिया?
जवाब : कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच पुल पहले से ही है। यह मुख्य न्यायाधीश होते हैं । मैं जब हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश था तो कई मुद्दों पर मुख्यमंत्रियों से बात करता था।
सवाल : असहमति के अधिकार की सुरक्षा को लेकर आप बहुत ही मुखर रहे हैं और आपने कहा है कि असहमति के मुद्दे पर कोई पवित्र गाय नहीं हो सकता। आप 12 जनवरी, 2018 को हुए जजों के प्रेस कॉन्फ्रेंस को किस रूप में देखते हैं?
जवाब : जब यह हुआ, मैं दिल्ली में नहीं था, विदेश गया हुआ था। लेकिन जब मुझे इसके बारे में पता चला, मैं काफी परेशान हो गया। प्रेस से सार्वजनिक रूप से बात करना कोई अच्छी बात नहीं थी । संस्था हमेशा किसी भी आदमी से बड़ी होती है। मेरी निजी राय है कि इन जजों को आपस में ही मामला सलटा लेना चाहिए था। इसके साथ ही मैं यह भी कहूँगा कि मुख्य न्यायाधीश को सभी जजों की बातें सुननी चाहिए।
सवाल : न्यायपालिका से जुड़े मुद्दों पर क्या आपके समय औपचारिक बातचीत होती थी?
जवाब : नहीं। किसी मुख्य न्यायाधीश ने कभी पूरी अदालत की बैठक नहीं बुलाई। हमने अदालत के कामकाज का कैलेंडर तय करने और वरिष्ठ एडवोकेट को तय करने के अलावा कभी पूरी अदालत की बैठक नहीं की। एक बार जस्टिस दीपक मिश्रा से दरख़्वास्त की गयी थी, पर कुछ नहीं हुआ।
सवाल : एक साल पहले सुप्रीम कोर्ट की एक कर्मचारी ने मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया था। एक आंतरिक कमेटी ने इन आरोपों में कोई दम नहीं पाया और गोगोई को क्लीन चिट दे दी। आप अदालत की प्रतिक्रिया को किस रूप में देखते हैं?
जवाब : मुझे इस मामले के गुण-दोष के बारे में पता नहीं है और न ही यह पता है कि कमेटी में क्या बात हुई। पर मेरी राय में 20 अप्रैल, 2019, शनिवार को न्यायपालिका कि निष्पक्षता पर सुनवाई हुई, जिसकी अध्यक्षता गोगोई ने की, हालाँकि उन्होंने ऑर्डर पर दस्तख़त नहीं किया, उसकी ज़रूरत नहीं थी। सीधे कहा जाए तो इस घटना के बाद सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा नहीं बढ़ी। इसकी आलोचना हुई कि इस कमेटी में सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के जज थे, बाहर का कोई आदमी नहीं था। मैं इससे सहमत नहीं हूँ कि कमेटी में बाहर का आदमी होना ही चाहिए था। आपको संस्थान में विश्वास जताना होगा। यह अपने कामकाज का तरीका ख़ुद तय कर सकती है, इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा।
सवाल : यौन उत्पीड़न के पीछे किसी बड़ी साजिश की भी जाँच सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस ए. के. पटनायक ने की थी। क्या उस रिपोर्ट का कोई असर हुआ?
जवाब : मेरे पास यह जानकारी है कि एक रिपोर्ट जमा की गई थी, पर मैंने वह देखी नहीं है।
सवाल : इस बात की आलोचना होती रही है कि सुप्रीम कोर्ट में कुछ विषयों को प्राथमिकता की जाती है कुछ को नहीं दी जाती है। इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे कुछ अहम केस कई साल तक सूचीबद्ध नहीं होते हैं, जबकि कुछ मामलों में अधिक जल्दबाजी दिखाई जाती है या उसे फास्ट ट्रैक कर दिया जाता है और उसकी कोई वजह नहीं होती है। क्या आप इसे एक मुद्दा मानते हैं?
जवाब : मैं मानता हूँ। सुप्रीम कोर्ट में रजिस्ट्री के आधार पर कामकाज होता है, इसलिए इसे ठीक किए जाने की ज़रूरत है। ये रजिस्ट्रार अलग-अलग अदालतों से अलग-अलग अनुभव के साथ आते हैं, पर उनमें प्रबंधन के गुण की कमी होती है। मुख्य न्यायाधीश और रजिस्ट्री पर सब कुछ निर्भर है। रजिस्ट्री प्रौद्योगिकी से संचालित होनी चाहिए और यह किसी व्यक्ति के विवेक से न हो। मैंने देखा है कि मोटी रकम और बड़ी लॉ फ़र्म वाले मामले में यदि कहा जाता है कि चार हफ़्तों में सुनवाई होनी है तो ठीक चार हफ़्ते में ही वह रजिस्टर हो जाता है। लेकिन जूनियर वकीलों के मामले में हम कहते हैं कि चार सप्ताह में सुनवाई हो तो भी छह महीने तक वह रजिस्टर नहीं होता है।
सवाल : आप सुप्रीम कोर्ट के पहले जज हैं, कोरोना के कारण जिनकी वर्चुअल विदाई हुई है। अदालत इस वर्चुअल दुनिया से क्या सीख सकता है?
जवाब : कोरोना के बग़ैर भी हम लोगो को तकनीकी अपनानी चाहिए थी, पर हमने ऐसा नहीं किया। यह सुनहरा मौका है जब कुछ मामलों में, ख़ास कर, ट्रायल शुरू होने के पहले की स्थिति में वीडियो कॉन्फ्रेंस का सहारा लिया जाए। मसलन, जिसका मामला चल रहा हो उसकी रिहाई की सुनवाई वर्चुअल हो सकती है। मुझे कोई वजह नहीं दिखती है कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई की लाइव स्ट्रीमिंग नहीं की जा सकती है। वीडियो कॉन्फ्रेंस जजों के लिए भी ठीक है। वकीलों की ग़ैरज़रूरी ड्रामेबाजी से छुटकारा मिलेगा।
(‘इंडियन एक्सप्रेस’ से साभार)