हरिशंकर परसाई: ‘आवारा भीड़ के ख़तरे आज भी हैं…’
हरिशंकर परसाई इस धरती पर 71 साल तक रहे। जब तक जिये लगातार लिखते रहे। परसाई को दुनिया छोड़े 27 साल हो गये हैं। मान लीजिये अगर परसाई होते तो क्या करते? इस तरह का सवाल आमतौर पर बड़े राजनेताओं को लेकर पूछे जाने की परंपरा रही है, मसलन आज गांधी होते तो क्या करते? ऐसे सवाल इतने उबाऊ लगते हैं कि खुद परसाई समेत तमाम बड़े व्यंग्यकार कभी ना कभी इनका मजाक उड़ा चुके हैं। जो गुजर गया तो उस पर बात करने का क्या फायदा?
लेकिन परसाई गुजरा हुआ कल नहीं हैं। वे हमारा वर्तमान भी हैं और आगे देखने का एक ज़रिया भी। बेशक परसाई नास्त्रेदामस नहीं थे। लेकिन भारतीय समाज और राजनीतिक व्यवस्था पर की गई उनकी भविष्यवाणियाँ नास्त्रेदामस से भी ज़्यादा सटीक साबित होती आई हैं।
परसाई के होने की कल्पना व्यावहारिक तौर पर भी संभव है। अगर आज वे होते तो उनकी उम्र उतनी ही होती जितनी अटल बिहारी वाजपेयी या दिलीप कुमार की है। मान लीजिये परसाई होते और शारीरिक-मानसिक तौर पर सक्रिय होते, तो क्या लिखते? मेरा जवाब है, कुछ भी नहीं। उनसे व्यंग्य रचना की फरमाइश की जाती तो वे कहते कि मेरी फलां रचना पढ़ लीजिये जो मैंने आज से 50 साल पहले लिखी थी। हालात तो अब भी वैसे ही हैं, फिर मैं दोबारा अपनी स्याही क्यों बर्बाद करूँ?
परसाई ने लिखा था कि विदेशों में जिस गाय का दूध बच्चों को पुष्ट कराने के काम आता है, वही गाय भारत में दंगा कराने के काम में आती है। क्या यह सच्चाई बदल गई है? परसाई ने लिखा है, इस देश में गोरक्षा का जुलूस सात लाख का होता है, मनुष्य रक्षा का मुश्किल से एक लाख का। वे यह भी लिखते हैं— अर्थशास्त्र जब धर्मशास्त्र के ऊपर चढ़ बैठता है तो गोरक्षा आंदोलन का नेता जूतों की दुकान खोल लेता है। मुझे नहीं लगता है कि मौजूदा संदर्भों में इन वाक्यों की सच्चाई समझने में किसी को कोई कठिनाई होगी, अगर वह समझना चाहे।
परसाई बड़े कैनवास और बड़ी स्थापनाओं के रचनाकार थे। सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों को उन्होंने जिस समग्रता से देखा, उस तरह हिंदी के बहुत कम रचनाकार देख पाये। यही वजह है कि देश में जब भी कोई बड़ी हलचल होती है, बड़े सवाल उठते हैं, तो परसाई का लिखा कुछ न कुछ ज़रूर याद आ जाता है। दुष्यंत कुमार आधुनिक भारत के सबसे ज़्यादा बार कोट किये जाने वाले शायर हैं तो परसाई सबसे ज्यादा बार उद्धृत किये जाने वाले गद्यकार। घोटाले इस देश में 50 के दशक में भी होते थे और अब भी होते हैं। लेकिन सिर्फ छोटी मछलियां ही क्यों फंसती है, बड़े लोग क्यों बेदाग निकल जाते हैं? यह सवाल हर भारतीय के जेहन में बार-बार कौंधता है। अब ज़रा परसाई का लिखा हुआ पढ़िये—
'शासन का घूंसा किसी बड़ी और पुष्ट पीठ पर उठता तो है, पर न जाने किस चमत्कार से बड़ी पीठ खिसक जाती है और किसी दुर्बल पीठ पर घूंसा पड़ जाता है।'
`भ्रष्टाचार मिटाओ’ से लेकर `ना खाऊँगा ना खाने दूंगा’ जैसे नारे देश लगातार सुनता आया है और इन नारों के बीच मारुति घोटाले से लेकर व्यापमं घोटाले तक ताक़तवर लोगों के अनगिनत कारनामे देखता आया है। राजनीतिक तंत्र बहुत संवेदनशील है, नेता बहुत ईमानदार हैं और सरकारें बहुत सजग हैं तो फिर गोलमाल का ये सिलसिला क्यों नहीं रुकता? परसाई ने एक जगह लिखा है—
"सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिये चूहेदानियां रखी हैं। एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की। उनमें घुसने के छेद से बड़े छेद पीछे से निकलने के लिये हैं। चूहा इधर फंसता है और उधर से निकल जाता है। पिंजड़े बनाने वाले और चूहे पकड़ने वाले चूहों से मिले हैं। वे इधर हमें पिंजड़ा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं। हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है।"
