क्या भारत ‘धार्मिक अस्पृश्यता’ की ओर बढ़ रहा है?
23 अगस्त 2023 को भारत उन चार देशों में शामिल हो गया जिन्होंने चाँद पर अपना रोवर(एक किस्म का रोबोटिक वाहन) उतारा है। 15 अगस्त 1947 में, 200 सालों से भी अधिक के प्रत्यक्ष औपनिवेशिक शासन के बाद जब भारत आजाद हुआ तब धन और संसाधन की भारी कमी थी, बड़ी संख्या में मौजूद अशिक्षित जनता को अंतरिक्ष विज्ञान जैसे विषय की बारीकियाँ समझाना लगभग असंभव था। इसके बावजूद स्वतंत्र भारत की नींव रखने वाले जवाहरलाल नेहरू जैसे महानायकों ने विक्रम साराभाई जैसे महान वैज्ञानिकों की मदद से देश को इस क्षेत्र में आगे बढ़ाने का निर्णय लिया।
चाँद पर पहुँचने की यात्रा विज्ञान के कदमों से तय की गई है। इस बड़ी उपलब्धि पर भारत के लाखों लोगों ने अपनी सोशल मीडिया तस्वीर को बदला, व्हाट्सऐप में स्टेटस डाले और चंद्रयान-3 मिशन की पूर्ण सफलता का जश्न मनाया। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि संभवतया भारत की करोड़ों की जनसंख्या ने सिर्फ चाँद पर पहुँचने का जश्न मनाया विज्ञान का नहीं। विज्ञान का जश्न वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करता, धर्म के ऊपर मानवता और विज्ञान को आधार प्रदान करता लेकिन ऐसा नहीं हो सका। करोड़ों पोस्टरों और सोशल मीडिया संदेशों के बावजूद अवैज्ञानिकता बनी रही।
मुजफ्फरनगर जिले के खुब्बापुर गांव में एक शिक्षिका ने एक मुस्लिम बच्चे को उसी की कक्षा के अन्य छात्रों से बारी बारी गाल पर तमाचा मारने को कहा। इस बीच महिला शिक्षिका आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करती रही, बच्चा एक घंटे तक अलग-अलग सहपाठियों से मार खाता रहा, शिक्षिका गौरवान्वित होती रही। रोते हुए मासूम बच्चे पर उस महिला को तनिक सी भी दया नहीं आई। पीटे गए बच्चे का पिता निराश है और संभवतया डरा हुआ भी। उसने कहा कि “मैं अपने बच्चे को दोबारा उस स्कूल में नहीं भेजूंगा और जो फीस मैंने जमा की है वे मुझे वापस कर देंगे। समझौता हुआ कि कोई शिकायत दर्ज नहीं कराई जाएगी। टीचर ने बच्चों के बीच दुश्मनी पैदा कर दी है।''
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धर्म के आधार पर मासूम बच्चे की सामाजिक स्थिति और चरित्र का निर्धारण करने की सीख उस महिला को कहाँ से मिली होगी यह सीधे सीधे बताना तो मुश्किल है लेकिन चंद्रयान की सफलता का जश्न मनाने वाला समाज और उसकी खामोशी निश्चित रूप से एक अहम कारण है।
टिक-टॉक और इंस्टाग्राम रील्स के दौर में एक महिला शिक्षिका को यह जरूर पता होगा कि बनने वाला वीडियो वायरल हो सकता है। वीडियो वायरल होने के बाद हो सकता है उसकी बदनामी हो जाए, स्कूल बंद हो जाए या फिर जेल भी हो जाए। लेकिन जिस बेशर्मी से उस महिला ने इस कृत्य को अंजाम दिया और मासूम को असुरक्षित महसूस करवाने और पिटवाने का वीडियो बनवाती रही उससे लगता है कि उसे भरोसा था कि ‘नए भारत’ में मुस्लिमों के खिलाफ नफरत फैलाने के बावजूद उसे कोई नुकसान नहीं होगा, शायद उसे किसी तरह का लाभ ही हो जाए। उसके खिलाफ कार्यवाही होती है या नहीं यह बात सामने आने में अभी वक्त लगेगा लेकिन उस महिला शिक्षिका और ऐसे तमाम लोगों को यह दुस्साहस करने की हिम्मत कहाँ से मिलती है उसके बीज खोजे जा सकते हैं।
