हिंदू राष्ट्र दलितों वंचितों के लिये नुक़सानदायक होगा?
2024 का लोकसभा चुनाव बेहद करीब है। सत्तापक्ष यानी नरेंद्र मोदी के मंसूबों लिए यह चुनाव बेहद खास है। जबकि विपक्ष के लिए करो या मरो की स्थिति है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक पांच महीने तक अनवरत (7 सितंबर,2022 से 26 जनवरी2023) पैदल चलते हुए राहुल गांधी ने 4000 किमी की भारत जोड़ो यात्रा की। नरेंद्र मोदी की भय, नफरत और विभाजन की राजनीति के बरक्स राहुल गांधी ने सौहार्द और प्रेम का संदेश दिया। इस यात्रा से उपजे माहौल में विपक्षी दल एकजुट होने लगे। मई 2023 में विपक्ष की पहली बैठक पटना में हुई। इसके बाद बंगलौर, मुंबई और दिल्ली में इंडिया अलाइंस बनकर तैयार हुआ। लेकिन जनवरी 2024 तक आते आते राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं और निजी स्वार्थ टकराने लगे। गठबंधन की शुरुआत करने वाले नीतीश कुमार अब फिर से नरेंद्र मोदी के पाले (पहलू ) में जा चुके हैं। इंडिया गठबंधन से विपक्ष का मजबूत नैरेटिव बना था। नीतीश कुमार के जाते ही मोदी की गोदी में बैठा मीडिया रात दिन इसे कमजोर बताने में लगा हुआ है।
क्या यह चुनाव गोदी मीडिया के नैरेटिव पर लड़ा जाएगा? विपक्ष की एकजुटता में आई दरार के बावजूद यह चुनाव मोदी के लिए कतई आसान नहीं है। यही कारण है कि भाजपा अपने नए-पुराने तमाम साथियों को साधने में लगी है। दरअसल, यह चुनाव देश के दलितों और वंचितों के अस्तित्व की लड़ाई का सबसे बड़ा चुनाव होने जा रहा है। दूसरे शब्दों में, 2024 का चुनाव यह तय करेगा कि दलितों वंचितों का भविष्य सुरक्षित रहेगा या नहीं। डॉ आंबेडकर ने 1940 में ही इस चुनौती को समझ लिया था। उन्होंने अपनी किताब 'पाकिस्तान : द पार्टीशन आफ इंडिया' में स्पष्ट तौर पर लिखा था कि अगर हिंदू राष्ट्र बनता है तो यह करोड़ों दलितों के लिए बड़ी आपदा साबित होगी। इसलिए किसी भी कीमत पर इसे रोका जाना चाहिए। उन्होंने यह भी जोड़ा कि हिंदू राष्ट्र ब्रिटिश हुकूमत से भी ज्यादा क्रूर होगा। आज एक तरफ तमाम बाबा और हिंदुत्ववादी संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का ऐलान कर रहे हैं तो दूसरी तरफ सत्तातंत्र के जरिए बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा निर्मित संविधान को धीरे-धीरे कुतरा जा रहा है। भाजपा के कतिपय नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष संविधान को बदलने की बात कह चुके हैं।
गांधी, नेहरू और अंबेडकर के समय से मौजूद हिन्दुत्ववादियों के मंसूबे जगजाहिर हैं। हिंदुत्व के नायक सावरकर ने आजादी के आंदोलन में खुलेआम अंग्रेजों का साथ दिया। भारत छोड़ो आंदोलन और सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के संघर्ष के समय सावरकर ने अंग्रेजी सेना का सहयोग किया। आजादी और नया संविधान हिन्दुत्ववादियों को कतई नहीं भाया। इसलिए वे विभाजन के समय सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने के लिए खासकर पाकिस्तान से आने वाले हिंदुओं और सिक्खों को उकसाने में लगे रहे। गांधीजी की शहादत भी इसी साज़िश का हिस्सा थी। लेकिन इसके बाद लंबे समय तक हिंदुत्ववादी हाशिए पर रहे।
