राधा-कृष्ण के होली खेलने का प्रसंग क्या सिर्फ कवियों की कल्पना है?
राधा-कृष्ण के होली खेलने का प्रसंग क्या भावावेश में की गई सिर्फ कवि की कल्पना है? क्या राधा पर गोपियाँ भारी पड़ती थीं? सारी ठिठोली गोपियों के हिस्से और राधा के भाग्य में विरह! प्रेम का भविष्य उसी वक्त लिखा गया, बिछोह की लिपि में।
होली की याद आते ही राधा-कृष्ण की स्मृति स्वाभाविक है। इस अलौकिक प्रेमी जोड़े की हंसी-ठिठोली, उनकी लट्ठमार होली, छेड़-छाड़ सबकी स्मृति जगने लगती है। फिर कृष्ण के संग होली के प्रसंग गोपियों के साथ ज्यादा हैं, राधा के साथ कम। राधा की जानबूझ कर उपेक्षा की गई या राधा कोई अलग स्त्री थी ही नहीं।
कौन थी राधा?
कौन थी राधा? कृष्ण के बाहर थी, या भीतर थी? राधा भी तो कृष्ण की सबसे प्रिय गोपी थी। फिर कृष्ण को चुपके से दबोचने वाली गोपियाँ कौन थीं? कौन थीं वे जो कृष्ण से होली पर बरजोरी कर अपने हिस्से का रास रचा लेती थीं? साल भर मक्खन खिलाने का बदला होली के दिन लेती थीं। होली की मादकता ऐसी कि, हर छूट ले लो। चाहे ईश्वर हो या मनुष्य। लोकगीतो में भी इसी तरह की छूट की कल्पना की गई है- ‘भर फागुन बुढ़वा देवर लागे…’होली पर कोई भी ऐसी वैसी हरकत बुरी नहीं लगती। किसी भी तरह की शारीरिक छेड़छाड़ को अश्लीलता के दायरे में नहीं लाते। सारी छूट हैं। बंदिशें भरभरा कर टूट जाती हैं। रिश्तों का लिहाज कहीं पीछे छूट जाता है। मनमानी करने का सामाजिक हक़ जो मिल जाता है। गोपियों के संग कृष्ण और कृष्ण के संग गोपियों के बीच सारी मर्यादाएं उसी दिन टूट जाती हैं।
राधा समूह से अलग हैं। उनका पौराणिक आख्यानों में भी जिक्र कम है। सिर्फ ‘पद्म पुराण’ और ‘ब्रम्ह वैवर्त पुराण’ में बरसाने की ‘लाडलीजी’ का जिक्र मिलता है।
होली के रंग कहाँ से उड़े?
राधा पुराणों से ज्यादा लोक मानस में बसा करती हैं। बड़े उपनिषदो में तो राधा-कृष्ण की होली के प्रसंग तो नहीं ही हैं, छोटे-छोटे उपनिषदो में भी जिक्र नहीं है। उनमें फाल्गुन तक का वर्णन नहीं है। फिर ये होली के रंग कहां से उड़े या उड़ाए गए?होली के रंग, पुराणों में नहीं, काव्य में सबसे अधिक फैले हुए हैं। 12वीं शताब्दी में होली के रंग सबसे अधिक कविताओं में उड़ते हैं। तो क्या साहित्य इतना सशक्त माध्यम है कि वह एक आभासीय सत्य को वास्तविक सत्य की तरह लोक में स्थापित कर सकता है? इतनी विश्वसनीयता के साथ कि पूरा समाज उससे जुड़ जाए, उससे खुद को जोड़ कर देखे? माने या न माने,यह काव्य का ही लोक पर असर है। भक्तिकालीन साहित्य पर नजर डालें तो इसकी पुष्टि हो जाएगी।
मिथक है राधा?
साहित्य तो मिथक और इतिहास दोनों रचता है। दोनों को अपने हिसाब से तोड़-मरोड़ सकता है या कुछ नया गढ़ सकता है। कालांतर में उसकी गढ़ी गई छवियाँ इतनी रूढ़ हो जाती हैं, इतनी लोकप्रिय कि समय भी उसे अपने सत्य की तरह स्वीकार लेता है।काल ने राधा का कृष्ण से अलग अस्तित्व स्वीकार कर लिया और खूब काव्य लिखे गए। अनेक प्रसंगों की चर्चा मिलेगी। ज्ञानी जन जानते हैं कि राधा कृष्ण की आह्लादित शक्ति हैं, चैतन्य शक्ति हैं। राधा मूल नहीं तो राधा आई कहाँ से? कवियों की कल्पना की तीव्रता तो देखिए। राधा को ही साकार खड़ा किया काव्य में और वहाँ से जनमानस में बिठा दिया।
भक्त कवियों ने होली को लेकर इतने मधुर भाव से सोचा कि सचमुच की राधा कृष्ण से होली खेलन आई। अब अगर बृज में होली खेलेंगे नंदलाल तो उनके साथ उनकी राधा तो अनिवार्य हैं न!
रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण को आधार बना कर श्रृंगार की बातें खूब की। रत्नाकर ने ‘उद्धव शतक’ लिखा तो राधा को साक्षात पात्र बना कर खड़ा कर दिया, जबकि भगवदपुराण में कृष्ण की सामूहिक लीलाओं का वर्णन मिलता है।
राधा के बहाने श्रृंगार
रीतिकालीन और भक्तिकालीन कवियों का सबसे प्रिय विषय होली और फाल्गुन रहे हैं। इसके बहाने राधा-कृष्ण की जोड़ी की काव्यात्मक स्थापना हुई। यहाँ ध्यान दिलाना ज़रूरी कि पद्माकर की कविता में कृष्ण और गोपियों के बीच ज़बरदस्त होली का प्रसंग है।फाग के अभीरन में
‘गहि गोविंदै लै गई,
भीतर गोरी भाई करी मन की,
पदमाकर ऊपर नाई,
अबीर की झोरी छीन,
पितांबर कम्मर ते सु बिदा दई,
मीड़ कपालन रोरी नैन नचाय, कही मुसकाय,
लला फिरी अइयों खेलन होरी।
यहाँ राधा नहीं, सामान्य गोपी की शरारत का जिक्र है, जो कृष्ण को ज़बरन पकड़ कर अंदर ले जाती है, उनके संग अपने मन की करती है, उनके ऊपर अबीर की झोली उझिल देती है, पीतांबर छीन कर उन्हे विदा कर देती हैं।
वे ऐसा करते हुए, नैन नचा कर, मुस्कुरा कर कहती हैं- ‘लला, फिर आना होली खेलने।’
रसखान की राधा
रसखान लिखते हैं- ‘फागुन लाग्यो जब तें ब्रजमंडल में धूम मच्यौ है,नारि नवेली बचै नहिं एक विसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है’ एक गोपी अपनी सखि से फाल्गुन मास के जादू का वर्णन करते हुए कहती है कि जबसे फाल्गुन आया है, ब्रजमंडल में धूम मची है, सुबह शाम कृष्ण आनंद मग्न होकर रंग और गुलाल लेकर फाग खेलते रहते हैं। हे सखि, इस माह में कौन-सी सजनी है जिसने अपनी लज्जा, संकोच और मान का त्याग नहीं किया है।सूरदास भी देख लेते हैं कि कृष्ण के संग ग्वाल बाल के अलावा सखियाँ भी होली खेल रही हैं।
कृष्ण की पुकार है, होली का बहाना है, बनी ठनी गोपियाँ पुकार सुन कर निकल पड़ी हैं और होली के बहाने कृष्ण को रिझाने की, उनसे मनमानी करने की पूरी छूट मिल गई है उन्हें।
उनके पद का अंश है-
‘हरि संग खेलति सब फाग
इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर को अनुराग
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढ़ी, सुनि माधो के बैन’
यहाँ भी राधा का जिक्र नहीं है।
मतिराम के यहाँ भी गोपियों के होली खेलने का जिक्र है। होली पर कृष्ण ने अबीर फेंका, एक गोपी की आँख में पड़ा-
‘कधि गो अबीर पै अहिरन तो कढ़ैय नहीं…’
फाल्गुन है, गोप और गोपियाँ हैं, रंग है, अबीर है, रंगीन धूल हैं, मादक और शोख हवाएं हैं, शरारतें हैं, छोड़-छाड़ है, चुहल है, रास है, हास है, परिहास है,
राधा कहाँ है? राधा एकल है, गोपियाँ समूह हैं। होली सामूहिक रास का त्योहार है। त्योहारों की एकल पद्धति पर सामूहिकता की जीत है। इसीलिए सबसे अलग और ख़ास है। समूह में गान बसा है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि
‘राधिका तो कन्हाई को सुमिरन को बहानो है’
लोक मान्यता में राधा
काव्य में भले राधा-कृष्ण होली के प्रसंग कम हो, लोक मान्यताओं में दोनों अलौकिक प्रेमी-प्रेमिका के होली खेलने के कई प्रसंग हैं। जैसे राजस्थान में भरतपुर जिले के डीग बार्डर से सटे गाँव गांठौली में बने ‘गुलाल कुंड’ राधा कृष्ण की होली-लीला का गवाह माना जाता है।मान्यता है कि कृष्ण और राधा ने गोपियों संग इसी कुंड पर रंगो की होली खेली थी। यहाँ पर दोनो सिंहासन पर विराजे। वहीं सखियों ने दोनों के पल्लुओें मे गांठ लगा दी थी। जिससे इस गाँव का नाम गाँठौली पड़ गया। रंग गुलाल से कुंड का नाम गुलाल कुंड पड़ गया। गुलाल कुंड पर भक्त फाल्गुन मास में पहुँचकर रंग गुलाल की होली खेलते हैं।
काव्य के बाद राधा-कृष्ण की होली के कई प्रसंग गानों में मिलेंगे। इन गानों का आधार भी लोक में प्रचलित उनके किस्से और मान्यताएँ हैं।