मार्च 2021 की उत्तर प्रदेश की घटना है। यहाँ गाज़ियाबाद जिले के डासना क्षेत्र में डासना देवी के मंदिर के पुजारी यति नरसिंहानंद और उसके चेले ने एक मुस्लिम बच्चे को सिर्फ इसलिए पीटा और बेइज्जत किया क्योंकि उस मासूम ने प्यास लगने के कारण मंदिर के अंदर जाकर पानी पी लिया था। मंदिर में लिखी चेतावनी “यहाँ मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है” को पढ़ने से चूक गया था। उसके अनपढ़ पिता को भी यही लगा कि उसके बच्चे की गलती है उसने कहा कि “बच्चा उसी इलाके में था और उसे प्यास लगी। वह चेतावनी संकेत से चूक गया; वह अनपढ़ है। उसने नल देखा और वहां पानी पीने लगा। जब वह दौड़कर घर आया तो उसकी खून से सना सिर देखकर हम डर गए।”
बच्चा और उसका पिता दोनो अनपढ़ थे लेकिन क्या पूरा भारत अनपढ़ है? क्या न्यायपालिका और यूपीएससी से चयनित होकर पहुंचे अधिकारी भी अनपढ़ हैं जो यह नहीं समझ सकते कि कोई भी, कैसा भी संदेश लिखे और वह जगह इस देश में कहीं भी हो, किसी को पानी पीने के अधिकार, जीवन के अधिकार से वंचित रखने का अधिकार और सामर्थ्य किसी में नहीं है। ऐसे पोस्टर उखाड़ कर फेंक देना चाहिए था क्या किसी अधिकारी में यह हिम्मत नहीं थी?लेकिन चंद्रयान का स्टेटस लगाने वाली जनता को कुछ खास बुराई नहीं समझ आई इसमें। एक पूर्णतया मृत समाज ही ऐसी हरकत को बर्दाश्त कर सकता था, ताज्जुब की बात इस हरकत को बर्दाश्त कर लिया गया।
यति नरसिंहानन्द खुलेआम धार्मिक आधार पर अस्पृश्यता को बढ़ावा दे रहा था लेकिन उसे कोई रोकने वाला नहीं। देश के सर्वोच्च न्यायालय तक भी यह बात पहुंची होगी, न्यायधीशों ने अवश्य यह बात पढ़ी होगी, लेकिन स्वतः संज्ञान लेकर कठोर संदेश देने का काम नहीं किया गया।
उत्तराखंड में खुलेआम मुस्लिम व्यापारियों का बायकाट करने का आह्वान किया गया लेकिन न्यायालय और सरकार चुपचाप सब देखती रही। सैकड़ों की संख्या में लोगों का विस्थापन हो गया लेकिन प्रशासनिक धर्मांधता और कायरता ने लीपापोती के अतिरिक्त कुछ और नहीं किया। कर्नाटक में बेवजह हिजाब को लेकर अभियान चलाया गया, पूरा देश खामोशी से सब देखता रहा। मोनू मानेसर जैसे लोग पैदा होते रहे और गो-रक्षा के नाम पर लोगों की हत्या करते रहे।
स्पष्ट रूप से मुस्लिम विरोधी भाषा बोलने वाले मुख्यमंत्री केंद्र के उत्तर-पूर्व में पहरेदार बने हुए हैं और दिल्ली से सटे हुए राज्य के एक मुख्यमंत्री एक ओटीटी रीऐलिटी शो पर विजयी हुए एक व्यक्ति को, जो सिर्फ मुस्लिम विरोधी प्रॉपगेंडा चलाता रहा, उसे बधाई देने एक सार्वजनिक मंच पर जा पहुंचे। उसका हाथ उठा उठा कर इतना प्रोत्साहन दिया जैसे वह भारत विजय करके आया हो।
एक तरफ सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की नाक के नीचे एक व्यक्ति एक ऐसा चैनल चला रहा है जो मुस्लिमों के खिलाफ़ ‘लव जिहाद’ और ‘लैंड जिहाद’ जैसी तथ्यहीन बातें फैलाता है, जो खुलकर ऐसे आदमी दारा सिंह को जेल से बाहर निकालने के लिए आंदोलन चलाता है जो एक ईसाई परिवार जिसमें बच्चे भी शामिल थे उनको बंद कार में आग लगाकर जिंदा जला देने का आरोपी है, ऐसा आदमी स्वयं को पत्रकार कहता है और खुलेआम सैकड़ों लोगों के बीच कहता है कि “अगर जरूरत पड़ी तो हम मारेंगे और इसके लिए मरेंगे भी। लेकिन हम किसी भी कीमत पर देश को हिंदू राष्ट्र घोषित करेंगे।' हमारे पूर्वज और देवता हमें अपना लक्ष्य हासिल करने की शक्ति दें।”इनका समर्थक और करणी सेना का सूरज पाल अम्मू, जिनका नफरत भरे भाषण देने का इतिहास रहा है, बिना हिचक कहता है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाना है, मुस्लिमों को देश से बाहर निकालो!
