हिंदू पर्दा और मुसलिम हिजाब: औरतों के अधिकारों का हनन
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्कूल-कालेजों में हिजाब पर प्रतिबंध को सही ठहरा दिया है। मेरी राय में हिजाब पहनना और हिजाब पर प्रतिबंध, दोनों ही गैर-जरुरी हैं। हमें उससे आगे सोचना चाहिए। मुसलमान औरतें हिजाब पहनें, हिंदू चोटी-जनेऊ रखें, सिख पगड़ी-दाढ़ी-मूंछ रखें और ईसाई अपने गले में क्राॅस लटकाएं- ये निशानियां धर्म का अनिवार्य अंग कैसे हो सकती हैं?
धर्म तो शाश्वत और सर्वकालिक होता है और इस तरह की ये बाहरी निशानियाँ देश-काल से बंधी होती हैं। आप जिस देश में जिस काल में रहते हैं, उसकी जरुरतों को देखते हुए इन बाहरी चीज़ों का प्रावधान कर दिया जाता है। इन्हें सार्वकालिक और सार्वदेशिक बना देना तो बड़ा ही हास्यास्पद है।
यदि कनाडा की भयंकर ठंड में कोई पुरोहित सिर्फ धोती या लुंगी पहनकर पूजा-पाठ कराए या विवाह-संस्कार करवाए तो उसे ढेर होने से उसका परमात्मा भी नहीं बचा सकता। कनाडा में सिख पगड़ी पहनें तो वहां के मौसम में वह ठीक है लेकिन अरब देशों में वह आरामदेह रहेगी क्या? इसी तरह पैगंबर मोहम्मद के जमाने में श्रेष्ठी महिलाओं को दुष्कर्मियों से बचाने के लिए और चालू औरतों से अलग दिखाने के लिए हिजाब का चलन शुरु किया गया था।
अब उसी परंपरा को डेढ़ हजार साल बाद दुनिया के सभी देशों की मुसलमान औरतों पर थोप देना कहां तक उचित है? दुनिया के कई मुसलिम और यूरोपीय देशों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है, क्योंकि चेहरे को छिपाने के पीछे दो गलत कारण काम करते हैं। एक तो अपराधियों को शै मिलती है और दूसरा सामूहिक अलगाव प्रकट होता है। सांप्रदायिकता पनपती है।
मैं तो सोचता हूं कि हिंदू पर्दा और मुसलिम हिजाब, दोनों ही औरतों के अधिकारों का हनन भी है। ऐसी असामयिक और अनावश्यक प्रथाओं का त्याग करवाने का अभियान धर्मध्वजियों को आगे होकर चलाना चाहिए।
स्कूल-कालेजों में यदि विशेष वेश-भूषा का प्रावधान है तो उसे सबको मानना चाहिए लेकिन यदि कोई छात्रा हिजाब पहनकर कक्षा में आना चाहती है तो वह अपने आप को खुद मजाक का केंद्र बनाएगी। उसका हिजाब अपने आप उतर जाएगा। उसकी अक्ल पर पड़े हिजाब को आप अपने आप क्यों नहीं उतरने देते?
तीन-चार हजार छात्र-छात्राओं के काॅलेज में पांच-छह लड़कियां हिजाब पहनकर आती रहें तो उससे क्या फर्क पड़ना है?
यह हिजाबबाज़ी घोर सांप्रदायिकता, घोर अज्ञान और घोर पोंगापंथ के कारण भी हो सकती है। हमारी मुसलमान माँ-बहनें स्कूलों में ही नहीं, सर्वत्र इससे बचें, इसके लिए कानून से भी ज्यादा जिम्मेदारी है, हमारे मुल्ला मौलवियों की। वे यदि इसलाम को आधुनिक बनाने और उसके बुनियादी सर्वहितकारी सिद्धांतों को मुसलमानों में लोकप्रिय करने का जिम्मा ले लें तो किसी कानून की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।
(डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)