अंतहीन दर्द झेलते प्रवासी मज़दूरों की मदद: वे अकेले ही चले थे, कारवाँ बनता गया...
कोरोना काल का अधिकांश समय दिल्ली में बीता। चंद रोज़ पहले आवागमन कुछ आसान हुआ तो पत्रकार साथी और मित्र जे पी दीवान के साथ दिल्ली से सड़क मार्ग के ज़रिए भोपाल रवाना हो गया। ई पास ने रास्ते की अड़चनें आसान कर दी थीं। ग्वालियर आते आते हम लोग महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और उत्तर प्रदेश से आ-जा रहे श्रमिकों की दर्दनाक कथाएँ अपनी आँखों से देख चुके थे। मन उदास, बोझिल और अवसाद भरा था। बचपन में गाँव के मेलों में कई किलोमीटर पैदल चलते थे। उत्साह से भरे रहते थे। रास्ते में कहीं खाना खा लिया, कहीं पेड़ के नीचे सो लिए तो कहीं किसी चाय की गुमटी पर गरमागरम चुस्कियाँ लीं। जेब में एक दो रुपए भी होते तो अपने को राजा समझते थे। क्या विरोधाभास था कि एक तरफ़ बचपन की यादों की फ़िल्म चल रही थी तो दूसरी तरफ़ नंगे पाँव, भूखे-प्यासे सर पर गठरियाँ लादे, छोटे बच्चों को साथ लिए पलायन का भयावह मंज़र।
बँटवारे के दौर की कहानियों के पन्ने भी एक एक कर दिमाग़ में फड़फड़ा रहे थे। पाकिस्तान जाने वाले लोग तो ख़ुशी-ख़ुशी अपने नए मुल्क का बाशिंदा बनने के लिए गए थे। वे दुखी भाव से हिन्दुस्तान छोड़कर नहीं गए थे। लेकिन ये बेचारे तो आफ़त के मारे थे। जहाँ दो जून की रोटी कमा रहे थे, वहाँ काम बंद हो गया। मकान मालिक ने किराया नहीं देने के कारण घर से निकाल दिया। बचत के पैसे चुक गए। एक दिन भूखों मरने की नौबत आ गई। श्रमिकों ने सोचा कि सड़कों पर मारे-मारे फिरे तो सचमुच कोरोना से मर जाएँगे। किसी तरह घर पहुँच गए तो शायद ज़िंदा रह जाएँ अन्यथा मरण तो पक्का है। दोनों सूरतों में अगर मरना ही है तो क्यों न अपनी माटी में जाकर मिट्टी में मिल जाएँ। पूर्वजों के आसपास अंतिम संस्कार होगा तो आत्मा को शान्ति मिलेगी। श्मशान तक ले जाने वाले चार कंधे भी मिल जाएँगे।
सरोकारों के सिपाही
वेदना के इस अहसास को भुगतते हुए हम लोग ग्वालियर से डबरा के रास्ते पर थे। हमारे लोकप्रिय जुझारू पत्रकार साथी और समाजसेवी डॉक्टर राकेश पाठक से फ़ोन पर बात हुई। जैसे ही हमने उन्हें ग्वालियर के निकट होने की जानकारी दी, उन्होंने कहा कि हम उनके मिशन -इंसानियत के सिपाही का भोजन चखते हुए जाएँ। हमारे पास अपना भोजन था, इसलिए हम तनिक हिचके। लेकिन उन्हें लगा कि कोरोना के कारण शायद हम बचना चाह रहे हैं। यह देखकर मना नहीं कर सके और इस भव्य ढाबे पर जा पहुँचे। राकेश को मैं क़रीब तीस-पैंतीस बरस से जानता हूँ। मेरे बाद की पीढ़ी में जिन पत्रकारों ने अपने सरोकारों को ज़िंदा रखा है, उनमें वे शिखर पर हैं। हक़ के लिए किसी भी हद तक जाकर संघर्ष करने से वह नहीं झिझकते। अंदर - बाहर आपको एक ही राकेश दिखाई देता है। दो राकेश नज़र नहीं आते। यही पारदर्शिता, ईमानदारी और सचाई उनकी यश - पूँजी है।
