हैदराबाद रेप-हत्याकांड: 'मॉब जस्टिस' की माँग क्यों, भीड़ से न्याय कैसे संभव?
हाल ही में हैदराबाद में एक महिला डॉक्टर के बलात्कार और हत्या के मामले ने देश में स्त्री सुरक्षा की लचरता को नंगा करके रख दिया है। यह बेहद दुख और शर्म की बात है कि ‘यत्र नारीयस्तु पूज्यते’ जैसी स्त्री सम्मान की बड़ी-बड़ी दलीलों और भारत सरकार के 'बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ' जैसे बड़बोले कार्यक्रमों के बाद भी बलात्कार और यौन हिंसा के मामलों में कोई कमी नहीं आयी है।
पुलिस और मीडिया ने ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार करते हुए एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट की 2018 में जारी की गयी गाइडलाइन को पूरी तरह दरकिनार करते हुए मृतका के जले हुए शव के फोटो, उनकी अन्य तसवीरें और नाम सार्वजनिक किया।
जैसा कि अपनेआप में एक ट्रेंड बन चुका है, तुरंत ही ये तसवीरें उनके नाम और पहचान के साथ पूरे सोशल मीडिया में फैल गईं और अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाओं का सिलसिला चल निकला। जहाँ एक ओर एक मशहूर लेखक एवं महिला पुलिस अफ़सर की ‘लड़कियों को यौन हिंसा से बचने के उपाय’ वाली पोस्ट वायरल हो गयी वहीं दूसरी ओर कुछ असामाजिक तत्वों ने बलात्कारियों की पहचान होते ही उनमें से एक अल्पसंख्यक को मुख्य अभियुक्त क़रार देते हुए इस पूरी घटना को एक साम्प्रदायिक रंग देने की भी कोशिश की।
और तब तो अति ही हो गयी जब यह पता चल कि गत रविवार भारत से पोर्न वेबसाइटों पर भी इस मृतका का नाम ट्रेंड करने लगा। इसे विडंबना न कहें तो और क्या कहें कि वही लोग जो कुछ देर पहले तक ऐसी आक्रामक बातें कर रहे थे कि आरोपियों को भीड़ के हवाले कर दिया जाए, उन्हें भी ज़िंदा जला दिया जाए, उनके परिवार की महिलाओं के लिए भी हिंसक गालियाँ दी जाएँ, उसी समाज के 80 लाख लोग इस बलात्कार के वीडियो पोर्न वेबसाइट पर खोज रहे थे।
यह इस समाज का गंदा और दोगला चेहरा नहीं है तो और क्या है
‘तहर्रूश’ की घिनौनी सोच का फैलाव
भीड़ के फ़ैसले यानी मॉब लिंचिंग वाले देश में सुझाव देना कहाँ की समझदारी है जो हिंसा से हिंसा का समाधान सुझा रहे हैं उन्हें दुनिया के अन्य हिस्सों में प्रचलित ‘तहर्रूश’ जैसे प्रथाओं की भी जानकारी रखनी चाहिए। मिस्र में जनता के प्रदर्शनों के दौरान एक साउथ अफ़्रीकी महिला पत्रकार जब इसका शिकार हुई तो पूरे विश्व का ध्यान इस ओर गया।
'तहर्रुश' अरबी भाषा का एक शब्द है। इसका शाब्दिक अर्थ उकसावा है, लेकिन असल में इसका अनुवाद 'उत्पीड़न' है, जबकि यौन उत्पीड़न के लिए प्रचलित शब्द है तहर्रुश जिंसी। तहर्रुश मौखिक, व्यवहारिक या शारीरिक हो सकता है और व्यक्तिगत या सामूहिक भी। यह अक्सर सार्वजनिक जगहों और प्रदर्शनों या भीड़भाड़ में किया जाता है, जहाँ हमलावर आसानी से भीड़ में गुम हो जाते हैं और दोषारोपण लगभग नामुमकिन होता है, क्योंकि एक पूरी भीड़ महिला/महिलाओं पर एक साथ हमला करती है। स्त्री के कपड़े फाड़ दिए जाते हैं, उसके अंगों को ब्लेड या धारदार हथियारों से क्षति पहुँचायी जाती है, उसका क्रूरतापूर्वक यौन-उत्पीड़न होता है।
जहाँ भीड़ बलवान होगी वहाँ न्याय होने की संभावना कम ही होती है, फिर वह क्रूरता महिलाओं के प्रति हो या किसी और के प्रति। एक जनतंत्र की ताक़त वहाँ के नागरिक अवश्य होते हैं लेकिन क़ानून और संविधान को मानने वाले नागरिक। उग्र भीड़ सिर्फ़ मनमानी कर सकती है और बेवजह हिंसा।
फाँसी की सज़ा समाधान क्यों नहीं
भारत में आख़िरी फाँसी 30 जुलाई 2015 को दी गयी थी। निर्भया केस के बाद यह तय किया गया था कि ऐसे बलात्कार जिसमें पीड़ित की मृत्यु/हत्या हो उसमें मृत्यदंड अनिवार्य रहे और कठुआ केस के बाद यह क़ानूनी बदलाव किया गया कि 12 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ बलात्कार की सज़ा भी मौत हो।
