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हिंदी में परायापन क्यों महसूस कर रहे हैं मंगलेश डबराल?

हिंदी में परायापन क्यों महसूस कर रहे हैं मंगलेश डबराल?

मंगलेश डबराल ने क्यों लिखा कि हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है...इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है?

“हिंदी में कविता, कहानी, उपन्यास बहुत लिखे जा रहे हैं, लेकिन सच यह है कि इन सबकी मृत्यु हो चुकी है हालाँकि ऐसी घोषणा नहीं हुई है और शायद होगी भी नहीं क्योंकि उन्हें ख़ूब लिखा जा रहा है। लेकिन हिंदी में अब सिर्फ़ 'जय श्रीराम' और 'वन्दे मातरम्' और 'मुसलमान का एक ही स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान' जैसी चीज़ें जीवित हैं। इस भाषा में लिखने की मुझे बहुत ग्लानि है। काश, मैं इस भाषा में न जन्मा होता।” मंगलेश डबराल की इस टिप्पणी के बाद उनपर चारों ओर से हमला हो रहा है। उन्हें बताया जा रहा है कि उनकी यह हताशा उनकी अपनी समस्या है। उन्हें हिंदी पर ऐसी नकारात्मक टिप्पणी लिखने के पहले प्रेमचंद, निराला, उग्र, महादेवी, आदि के साहित्य की याद दिलाई जा रही है। उनकी निराशा के लिए उन्हें दुत्कारा जाता रहा है। हिंदी में प्रतिरोध की परंपरा और विद्रोह या क्रांति की धारा का उल्लेख कर कहा जा रहा है कि ऐसी हिंदी में लिखने पर ग्लानि कैसे हो सकती है और क्योंकर!

इस हमले में आज के क्षण की पहचान है। जब अनंतमूर्ति ने कहा था कि वे उस भारत में नहीं रहना चाहेंगे जिसमें नरेंद्र मोदी नीत भारतीय जनता पार्टी का शासन हो, तो उनपर इसी तरह आक्रमण हुआ था। कुछ लोग उन्हें पाकिस्तान का टिकट ही भेज रहे थे। जब आमिर ख़ान ने अपनी पत्नी का हवाला दिया कि भारत में भय के चलते कभी-कभी देश छोड़कर चले जाने की बात मन में आती है तो आमिर ख़ान पर भारत जैसे महान देश का अपमान करने का आरोप लगाया गया और उनकी लानत-मलामत की गई।

मंगलेश पर हमला अगर वैसे ही दक्षिणपंथी करते जैसे अनंतमूर्ति या आमिर ख़ान पर किया था तो कोई बात न थी। उनपर टूट पड़नेवालों में वामपंथी या उदारमना और उनमें भी युवा हैं, तकलीफ़ इससे है। मंगलेश के इस कथन में जो व्यथा है, उसे नज़रंदाज़ करने के लिए ख़ासी क्रूरता चाहिए। या, यही कहा जाता सकता है कि हिंदी अब पूरी तरह अभिधा की भाषा हो चुकी है, उसमें व्यंजना का स्थान ही नहीं रहा!

कुछ को शायद ऐतराज़ न होता अगर वह यह न लिखते कि हिंदी में कविता, कथा, आदि की मृत्यु हो चुकी है। इससे अभी सक्रिय रचनाकारों को लगा कि यह उनपर टिप्पणी है। लेकिन यह उनसे ज़्यादा हिंदी समाज पर टिप्पणी है। मेरे जीवित होने का क्या मतलब अगर मेरे वजूद से मेरे माहौल पर कोई असर ही न पड़े! 

कविताएँ, उपन्यास ख़ूब लिखे जा रहे हैं लेकिन क्या वे हिंदी की चेतना का निर्माण कर पा रहे हैं इसमें न्यूनता उनकी हो, आवश्यक नहीं। लेकिन यह तथ्य तो है!

