हाईकोर्टों में 78% फीसदी जज ऊंची जातियों के, ऐसा क्यों? 

08:46 am Mar 26, 2025 | सत्य ब्यूरो

हाल ही में एक महत्वपूर्ण सरकारी जानकारी सामने आई है, जिसमें बताया गया कि वर्ष 2018 से हाईकोर्टों में नियुक्त किए गए लगभग 78% जज ऊपरी जातियों से हैं। यह आंकड़ा विधि मंत्रालय ने पेश किया है, जिसमें यह भी उल्लेख किया गया कि इस अवधि में अल्पसंख्यक समुदायों और अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) से केवल 5% जजों की नियुक्ति हुई है। यह खुलासा सामाजिक विविधता को बढ़ावा देने की दिशा में सरकार और न्यायपालिका के प्रयासों पर सवाल उठाता है।

विधि मंत्रालय के अनुसार, 2018 से अब तक उच्च न्यायालयों में कुल जजों की नियुक्ति में से 78% जज सामान्य वर्ग (ऊपरी जातियों) से हैं। इसके विपरीत, अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC), अनुसूचित जाति (SC), अनुसूचित जनजाति (ST) और अल्पसंख्यक समुदायों का प्रतिनिधित्व बेहद कम रहा है। मंत्रालय ने यह भी बताया कि सरकार ने उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से बार-बार अनुरोध किया है कि जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव भेजते समय SC, ST, OBC, अल्पसंख्यक और महिलाओं से संबंधित योग्य उम्मीदवारों पर विशेष ध्यान दिया जाए ताकि सामाजिक विविधता सुनिश्चित हो सके।

कानून मंत्री ने संसद में इस मुद्दे पर कहा कि सरकार उच्च न्यायालयों में सामाजिक विविधता को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। इसके लिए 2018 से एक नई व्यवस्था शुरू की गई, जिसमें जजों के पद के लिए सिफारिश किए गए व्यक्तियों को अपने सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी देना अनिवार्य किया गया। यह प्रारूप सुप्रीम कोर्ट के परामर्श से तैयार किया गया था। मंत्री ने कहा, "हमने उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से यह अनुरोध किया है कि वे नियुक्ति प्रस्ताव भेजते समय सामाजिक रूप से वंचित समुदायों और महिलाओं को प्राथमिकता दें।" लेकिन 2018 से अब तक इस पर कितना अमल हुआ, इस सवाल का जवाब सरकार के पास नहीं है।

जाति जनगणना से भाग रही मोदी सरकार का जवाब इस मुद्दे पर कुछ और है। कानून मंत्री का कहना है कि सरकार के पास इस मामले में सीमित अधिकार हैं। उन्होंने कहा कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार, हाईकोर्टों और सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति का प्रस्ताव सर्वोच्च न्यायालय के कॉलिजियम और संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश पर ही आधारित होता है। मंत्री ने कहा- "सरकार केवल उन व्यक्तियों को जज के रूप में नियुक्त करती है, जिनकी सिफारिश सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम द्वारा की जाती है।" इसके अलावा, जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 124, 217 और 224 के तहत तय होती है।

मंत्री ने बताया कि जजों की नियुक्ति के लिए प्रस्ताव पेश करने की जिम्मेदारी सुप्रीम कोर्ट में भारत के चीफ जस्टिस की होती है, जबकि उच्च न्यायालयों में यह संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पर निर्भर करता है। यह प्रक्रिया मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर (MoP) के तहत संचालित होती है। सरकार का कहना है कि वह लगातार इस बात पर जोर दे रही है कि नियुक्तियों में विविधता लाई जाए, लेकिन अंतिम निर्णय कॉलिजियम के हाथों में होता है। सरकार तमाम संवैधानिक संस्थाओं में अपनी मनमानी कर रही है तो फिर अगर कॉलिजियम गलत है तो सरकार ने अपनी कोशिश क्यों नहीं की। 2014 से बीजेपी के पास केंद्र की सत्ता है। 

इस आंकड़े के सामने आने के बाद सामाजिक संगठनों और विपक्षी दलों ने न्यायपालिका में विभिन्न वंचित समुदायों के जजों की कमी पर सवाल उठाए हैं। कई विशेषज्ञों का मानना है कि ऊपरी जातियों का यह प्रभुत्व देश की विविध आबादी के प्रतिनिधित्व को प्रभावित करता है। वहीं, कुछ का यह भी कहना है कि कॉलिजियम सिस्टम में पारदर्शिता और सुधार की जरूरत है ताकि सभी समुदायों को उचित प्रतिनिधित्व मिल सके।

सरकार ने यह संकेत दिया कि वह इस मुद्दे पर विचार-विमर्श जारी रखेगी और उच्च न्यायालयों में रिक्त पदों को भरने के लिए तेजी से काम कर रही है। हालांकि, यह स्पष्ट है कि सामाजिक विविधता को सुनिश्चित करने के लिए न्यायपालिका और सरकार के बीच बेहतर समन्वय की जरूरत है। इस बीच, यह आंकड़ा भारतीय समाज में समानता और प्रतिनिधित्व के व्यापक सवालों को फिर से चर्चा में ला रहा है।

नेता विपक्ष राहुल गांधी और अन्य विपक्षी दल इसी वजह से बार-बार जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं ताकि सभी समुदायों की भागीदारी पूरे सिस्टम में लाई जा सके। राहुल गांधी ने उदाहरण देकर संसद और संसद से बाहर यह सवाल उठाया है कि सरकार चलाने वाले सचिवों, उप सचिवों के स्तर पर कितने ओबीसी वर्ग के लोग हैं। यही स्थिति तमाम संवैधानिक संस्थाओं की भी है। मोदी सरकार ने लैटरल एंट्री यानी आरक्षण को ताक पर रखकर भर्तियां कीं, उनमें भी ऊंची जाति के लोगों का बोलबाला रहा। सवाल ये है कि जनता आखिर कब तक इन हालात को मूक दर्शक की तरह देखती रहेगी।

रिपोर्ट और संपादनः यूसुफ किरमानी