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अमेरिका में भारतीयों के बढ़ते सियासी प्रभाव का सबूत है हाऊडी मोडी

अमेरिका में भारतीयों के बढ़ते सियासी प्रभाव का सबूत है हाऊडी मोडी

हाऊडी मोडी कार्यक्रम को महज मोदी-ट्रंप दोस्ती के रूप में देखना ग़लत होगा, न तो यह मोदी के प्रति दोस्ती का मामला है और न ही भारत के लिए दरियादिली का। यह शुद्ध राजनीति है। 

रविवार 22 सितंबर को अमेरिका के ह्यूस्टन शहर की ओर करोड़ों लोगों की निगाहें टिकी होंगी। टेक्सस के इस सबसे बड़े शहर के बड़े एनआरजी स्टेडियम में भारतीय मूल के 50 हज़ार अमेरिकी एक रंगारंग कार्यक्रम देखने टिकट कटा कर पहुँचेंगे। उनके बीच होंगे सैकड़ों उद्योगपति और कॉरपोरेट जगत के दूसरे आला लोग। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप इस कार्यक्रम में शिरकत करेंगे। यह पहला मौका होगा जब कोई अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीय-अमेरिकियों के किसी कार्यक्रम में मौजूद रहेगा और उसमें भारत के प्रधानमंत्री भी रहेंगे। तो क्या यह दोनों नेताओं की दोस्ती है 

क्या यह नरेंद्र मोदी का चमत्कार है कि अमेरिकी राष्ट्रपति भारतीय प्रधानमंत्री के कार्यक्रम में भाग लेने खुद चल कर आ रहे हैं इस कार्यक्रम को कुछ लोग इसी रूप में पेश कर रहे हैं, पर सच यह नहीं है।

ह्यूस्टन में भारतीय मूल के 3.50 लाख लोग रहते हैं, अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की यह चौथी सबसे बड़ी आबादी वाला शहर है। अमेरिका में भारतीय मूल के 40 लाख लोग हैं जो कुल अमेरिकी आबादी का 1.3 प्रतिशत हैं। भारतीय मूल के लोगों की सबसे अधिक तादाद 7.30 लाख कैलिफ़ोर्निया में है। इसके बाद न्यूयॉर्क में 3.7 लाख, न्यू जर्सी में 3.7 लााख, इलिनॉय में 2.3 लाख और फ़्लोरिडा में 1.5 लाख लोग रहते हैं। अमेरिका के 16 राज्यों में भारतीय मूल के लोगों की आबादी 1 प्रतिशत से अधिक है। 

भारतीय मूल के लोगों का दबदबा

भारतीयों को मोटे तौर पर रिपब्लिकन समर्थक माना जाता है। बराक ओबामा जैसे अश्वेत नेता को भी भारतीय मूल के लोगों का बहुत बड़ा समर्थन नहीं मिला था। यह साफ़ है कि रिपब्लिकन पार्टी इन लोगों पर अपना नियंत्रण मजबूत करना चाहती है। राष्ट्रपति चुनाव का पहला चरण यानी प्राइमरी इस साल नवंबर में होगा। प्राइमरी चुनाव से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार चुना जाएगा। तो क्या 1 प्रतिशत भारतीय-अमेरिकी वहाँ की राजनीति को प्रभावित करते हैं, इस सवाल का जवाब बहुत आसान नहीं है। 

1 प्रतिशत मतदाता किसी भी चुनाव को प्रभावित नहीं करते, पर अमेरिकी-भारतीयों की खूबी यह है कि वे अमेरिकी मध्यवर्ग के मजबूत स्तंभ हैं। वे इंजीनियर हैं, डॉक्टर हैं, वकील हैं, मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, छोटे-मोटे व्यापारी हैं, जिनकी समाज में इज्जत है, धमक है। 

ये भारतीय चुनाव प्रचार में खुल कर सामने आते हैं, दोनों ही पार्टियों के उम्मीदवारों से जुड़ते हैं। ये उनके लिए चंदा इकट्ठा करते हैं, प्रचार साहित्य तैयार करते हैं, ये एक तरह से फाइटिंग फोर्स होते हैं, जिनके बल पर चुनाव लड़ा जाता है।

भारतीय-अमेरिकियों को मोटे तौर पर उदार, लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष माना जाता है, जो अभी भी अमेरिकी समाज के मूल्य हैं। इन लोगों के किसी पार्टी से जुड़ने से उसकी छवि अच्छी बनती है, लोग यह मान कर चलते हैं कि यह उम्मीदवार सबको साथ लेकर चलेगा, सबके लिए काम करेगा। 

