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हिंदी वाले हीनताबोध और हिंसा से क्यों भरे हैं? 

हिंदी वाले हीनताबोध और हिंसा से क्यों भरे हैं? 

हिन्दी दिवस नजदीक है। 14 सितंबर को है। हिन्दी की दुर्दशा पर लंबी-लंबी बातें होना शुरू हो चुकी हैं। स्तंभकार और चिन्तक अपूर्वानंद का कहना है कि हिन्दी अभी तक ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है। हमारी युवा पीढ़ी हिन्दी अखबारों पर ज्ञान के लिए निर्भर नहीं है। हिन्दी अखबारों से मौलिक चिन्तन और विशेषज्ञों के लेख गायब हैं। ऐसे में हिन्दी की दुर्दशा स्वाभाविक है। टीवी चैनलों ने हिन्दी को सक्रिय घृणा और हिंसा के प्रचार की भाषा बना दी है।

कुछ रोज़ पहले समाजशास्त्री सतीश देशपांडे का फ़ोन आया:“एक आश्चर्य की बात बतानी है। मुझे ‘दैनिक भास्कर’ ने जाति-जनगणना पर लेख लिखने को कहा है।” जाति के विषय पर अपने अध्ययन और शोध के लिए  ख्यातिलब्ध समाजशास्त्री से कोई अख़बार लिखने को कहे, इसमें आश्चर्य क्यों होना चाहिए? लेकिन सतीश को लिखने का न्योता पाकर ताज्जुब हुआ! मैं उन्हें आश्वस्त किया कि आज के वक्त भी कभी कभी ऐसा होता है कि अख़बार निष्पक्ष दिखना चाहते हैं। इसलिए वे ऐसे लेखकों से भी लिखने को कहते हैं जो आज की सरकार के आलोचक माने जाते हैं। दो रोज़ बाद सतीश से दुबारा बात हुई। “‘दैनिक भास्कर’ ने लेख छापने से मना कर दिया”, उन्होंने बतलाया। यह सुनकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। सतीश को लिखने के लिए कहना ही अपवाद था, उनका लेख छापने से मना कर देना आज की हिंदी पत्रकारिता के लिहाज़ से स्वाभाविक ही था।

जो सतीश के साथ हुआ, वह कई दूसरे लेखकों के साथ हो चुका है या होता रहता है। इन पंक्तियों के लेखक का अनुभव भी ऐसा ही रहा है। यह परिघटना पिछले 10 सालों की है। हिंदी अख़बारों से ऐसे लेखक ग़ायब हो गए हैं जिन्हें आज की सत्ता का आलोचक माना जाता है या जो आम तौर पर हिंदुत्ववादी विचारधारा के आलोचक हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि अलग अलग विषयों के विशेषज्ञों के लेख हिंदी अख़बारों में नहीं मिलते। इसका कारण सीधा है: जो भी गंभीर अध्येता या विद्वान है, प्रायः वह इस सत्ता का आलोचक है।

हिंदी अख़बारों में अब मात्र उनके लेख मिलते हैं, जो आज की सत्ता की परिभाषा के अनुसार ‘राष्ट्रवादी’ हैं। इस कारण विश्लेषण और आलोचना का हिंदी से लोप हो गया है।

सतीश के साथ हुई इस घटना से कुछ साल पहले मेट्रो में सफ़र करते हुए कुछ नौजवानों के बीच अख़बारों को लेकर चुहलबाज़ी की याद आई।उनमें से एक के हाथ में हिंदी का ‘सबसे लोकप्रिय अख़बार’ था और दूसरे उसे चिथड़ा कह रहे थे। मैंने पूछा कि आप इस अख़बार से क्यों नाराज़ हैं। उन्होंने कहा कि इससे हमें न कोई खबर मिलती है, न सही सूचना मिलती है, आज के मसलों को समझने में मदद करने के लिए लेख भी नहीं। मैंने जानना चाहा कि फिर वे क्या पढ़ते हैं। उन्होंने कुछ अंग्रेज़ी अख़बारों और पत्रिकाओं का नाम लिया। निष्कर्ष यह है कि हिंदी को न तो सूचना की भाषा माना जाता है, न ज्ञान की।