बच्चों के साथ बलात्कार के केसों में भारतीय क़ानून में भी मृत्यदंड का प्रावधान हाल ही में पारित किया गया है। वयस्कों से बलात्कार के मामले में यह सज़ा ‘रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर’ (अत्यंत असाधारण) केसों के लिए मान्य है, लेकिन इस तक पहुँचने के लिए पूरी क़ानूनी प्रक्रिया का पालन किया जाता है। फ़ास्ट ट्रैक अदालत आदि से भी तारीख़ें तुरंत हो सकती हैं लेकिन प्रक्रिया आम अदालत की तरह ही पूरी करनी होती है।
यह एक भ्रान्ति ही है कि बलात्कारियों को फाँसी देने से बलात्कार और अन्य यौन अपराधों में कमी आती है।
यह सच नहीं है। एक या कुछ बलात्कारियों को फाँसी की सज़ा देने से केवल वह एक बलात्कारी समाज से कम होता है न कि समाज की बलात्कारी मानसिकता। उल्टा बहुत बार यह भी देखा गया है कि ऐसी सज़ा के डर से बलात्कार के बाद हत्या के मामले बढ़ जाते हैं क्योंकि पीड़िता या बलात्कारी की पहचान नहीं हो पाने को ही अपराधी अपना आख़िरी सुरक्षा कवच मानते हैं।
ईरान जैसे देशों का उदाहरण क्यों
जिनका यह तर्क है कि अफ़ग़ानिस्तान और ईरान जैसे देशों में जहाँ बलात्कार की सज़ा मृत्युदंड है वहाँ बलात्कार की दरों में कमी आयी, यहीं वे यह भूल जाते हैं कि ऐसे देशों में अधिकतर पीड़ित ज़िंदा नहीं बचतीं और उनकी गणना फ़िर मौत के आँकड़ों में होती है, यौन हिंसा के केस में नहीं। क्योंकि इन समाजों में भारत की ही तरह लड़की के कौमार्य और महिला की शारीरिक शुचिता पर इतना ज़ोर है। अक्सर बलात्कार के अनेक मामले रिपोर्ट ही नहीं किये जाते।
उन केसों में जहाँ बलात्कारी लड़की के परिवार से कोई है या कोई सम्बन्धी है और वह जानती है कि इसकी सज़ा इसे मौत मिलेगी अक्सर यह देखा गया है कि लड़कियाँ/महिलाएँ ऐसे बलात्कार रिपोर्ट ही नहीं करतीं। यदि महिला की ऐसे किसी हादसे में मौत भी हो जाए तो परिवार, समुदाय और समाज उसे लीपापोती करके छिपाने की कोशिश करते हैं। भारत में अभी भी वैवाहिक बलात्कार के लिए विस्तृत क़ानून तक नहीं है।
सोशल मीडिया पर यौन हिंसा
भारत में हर रोज़ क़रीब 106 बलात्कार होते हैं जिनमें 10 में से 4 पीड़ित नाबालिग होते हैं, लेकिन जनता किसी निर्भया, कठुआ या अब हैदराबाद जैसे केस पर ख़ूब शोर करती है, कैंडल मार्च निकलती है, प्रदर्शन होते हैं लेकिन इस सच्चाई का कोई सामना नहीं करना चाहता कि यही लोग पोर्न में रेप वीडियो खोज रहा है, इसी देश के सोशल मीडिया पर महिलाओं को खुलेआम बलात्कार की धमकियाँ दी जाती हैं और तब इन्हीं पुरुषों के परिवार से जुड़ी महिलाएँ और परिवार मुँह फेर लेते हैं या चुप रहते हैं।
सोशल मीडिया सहित अन्य मीडिया में ऐसे अपराधों को लेकर किस तरह की भाषा का प्रयोग हो रहा है, कौन-सी तसवीरें तुरंत वायरल की जा रही हैं और किस तरह इन यौन अपराधों को सांप्रदायिक या अन्य तरीक़ों से भुनाया जा रहा है, यह भी चिंता का विषय है।
डेथ पेनल्टी इन्फ़ो की रिसर्च के अनुसार ऐसे कोई आँकड़े कहीं नहीं मिलते कि मृत्युदंड के प्रावधान से बलात्कार अथवा हत्या के मामलों में कमी आती है। जबकि बहुत बार यह देखा गया है कि ज़रा-सी भी सबूतों की कमी पर जज मृत्यदंड देने से हिचकिचाते हैं और अपराधी छूट जाते हैं। समय की माँग यह है कि:
- पहले से बने हुए क़ानूनों का बेहतर ढंग से पालन हो।
- पुलिस, अदालतों और अन्य एजेंसियों में यौनिक अपराधों को लेकर संवेदनशीलता एवं त्वरित कार्यवाही की आदत बने।
- परिवार एवं समाज रोज़मर्रा की यौन हिंसा जैसे कि सार्वजनिक स्थानों पर छेड़छाड़ पर भी आवाज़ उठाएँ और कार्यवाही में सहयोग करें।
- सभी नागरिक सचेत रहे, झूठी ख़बरें न फैलाएँ, ऐसे अपराधों से जुड़ी हुई कोई भी जानकारी पूरी संवेदनशीलता एवं सम्मान से साझा करें।
- अपनी भाषा एवं व्यवहार में रोज़मर्रा के स्त्री-द्वेष को कम करने की कोशिश जारी रहे।