निजी ज़िंदगी के तमाम झंझावातों को ताक में रखकर जब सड़क पर उतरते हैं तो फिर पीछे नहीं हटते। ग्वालियर की माटी से यही उनका रिश्ता है। बहरहाल! इसे राकेश का तारीफ़नामा न समझा जाए, पर जो काम उन्होंने सड़क से जा रहे श्रमिकों के लिए किया है, वह वास्तव में उन्हें और उनकी टीम को सर पर बिठाने के लिए पर्याप्त है।
उम्दा भोजन
खाने पर इन श्रमिकों के लिए क्या भोजन उस दिन मेन्यू में था, आप जानकर दंग रह जाएँगे। हम तो अचानक जा टपके थे, लेकिन सबके लिए तैयार थे स्वादिष्ट मालपुए, आलू की तरीदार सब्ज़ी, एक सूखी सब्ज़ी, देसी घी की पूड़ियाँ और मट्ठा। बाद में शुद्ध - साफ़ घड़े की सौंधी महक वाला ठंडा ठंडा पानी। पियो तो पीते ही चले जाओ। राकेश ने भोजन पर अपनी पूरी टीम से भी मिलवाया। असल में राकेश से पहले यह काम एडवोकेट सुश्री अमी प्रबल, वरिष्ठ पुलिसकर्मी अर्चना कंसाना और सचिन कंसाना ने अपने सीमित संसाधनों से शहर के अनेक ठिकानों पर शुरू कर दिया था। इसके बाद डॉक्टर अरविन्द दुबे, जैनेन्द्र गुर्जर और प्रदीप यादव आकर मिले। फिर राकेश पाठक इससे जुड़े। इसके बाद तो इस पुनीत यज्ञ में ढेरों लोग अपनी अपनी आहुति डालने लगे। लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया। जिस राजमार्ग पर ये बेबस और लाचार ज़िंदा लाशों की तरह कंधे पर अपनी सलीब ढोए सबसे ज़्यादा नज़र आए, संयोग से उसी मार्ग पर विरासत ए पंजाब नाम से शानदार ढाबा नया बनकर तैयार हुआ था। उसके मालिक गोपाल सिंह ने उसकी चाबी इंसानियत के इन सिपाहियों को सौंप दी। इसके बाद तो सिलसिला चल निकला।
इंसानियत के फ़रिश्ते
समाज से एक-एक करके मददग़ारों की फौज़ खड़ी हो गई। कोई इन श्रमिकों के लिए फलों का इंतज़ाम करता तो कोई दवाओं का, कोई चरण पादुकाएँ भरकर ले आता तो कोई मास्क और सेनिटाइज़र। इन लाचारों के लिए ढाबे में पंखे की हवा उपलब्ध थी। वे वहाँ मनमर्जी सो सकते थे। अर्चना कंसाना बताते बताते भाव विह्वल हो जाती हैं। प्रवासी महिलाओं की वेदना गाथाएँ सुनकर हम भी अपने को नहीं रोक सके। अमी प्रबल का भी यही हाल था। उन्होंने इन मज़दूरों और उनके परिवारों ख़ासकर बच्चों के बारे में बताया तो सभी सिहर गए। राकेश ने बताया कि अनेक श्रमिक बीमार थे। उनके लिए डॉक्टर को बुलाकर इलाज़ और दवाएँ भी मुहैया कराईं। जिनके लिए संभव था, कुछ नकद रुपए भी हाथ में रख दिए। कई श्रमिकों से हमारी बात हुई।
जेठ की चिलचिलाती गरमी में आसमान से बरसती आग तले सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलना आसान नहीं था। महाराष्ट्र और गुजरात से आए इन मज़दूरों ने जो हाल बयान किया, उसे यहाँ लिखने का भी साहस मेरे पास नहीं है। वे कह रहे थे, ‘यहाँ आकर पता चल रहा है कि हम वाक़ई जीवित हैं। भगवान इन फ़रिश्तों को लंबी उमर दे।’ इसके बाद लिखने को क्या रह जाता है।
चूँकि हमारा सफ़र भी लंबा था। इसलिए इन देवदूतों को सलाम करके हम निकल पड़े। रास्ते भर हमारी चर्चा के केंद्र बिंदु इंसानियत के यही सिपाही थे। ईश्वर कभी दुश्मनों को भी प्रवासी श्रमिकों जैसा दुर्भाग्य न दे।
(राजेश बादल के फ़ेसबुक वाल से।)