सोचने वाली बात है कि ऐसे आदमी को इस तरह का आतंक मचाने की ताकत कहाँ से मिलती होगी? इसको डर क्यों नहीं लगता? इसको कैसे पता कि पुलिस भले ही दबाव में FIR दर्ज कर ले लेकिन कार्यवाही कभी नहीं होगी! इसका पता लगाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का गुस्सा सुनना चाहिए। सुरेश चवानके पर हेट स्पीच के लिए FIR हुई लेकिन आगे कार्यवाही नहीं हुई। 10 जनवरी, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस से कहा कि पिछले साल एफआईआर दर्ज होने के आठ महीने बाद भी "कोई गिरफ्तारी नहीं", "कोई आरोपपत्र नहीं" और "कोई स्पष्ट प्रगति नहीं" हुई है।
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अजीब नहीं लगता कि किसी आदमी को भारत की न्याय व्यवस्था का सर्वोच्च केंद्र न्यायपालिका में भी सरकार, पुलिस और प्रशासन बचा रहा है। ऐसे व्यक्ति को किस बात का डर हो सकता है? तभी तो सुरेश चवानके कहता है कि “मेरे ऊपर 1827 FIR हैं 18000 भी हों तब भी मैं हिन्दू हितों की बात उठाता रहूँगा”। राजनैतिक और आर्थिक हितों को पूरे हिन्दू धर्म के हितों से जोड़ रहा यह व्यक्ति किसके संरक्षण में है? किसने इसे अधिकार दिया कि यह प्रत्येक हिन्दू का प्रतिनिधि बनेगा? ऐसे ही यति नरसिंहानंद को किसने अधिकार दिया कि वह एक मंदिर में किसी मुस्लिम बच्चे को पानी नहीं पीने देगा और पानी पी लेने पर पिटवाएगा, मुस्लिमों के प्रवेश पर रोक लगाएगा? एक देवी के मंदिर का पुजारी होने के बावजूद कार्यों और सोच में इतनी पशुता! यह तो हिन्दू धर्म नहीं है! मुझे तो लगता है कि मनुष्य द्वारा पशुता करने का स्थान तो किसी धर्म में नहीं है!
जब विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री संविधान की शपथ लेने के बावजूद धार्मिक एजेंडा चला रहे हों, खुलेआम मुस्लिम विरोधी तत्वों के साथ खड़े दिख रहे हों, उनका बचाव कर रहे हों और सोशल मीडिया में ऐसे लोगों को ‘फॉलो’ कर रहे हों तब उस महिला शिक्षिका को ऐसी ताकत मिलना लाजिमी है, ऐसा दुस्साहस आना लाजिमी है जिसमें उसे एक मासूम बच्चे के साथ कुछ भी करने का लाइसेंस मिल गया है सिर्फ इसलिए क्योंकि वह बच्चा मुस्लिम था।
भारत के संविधान का अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता के खिलाफ उपबंध करता है। कुछ लोग अस्पृश्यता को सिर्फ हिन्दू धर्म से जोड़ कर देख रहे हैं। हो सकता है न्यायिक समझ भी उसे ऐतिहासिक आधार पर ऐसे ही देख रही हो लेकिन आज के दौर में जब यति नरसिंहानंद जैसे लोग बिना किसी भय के मुस्लिमों के खिलाफ अस्पृश्यता फैला रहे हों तब अनुच्छेद-17 को और व्यापक रूप से समझा जाना चाहिए। अनुच्छेद-14 समानता का अधिकार प्रदान करता है लेकिन जहां एक धर्म विशेष का बच्चा पानी तक नहीं पी सकता है, जिसे सिर्फ इसलिए सबसे पिटवाया जा सकता है क्योंकि वह मुस्लिम है वहाँ इस अधिकार को सरकार और प्रशासन द्वारा रोक लिया गया है वहाँ न्यायपालिका के अतिरिक्त कोई और आसरा नहीं है। अधिकारों का यह प्रवाह भी रोकने की कोशिश की जा रही है।
पीएम मोदी के मुख्य सलाहकार को लगता है कि संविधान बदला जाना चाहिए और पीएम मोदी ने इस संबंध में कोई विरोधी बयान भी नहीं दिया है तब यह समझा जा सकता है कि आने वाले भारत में किसके अधिकार कितने होंगे; यहाँ तक कि कौन खुली हवा में सांस लेगा और कौन होगा जिसे किसी ऐसे इलाके में धकेल दिया जाएगा जहां न साफ पानी होगा और न ही शुद्ध हवा! जो लोग कहते हैं उन्हे मुस्लिम वोटों की जरूरत ही नहीं है, पता नहीं जब संविधान उनकी देखरेख में बदला जाएगा तब मुस्लिमों को वोटिंग अधिकार भी मिलेगा या नहीं! कुछ लोग इसे मेरा अतिरेक में दिया गया रिएक्शन मान सकते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि हर प्रतिरोध को उसके काउन्टर प्रतिरोध से खत्म करने की कोशिश की जा रही है।
