हमारी मुनाफ़े, प्रोटीन की बढ़ती भूख ने पैदा किए कोरोना जैसे वायरस!
कोविड की महामारी अमेरिका, यूरोप और दक्षिण अमेरिका के देशों के बाद अब भारत में तबाही मचा रही है। इस पर काबू पाने के लिए भारत को भी अमेरिका, यूरोप और चीन की तरह टीकाकरण करना होगा। मुश्किल यह है कि व्यापक पैमाने पर फैल जाने के कारण अब कोरोना के इस वायरस के बाहरी खोल में बदलाव आने लगे हैं जिनकी वजह से यह और तेज़ी से फैलने लगा है।
वायरस में आ रहे परिवर्तनों को देखते हुए टीका वैज्ञानिकों ने कहना शुरू कर दिया है कि लोगों को महामारी से बचाए रखने के लिए एक साल के भीतर एक टीका और लगाने की ज़रूरत पड़ सकती है। कुछ वैज्ञानिकों का तो यह भी मानना है कि इस महामारी से बचे रहने के लिए ज़ुकाम के वायरस की तरह ही शायद हर साल टीका लगवाना पड़े। टीका बेअसर भी हो सकता है और नया टीका बनाना पड़ सकता है।
इसलिए वैज्ञानिक अब धीरे-धीरे इस निष्कर्ष की तरफ़ बढ़ रहे हैं कि टीकों से भी बहुत समय तक बचाव नहीं हो सकेगा। कोरोना जैसे वायरसों से बचने के लिए हमें उन कारणों को दूर करना होगा जिनसे ये वायरस फैल रहे हैं। 1918 के स्पेनी फ़्लू से लेकर आज के कोरोना वायरस तक महामारी फैलाने वाले लगभग सभी वायरस जंगली या पालतू जानवरों से फैले हैं।
माना जाता है कि स्पेनी फ़्लू सूअरों से इंसानों को लगे वायरस से फैला था और इसकी शुरुआत अमेरिका के केंसस राज्य के एक सैनिक शिविर से हुई थी। एड्स का वायरस HIV अफ़्रीका के बंदरों से फैलना शुरू हुआ था। 2002 का सार्स वायरस चीन के ग्वांगडोंग प्रांत की जंगली जानवरों की मंडी से फैला था। चीन से हांगकांग और दक्षिण पूर्वी एशिया में फैलने वाला बर्ड फ़्लू चीन के कलहंस और हांगकांग के मुर्गी फ़ॉर्मों से फैला था।
2009 में एशिया और मैक्सिको से फैलने वाला स्वाइन फ़्लू सूअर फ़ॉर्मों से फैला था और 2014 में पश्चिम अफ़्रीका के कई देशों में आतंक फैलाने वाला इबोला चमगादड़ों और बंदरों से फैला था। कोरोना वायरस के बारे में भी यही माना जाता है कि वह चीनी शहर वूहान की उस जानवर मंडी के चमगादड़ या पैंगोलिन जैसे जानवरों से फैला है जिन्हें ग्राहकों के सामने मार कर बेचा जाता है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि जंगली जानवरों को व्यापार के लिए पिंजरों के भीतर निर्मम हालात में रखा जाता है। यातना से सताए और कमज़ोर पड़े इन जानवरों के शरीरों में वायरसों को तेज़ी से पनपने और आस-पास के इंसानों को लग जाने का ख़तरा बना रहता है।
इसी तरह जानवरों के कारख़ानों की शक्ल लेते जा रहे फॉर्मों में बत्तख़-बटेर और मुर्गे जैसे पक्षियों को कुछ ही इंच के तंग पिंजरों में पाला और मोटा किया जाता है। इसी तरह सूअरों, गायों और भैंसों को तंग खाँचों में रखकर पाला और उनका दोहन किया जाता है। आज के बेहद चर्चित विचारक प्रो युवाल नोहा हरारी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सेपियन्स में हमारी इस निर्ममता का ‘क्रांति के शिकार’ अध्याय में मार्मिक चित्रण किया है।