यह लेकिन संयोग ही है कि इस बहस के बीच ‘हिंदू’ अख़बार में रुचिर जोशी का एक लेख छपा, ‘क्या हिंदी जर्मन की राह जा रही है’ लेख अंग्रेज़ी में है, लेखक भी अंग्रेज़ी के ही हैं, इसलिए उनपर हिंदी विरोधी का बिल्ला तुरंत चिपका दिया जा सकता है। लेकिन जो इस हिंदी राष्ट्रवाद के शिकार नहीं हुए हैं वे लेख के अंतिम हिस्से को ज़रूर ध्यान से पढ़ेंगे। 

रुचिर उस नुक़सान की बात करते हैं जो राजनीतिक दुरुपयोग के चलते किसी भाषा को होता है। 1945 के बाद सिर्फ़ जर्मन या जर्मनी ही नहीं जर्मन भाषा से भी यूरोप में विरक्ति सी हो गई थी। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता था कि वह रिलके या गेटे की भाषा है या इसी में काफ़्का या हाईन जैसे यहूदियों ने भी लिखा था। कहने को यह भी कह सकते हैं कि जो भाषा कार्ल मार्क्स की हो, उसपर कोई तोहमत कैसे लगाई जा सकती है। या, भाषा को आख़िर कैसे दोषी ठहराया जाता सकता है लेकिन रुचिर के मुताबिक़ 1925 से 1945 तक जर्मन जिस घिनौने जनसंहार और नस्लवादी विचार की वाहक हो गई थी, उसके कारण उसकी छवि भी बदल गई थी।

रुचिर आशंका व्यक्त करते हैं कि हिंदी जिस तरह बहुसंख्यकवाद और हिंसा के प्रचार का माध्यम बन गई है, जिस तरह वह मुसलमान विरोध और हत्या की संस्कृति की प्रचारक बन गई है, कहीं वह भी हिटलर की जर्मन की राह न जा रही हो

भाषा का इस्तेमाल किस राजनीति के लिए किया जा रहा है, यह प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। अभी जब केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री ने अपने मंत्रालय के सारे कामकाज हिंदी में करने का ऐलान किया तो किसी हिंदीवाले ने इसके पीछे की राजनीति की आलोचना नहीं की। वे चुप रहे। क्या इसलिए कि हिंदी का प्रसार हो रहा था इसके पहले जब हिंदी को सारे भारत के लिए अनिवार्य करने का प्रस्ताव लाया गया तब भी हिंदी के लोग चुप रहे।

अटल बिहारी वाजपेयी ने जो संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी का प्रयोग किया, उसकी भी एक राजनीति थी। संयुक्त राष्ट्र सभा में हिंदी को एक भाषा बनाने का हम समर्थन ही करते रहे। उसपर भी हम चुप रहे। हमने अभी तक हिंदी दिवस जैसे पाखंड को ख़त्म करने की माँग भी नहीं की है जबकि भारतीय करदाता के पैसे से और कोई भाषा दिवस इस तरह नहीं मनाया जाता। यह सब कुछ एक हिंदी राष्ट्रवाद की अलग-अलग अभिव्यक्तियाँ हैं।

शब्दों का विभाजन क्यों

हिंदी का संचार माध्यम किसी दबाव में नहीं स्वेच्छापूर्वक बहुसंख्यकवादी है। हिंदी की स्कूली कक्षाओं में शुद्ध हिंदी के जो कीटाणु डाले जाते हैं वे शुद्ध रक्त और बाहरी दूषण से मुक्त राष्ट्र के विचार के वाहक हैं। हिंदी में शब्दों को तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज की जिन श्रेणियों में विभाजित किया जाता रहा है, वह क्या सिर्फ़ शब्दों का विभाजन है

2005 की स्कूली पाठ्यचर्या के निर्माण के समय हिंदी व्याकरण पर हुई चर्चा में प्रोफ़ेसर नामवर सिंह ने प्रस्ताव किया था कि शब्दों का यह विभाजन पढ़ाया जाना बंद किया जाना चाहिए। वह नहीं हुआ। अभी भी हिंदी अध्यापक हिंदी से पराए शब्दों को निकाल बाहर करते ही हैं। यही हिंदी वह है जो जनसंहार की संस्कृति की प्रचारक है और जिसमें अब मंगलेश परायापन महसूस करने लगे हैं।

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