हर बार जब सिविल सोसाइटी कोई जरूरी मुद्दा लेकर आती है तो उसके काउन्टर में नई सिविल सोसाइटी को लाकर खड़ा किया जाता है ताकि मुद्दे को कम प्रभावी बनाया जा सके और एक गैर जरूरी बहस से मुद्दे को लंबा खींचकर उसे बंद करा दिया जाए। ऐसा ही कुछ किसान आंदोलन के दौरान भी किया गया था। जब आईआईएम बैंगलुरु के 17 अध्यापकों ने एक पत्र लिखकर धार्मिक उन्माद पर चिंता जाहिर की तब उसी समय कुछ पुराने अधिकारियों का समूह सामने आ गया एक काउन्टर पत्र लिखने के लिए कि ‘सब ठीक है’।
आम जनता शायद न समझ पाए कि किसके क्या हित हैं। आखिर क्यों कुछ लोग सरकार के साथ और समर्थन में खड़े होकर स्थायी भाव से किसी भी किस्म के अन्याय को बर्दाश्त करने में लगे हैं? इसका उत्तर कभी नहीं पता चलेगा। क्योंकि इसके उत्तर इन समर्थकों की जीवन शैली में घुले हुए हैं जिसे सिर्फ तभी जाना जा सकता है जब कोई उनके घर, उनकी शिक्षा, उनके बच्चों की शिक्षा और उनको मिली सुरक्षा और सुविधाओं की तुलना अपने जीवन और सुविधाओं से कर पाएगा अन्यथा नहीं!
लेकिन शायद सर्वोच्च न्यायालय इस मूड में नहीं है। हेटस्पीच और उससे उपजी हिंसा से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार को व्यावहारिक और शीघ्र सख्त कदम उठाने की जरूरत है। कोर्ट ने कहा कि इसके लिए हम अपने फैसले में कुछ बदलाव या ढिलाई नहीं करेंगे बल्कि हम उसमें कुछ जोड़ेंगे। घृणा फैलाने वाले भाषणों पर सख्त रुख अपनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "समाज में शांति, सद्भाव और भाईचारा बनाए रखा जाना चाहिए"। तो दूसरी तरफ ब्राजील में भी हेट स्पीच के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय ने कमर कस ली है। 21 अगस्त को ब्राजील के सर्वोच्च न्यायालय की दस सदस्यीय पीठ ने 9-1 के बहुमत से फैसला करते हुए होमोसेक्शुअल लोगों के खिलाफ की जाने वाली हेट स्पीच को नस्लवादी हेट स्पीच माना और कहा कि ऐसी किसी भी बात के लिए 2-5 साल की जेल की सजा होगी।
वाशिंगटन डीसी, यूएसए में अमेरिकी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. सिंथिया मिलर-इदरीस बताती हैं कि "हेट स्पीच की कोई सामान्य सार्वभौमिक परिभाषा नहीं है, और इसका मतलब है कि यह अवधारणा विभाजनकारी, भावनात्मक रूप से आरोपित या विवादास्पद हो सकती है।" लेकिन यह बात तो कोई आसानी से समझ सकता है कि जब किसी देश में अल्पसंख्यकों को धमकाने और देश से बाहर निकालने के लिए सरकार की नाक के नीचे आंदोलन चलाया जाने लगे, जब अल्पसंख्यकों के पहनावों और चरित्र पर सीधा प्रहार किया जाने लगे, जब अल्पसंख्यकों को जिंदा जला डालने वालों को जेल से रिहा करने के लिए टीवी अभियान शुरू हो जाएँ, जब धार्मिक स्थलों पर धर्म विशेष के लिए अस्पृश्य माहौल बनाया जाने लगे, हेट स्पीच और नरसंहार की बातों के बावजूद लोगों को स्थायी रूप से जेलों में न बंद किया जाए, प्रशासन सहयोग करे, सरकार चुप रहे और न्यायालय कानून की धाराओं में उलझ कर धार्मिक उन्मादियों को वह समय सहज ही प्रदान कर दें जिसके बल पर वो देश को धार्मिक युद्ध का मैदान बना दें तो मानिए कि हेट स्पीच आपके देश और इसकी व्यवस्था को खाने जा रही है! क्या आप तैयार हैं?