हज़ारों-लाखों की संख्या में जगह के लिए छटपटाते और अपने मल-मूत्र में पलते इन जानवरों के शरीरों में घातक हारमोन बनते हैं जो इनके दूध और मांस को खाने वालों के शरीरों में भी जाते हैं। लेकिन उससे भी ख़तरनाक बात यह है कि यातना की वजह से इन जानवरों के शरीर वायरसों के अखाड़े बन जाते हैं जहाँ से वायरस आसानी से इनके आस-पास काम करने वाले इंसानों को लग जाते हैं।
जानवरों से इंसानों को लगने वाले घातक वायरसों का यह चक्र तभी से चला आ रहा है जबसे हमने जानवरों को प्रोटीन के कारख़ाने की तरह पालना और दोहना शुरू किया है। वायरसों से बचाव के लिए टीके ज़रूर बन गए हैं लेकिन हमारी मुनाफ़े और प्रोटीन की बढ़ती भूख की वजह से वायरसों की रफ़्तार टीकों से तेज़ होती जा रही है। इसका इलाज इस चक्र को तोड़े बिना संभव नहीं है।
विज्ञान ने हमारे लिए एक नया रास्ता खोल दिया है। यदि हम चाहें तो जानवरों को सताए बिना और उनके संपर्क में आए बिना भी प्रोटीन बना सकते हैं। कृत्रिम बुद्धि से ऐसी मशीनें बना ली गई हैं जो वनस्पति को ही सीधे दूध, अंडे और मांस में बदल सकती हैं। गूगल की फ़िल्म शृंखला The Age of AI (कृत्रिम बुद्धि का युग) में चिली की एक कंपनी Notco की विस्तार से चर्चा है। यह कंपनी वनस्पति से बना दूध, अंडे और मांस बेचती है जो स्वाद, गंध और बनावट में एकदम असली दूध, अंडे और मांस जैसा होता है।
वनस्पति से बने दूध और मांस को बनाने और बेचने वाली कंपनियाँ ब्रज़ील और अमेरिका में भी हैं। ऐसे रेस्तराँ भी हैं जहाँ आप वनस्पति से बने डेयरी और मांस के पकवानों का ज़ायका ले सकते हैं। अभी ये चीज़ें महँगी हैं लेकिन यदि इनकी माँग बढ़े तो दाम असली डेयरी और मांस से नीचे आने में देर नहीं लगेगी। जानवर भी तो वनस्पति खाकर ही दूध, अंडे और मांस बनाते हैं। यदि उनका काम सीधे कृत्रिम बुद्धि की मशीनें करने लगें तो जानवरों का भी भला होगा और हम उनसे लगने वाले वायरसों से बच जाएँगे।
वनस्पति से बनने वाले डेयरी और मांस से पर्यावरण का भी बचाव होगा। जानवरों के डेयरी और मांस से बने भोजन पर शाकाहारी भोजन की तुलना में आठ गुणा पानी और संसाधन ख़र्च होते हैं।
तापमान को गर्म करने वाली ग्रीनहाउस गैसों का एक तिहाई जानवरों के शरीरों से निकलने वाली मिथेन गैसें हैं। सीधे वनस्पति से बनने वाले डेयरी और मांस हमारे पर्यावरण को बचाएँगे और हमें वायरसों से बचाएँगे।
सवाल हमारी मानसिकता का और डेयरी और मांस उद्योग से जुड़े किसानों और व्यापारों के स्वार्थ का है। किसानों की लॉबी दुनिया में कितनी मज़बूत है इसका अंदाज़ा आप भारत में चल रहे किसानों के आंदोलन से लगा सकते हैं। तंबाकू उद्योग ने धूम्रपान से होने वाले नुक़सानों पर पर्दा डाले रखा और 50 साल तक धूम्रपान पर कोई पाबंदी नहीं लगने दी।
इसी तरह तेल-उद्योग पर्यावरण को होने वाले असली नुक़सान पर पर्दा डाले हुए है। दुनिया चाह कर भी पिछले 40 सालों से कुछ नहीं कर पा रही है। ऐसे में क्या पशुपालन और डेयरी उद्योग लोगों को वनस्पति से बनने वाले डेयरी और मांस की तरफ़ जाने देगा? यदि नहीं, तो फिर इस वायरस पर काबू करने से पहले अगले किसी और भी ख़तरनाक वायरस के लिए कमर कस लीजिए!
(शिवकांत की फेसबुक वाल से)