छवि का सवाल

डोनल्ड ट्रंप ने जिस तरह का छद्म राष्ट्रवाद खड़ा कर दिया है और उनकी छवि एशिया-विरोधी, मध्यवर्ग विरोधी, महिला विरोधी, नस्लवादी हो गई है, वह उससे बाहर निकलना चाहते हैं। राष्ट्रवाद का दामन तो वह कभी नहीं छोड़ेंगे, पर दूसरे बिम्ब को तोड़ कर साफ़ छवि बनाना उनकी राजनीतिक मजबूरी है। भारतीय-अमेरिकी इसमें उनकी मदद करेंगे। 

इसलिए जब ट्रंप ह्यूस्टन जाने का फ़ैसला करते हैं तो यह एक सोची-समझी राजनीतिक समझदारी होती है, एक गहरी चाल होती है, एक तरह की इमेज ब्रान्डिंग की कोशिश होती है। ट्रंप ने इस इमेज ब्रांडिंग की कोशिश के तहत ही हाऊडी मोडी कार्यक्रम के अगले ही दिन पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान से मिलने का कार्यक्रम रखा है। वे एक तरह से संतुलन कायम करना चाहते हैं, एशियाई मूल के लोगों को संदेश देना चाहते हैं, मुसलमानों की ओर हाथ बढ़ा रहे होते हैं। 

इमेज ब्रान्डिंग की कोशिश!

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टीम के लोग भी इमेज ब्रान्डिंग में ही लगे हुए हैं। वे मोदी की एक ऐसी छवि गढ़ने की कोशिश में हैं जो दुनिया का सबसे बड़ा, प्रतिष्ठित, तेज़-तर्रार, कामयाब नेता है, जो युग दृष्टा है। अमेरिका में 50 हज़ार लोगों और राष्ट्रपति की मौजूदगी में होने वाला कार्यक्रम इस इमेज बिल्डिंग का ही प्रयास है। 

इस प्रयास के तहत ही साल 2014 में मैडिसन स्क्वैयर और साल 2017 में सिलिकन वैली में मोदी मेगा शो हुआ था। मैडिसन स्क्वैयर के कार्यक्रम के बाद यह कहा गया था कि अब भारत में 100 अरब डॉलर का निवेश होगा। लेकिन सिर्फ़ इमेज बिल्डिंग से निवेश नहीं होता, इस मामले में भी नहीं हुआ। 

जो उद्योगपति ह्यूस्टन के कार्यक्रम में शामिल होंगे, वे भारत में निवेश कर ही देंगे, यह उम्मीद तो भारत सरकार को भी नहीं है। ये उद्योगपति मोदी को सुनने नहीं आ रहे हैं, वे भारत के बाज़ार से प्रभावित हैं और अपनी-अपनी संभावना तलाशना चाहते हैं। वे भारत के बहुत बड़े मध्यवर्ग में अपने उत्पाद बेचना चाहते हैं। यह पहले से अधिक ज़रूरी इसलिए भी है कि क्योंकि चीन उन्हें बुरी तरह पछाड़ रहा है। 

अगले राष्ट्रपति चुनाव यानी कम से कम दो साल तक चीन के साथ किसी व्यापार समझौते की उम्मीद नहीं के बराबर है। यदि यह समझौता हो भी गया तो भी अमेरिकी उद्योगपतियों के लिए दिक्कत है। चीन के साथ प्रतिस्पर्द्धा में टिकना अमेरिकी उद्योग जगत के लिए और मुश्किल होने वाला है। ऐसे में उन्हें भारत की ओर रुख करना ही है। 

राष्ट्रपति ट्रंप बड़ी होशियारी से अपने देश के लिए एक बड़े बाज़ार और अपनी चुनावी गणित के लिए जोड़-तोड़ कर रहे हैं। उन्हें दुहरा फ़ायदा है। ऐसे में यदि वह ह्यूस्टन जाकर मोदी की इमेज बिल्डिंग से जुड़ ही जाते हैं तो क्या बुरा है। उनकी अपनी छवि भी बेहतर ही हो रही है। 

इस इमेज बिल्डिंग और मोदी ब्रान्डिंग के राजनीतिक निहितार्थ हैं। घरेलू राजनीति में इसका फ़ायदा है, लोगों के मानस में यह बैठाना आसान होगा कि पूरी दुनिया मोदी जी को महान मानती है, बस देश के ही कुछ मुट्ठी भर लोग ऐसा नहीं मानते। ऐसे लोगों को राष्ट्रविरोधी साबित करना आसान होगा। 

इसलिए हाऊडी मोडी सिर्फ़ दो नेताओं का भाईचारा भरा रिश्ता नहीं है और यह भारतीय विदेश नीति की कोई बहुत बड़ी जीत भी नहीं है। 

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