कांग्रेसी सत्ता के सामने विपक्ष के साथ झूठ और फरेब करके हिंदुत्ववादी अपने आपको खड़ा करने की कोशिश करते रहे। अपनी असलियत को छुपाकर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच धर्म के नाम घुसपैठ करते रहे। 90 के दशक में पहली बार उन्हें कामयाबी मिली। मंदिर आंदोलन के उभार के बावजूद वे अल्पमत में रहे। लेकिन 2014 में कारपोरेट के रथ पर सवार होकर झूठ की दुकान सजाकर नरेंद्र मोदी पूरे बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में दाखिल हुए। इसके बाद आरएसएस ने अपने एजेंडे को लागू करना शुरू किया। पहले पांच साल में खासकर मुस्लिम अल्पसंख्यकों के अधिकारों को कुचला गया। उनके खिलाफ सरेआम नफरत और हिंसा हुई। दूसरे कार्यकाल में मोदी संघ के असली एजेंडे की तरफ बढ़े। दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के अधिकारों और अवसरों को कुचला जाने लगा। जाति-व्यवस्था के पेंच कसे जाने लगे और हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुनादी की जाने लगी। उस संविधान को हटाने की बात होने लगी, जिसने वंचितों की सदियों की गुलामी से मुक्त किया। धर्मग्रंथों के जरिए वर्ण और जाति-व्यवस्था को जायज ठहराने की साज़िश की जा रही है। बाबासाहेब आंबेडकर दलितों, शूद्रों और स्त्रियों की गुलामी के लिए धर्मग्रंथों को ही सबसे बड़ा जिम्मेदार मानते थे क्योंकि इनके जरिए उस व्यवस्था को ईश्वरीय विधान बनाया गया।
पिछले एक दशक में हिंदुत्व का चेहरा दलितों ने देखा। ऊना (जुलाई ,2016) में दलित नौजवानों को सरेआम नंगा करके पीटा जाना और हाथरस (सितंबर 2020) में दलित बेटी की बलात्कार जैसी तमाम घटनाएं इस बात की गवाह हैं कि डॉ. अंबेडकर की आशंका गलत नहीं थी। दलित उत्पीड़न की घटनाएं तो पहले भी होती रही हैं लेकिन इन 10 सालों में एक बड़ा बदलाव आया है। अब उत्पीड़नकारियों का समर्थन हिंदुत्ववादी संगठन करते हैं। सत्तातंत्र अपराधियों को बचाने में लग जाता है। हाथरस में बलात्कारियों के समर्थन में एक पूरा जलसा किया गया जिसमें भगवा झंडा लहरा रहे थे और जय श्रीराम के नारे लग रहे थे। इस तरह की घटनाएं निरंतर दुहराई जा रही हैं। हिंदुत्ववादियों के इन नारों में अन्याय और उत्पीड़न की चीत्कार का गला घोंटा जा रहा है।
2024 आरएसएस का शताब्दी वर्ष है। 100वें साल में संघ अपने हिंदू राष्ट्र के सपने को पूरा करना चाहता है। नरेन्द्र मोदी संघ के प्रचारक रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुरु दक्षिणा में संघ को हिंदू राष्ट्र सौंपना चाहते हैं। नई संसद में सेंगोल की स्थापना से लेकर राममंदिर के उद्घाटन में समूचे देश को भगवामय बनाकर हिन्दू राष्ट्र की पृष्ठभूमि तैयार की जा रही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बाबासाहेब अंबेडकर की चुनौती पराजित हो जाएगी? अथवा इस चुनाव में दलित वंचित समाज डटकर हिंदूत्ववादी ताकत का मुकाबला करेगा?
विपक्ष भले ही एकजुट ना दिखाई पड़ रहा हो लेकिन दलितों पिछड़ों और आदिवासियों का जागरूक तबका एकजुट होकर संविधान और लोकतंत्र को बचाए रखने की अपनी जिद पर अड़ा हुआ है। अपने अधिकारों के प्रति चेतना संपन्न दलित वंचित समाज हिंदुत्ववादी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए बेताब नजर आ रहा है।
(प्रो. रविकान्त दलित चिंतक हैं)