अक्सर परसाई को इस बात का क्रेडिट दिया जाता है कि उन्होंने व्यंग्य को हिंदी में एक साहित्यिक विधा का दर्जा दिलाया। मेरे हिसाब से परसाई का वास्तविक योगदान इससे बहुत बड़ा है। पांच या दस आलोचकों की मंडली किसी लेखक की तारीफ़ करे या ना करे, किसी विधा को साहित्य का दर्जा दे या ना दे, इससे फर्क क्या पड़ता है? मूल बात ये है कि परसाई ने देश, काल, समाज, राजनीति और दर्शन से जुड़े गूढ़ बातें बहुत आसानी से पाठकों को समझाईं। सच पूछा जाये तो साहित्य का बुनियादी उद्देश्य संप्रेषण है और यह संप्रेषण जितना सहज होगा, उतना ही कामयाब होगा। परसाई ने आलोचकों के लिए कभी कुछ नहीं लिखा, जो कुछ लिखा, हिंदी के आम पाठकों के लिए लिखा। कालजयी और मालजयी होने की इच्छाओं से परे वे अपने पाठकों से लगातार बोलते बतियाते रहे और पाठक इस संवाद का मजा लेता रहा, उससे बहुत कुछ हासिल करता रहा। बतौर लेखक परसाई की सबसे बड़ी कामयाबी यही थी।
देश की राजनीति और समाज से जुड़ा शायद ही कोई ऐसा सवाल हो, जिसपर परसाई की साफ और समग्र दृष्टि ना पड़ी हो। पोंगापंथ से उन्हें चिढ़ थी। गुरु-शिष्य परंपरा में उनका यकीन नहीं था। पाखंड चाहे गांधीवादियों की हो, संघियों की हो या वामपंथियों की। परसाई ने सबकी बखिया बराबर उधेड़ी। पाखंडियों के लिए उन्होंने एक जगह लिखा है— "मानवीयता उन पर रम के किक की तरह चढ़ती है। उन्हें मानवीयता के फिट आते हैं।" वे कहते थे कि इस देश के आम आदमी में अद्भुत सहनशीलता और भयानक तटस्थता है। कोई पीटकर पैसे छीन ले तो दान का मंत्र पढ़ने लगता है।
चूंकि परसाई ने हर तरह के पाखंड का मजाक उड़ाया है, इसलिए पाठकों की सुविधा है कि वे अपनी ज़रूरत के हिसाब से उन्हें कोट करें। परसाई का एक कोट आजकल खूब इस्तेमाल होता है— `बुद्धिजीवी वह शेर होता है, जो सियार की बारात में बैंड बजाता है।’ मान लीजिये परसाई का कहा मानकर बुद्धिजीवी सचमुच शेर हो जायें और सियारों की बैंड बजाने लगें तो क्या होगा? जो सियार तालियाँ बजा रहे हैं, वही सियार शेर बनकर गुर्राने लगेंगे। समाज के हर दौर का सच यही रहा है।
व्यंग्य लेखन कबीर जैसा निर्लिप्तता और निरपेक्षता की मांग करता है। परसाई का निजी और लेखकीय जीवन दोनों उसी तरह के थे। उनकी हर रचना बताती है कि व्यंग्य न तो किसी के पक्ष में होता है और न किसी के खिलाफ। व्यंग्य न तो दरबारी हो सकता है और न संस्कारी।
टेढ़ापन ही व्यंग्य का बुनियादी संस्कार है, उसका मूल स्वभाव है। टेढ़ापन ही व्यंग्य की उम्र तय करता है। ये टेढ़ापन कबीर में था, इसलिए उनकी वाणी अमर है। परसाई में भी स्वभाविक रूप से यह टेढ़ापन था। इसलिए उनके लाखों पाठकों की कई रचनाएँ अब भी याद हैं।
परसाई भारतीय समाज के लिए एक प्रकाश पुंज हैं, जिसकी रौशनी में वह सबकुछ बहुत साफ-साफ देख सकता है। अगर नई पीढ़ी के किसी लेखक से यह कहा जाये कि वह परसाई की तरह लिखता है, तो यकीनन वह इसे कंप्लीमेंट मानेगा। दरअसल, यह कंप्लीमेंट से ज्यादा उस लेखक के लिए चुनौती है। जो विशाल दायरा परसाई बना गये हैं, उससे बाहर निकलकर वह देश और समाज को किस तरह देखे। दायरा इतना बड़ा है कि कुछ छूटा नहीं है। यही वजह है कि परसाई के समकालीन और उनके बाद के अनगिनत रचनाकारों में परसाई के लेखन की अच्छी या बुरी छाप दिखती है।
अब आते हैं, फिर से उस पुराने सवाल पर। परसाई अगर आज होते तो क्या होता? मेरी राय यही है कि परसाई कुछ नहीं लिखते। लेकिन वे अपनी कांपती और लड़खड़ाती आवाज में अपनी मशहूर रचना `आवारा भीड़ के खतरे’ का एक अंश ज़रूर पढ़ते—
`मैं देख रहा हूं कि नई पीढ़ी अपने ऊपर की पीढ़ी से ज्यादा जड़ और दकियानूसी हो गई है। दिशाहीन, बेकार, हताश और विध्वंसवादी युवकों की यह भीड़ ख़तरनाक होती है। इसका उपयोग महत्वाकांक्षी और खतरनाक विचारधारा वाले समूह कर सकते हैं। इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया था। यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है। हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है। इसका उपयोग भी हो रहा है। आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए और लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है।’
(साभार - राकेश कायस्थ की फेसबुक वाल से)
(ये लेख पहले फ़र्स्ट में छप चुका है)