इस स्तंभ के प्रकाशित होने के 3 रोज़ बाद 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाएगा और कई संस्थान अपनी श्रद्धा और अपने बजट के हिसाब से हिंदी सप्ताह, पखवाड़ा और मास का आरंभ करेंगे। उस समय हिंदी की महिमा का गान किया जाएगा। विश्वविद्यालयों में वैश्विक भाषा के रूप में हिंदी पर गोष्ठियाँ की जाएँगी और इस पर भी विचार किया जाएगा कि हिंदी में रोज़गार कैसे पैदा किए जाएँ। साथ साथ इसे लेकर विलाप भी होगा कि क्यों हिंदी को उसका वाजिब स्थान नहीं मिल पाया है और उस रास्ते में कौन कौन बाधक है।

हमने इस टिप्पणी के आरंभ में हिंदी के जिस अभाव की चर्चा की है, उसपर शायद ही विचार किया जाएगा। भारत में हिंदी  की सबसे बड़ी महत्त्वाकांक्षा संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनना है। हिंदी ज्ञान की भाषा नहीं बन पाई है। उसमें किसी भी क्षेत्र में ज्ञान का मौलिक सृजन नहीं होता, यह भी चिंता का कारण नहीं है। यह भी नहीं कि हिंदीवादी सरकार के होने के बावजूद इस कमी को भरने का कोई राजकीय संकल्प नहीं दिखलाई पड़ता। वह मात्र वचन से नहीं, सरकार कितना पैसा लगाती है, इससे तय होगा।

हिंदी की राष्ट्रीय आकांक्षा सरकारी भाषा या राजभाषा बन जाने की है। उसमें वह अब तक अंग्रेज़ी को अपदस्थ नहीं कर पाई है, इससे हिंदीवालों में हीनता बोध और हिंसा दोनों ही भर गई है। वे इसपर विचार नहीं कर पाते कि क्यों इस बहुभाषी देश में सिर्फ़ एक हिंदी दिवस पर सरकारें पैसा ख़र्च करती हैं और या वह दूसरी भाषाओं की क़ीमत पर किया जा रहा है। क्या यह नैतिक है और उचित है? 

इन प्रश्नों के अलावा हिंदी के भीतरी सवाल हैं जिनकी चर्चा हमने शुरू में ही की है। हिंदी में पहले से मौजूद सांप्रदायिक रुझान अब उसका स्वभाव बनता जा रहा है। अख़बार और टी वी चैनलों के ज़रिए जो हिंदी बन रही है, वह सूचना का माध्यम नहीं है, प्रायः सूचना पर पर्दे का काम करती है। इतना ही नहीं, वह सक्रिय घृणा और हिंसा के प्रचार की भाषा बन गई है।

इसके साथ यह भी सच है कि उच्च स्तर की अकादमिक हिंदी और इस ‘लोकप्रिय’ हिंदी में शायद  ही कोई मेल हो। हर साल हमारे पास जो शोध प्रस्ताव आते हैं, उनमें वह सांप्रदायिकता नहीं दिखती जो अख़बारों या मीडिया का स्वभाव है। उन प्रस्तावों में बाक़ी जो भी कमी हो, उनके प्रश्न प्रायः उदार और प्रगतिशील चिंताओं को ही व्यक्त करते हैं।

लोकप्रिय हिंदी और अकादमिक हिंदी में यह जो बड़ी फाँक है उसे कैसे समझें? इस अंतर्विरोध का समाधान हिंदीवाले कैसे करेंगे? जो बात अकादमिक हिंदी के बारे में सही है, वही हिंदी साहित्य के बारे में कही जा सकती है। मैं प्रायः अपनी कक्षा में इसपर सोचता हूँ कि सुबह सुबह ‘दैनिक जागरण’ या ‘दैनिक भास्कर’ पढ़ने के बाद प्रेमचंद या कृष्णा सोबती के पाठों का सामना करते हुए उन्हें कितना सदमा होता होगा? क्या वे अपनी कक्षाओं और पाठों को ईमानदार मानें या इस ‘लोकप्रिय हिंदी’ को? 

इसी के साथ अकसर मैं यह भी सोचता हूँ कि हिंदी की उच्चस्तरीय कक्षाओं में आनेवाले उस स्कूली हिंदी में दीक्षित हैं जिसकी पहली चिंता शुद्धता, राष्ट्रवाद और सामाजिक नैतिकता की रक्षा की है। स्कूल और कॉलेज के बीच यह जो अवधारणात्मक और भावनात्मक खाई है उसे कैसे पाटा जाएगा?

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