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नफ़रत के सौदागरों को मुसलमानों का ये चेहरा क्यों नहीं दिखता?

नफ़रत के सौदागरों को मुसलमानों का ये चेहरा क्यों नहीं दिखता?

कोरोना संकट के दौरान देश में कई जगहों पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाई गई तो कई जगहों पर लोग जाति-धर्म का भेद किए बिना एक-दूसरे की मदद के लिए आगे आए। 

वैसे तो नेताओं के पर्यायवाची के रूप में रहबर, रहनुमा, मार्गदर्शक, नेतृत्व प्रदान करने वाला आदि बड़े ही सुन्दर-सुन्दर शब्द  इस्तेमाल किये जाते हैं। परन्तु यह भी शाश्वत सत्य है कि आज दुनिया में हो रही प्रायः हर उथल-पुथल के लिए यही नेता व रहबर ज़िम्मेदार हैं। इतिहास इस बात का भी हमेशा साक्षी रहा है कि जिसने भी सत्ता का दुरूपयोग करते हुए अपने शासन काल में नफ़रत, ज़ुल्म, अत्याचार या सामाजिक नफ़रत का ज़हर फैलाया प्रायः ऐसे नेताओं का हश्र भी बुरा ही हुआ है। परन्तु न जाने क्यों तानाशाही प्रवृति के नेतागण इतिहास की उन घटनाओं से सबक़ नहीं लेते और सत्ता या बहुमत में आने के बाद समाज में नफ़रत का ज़हर फैलाने लगते हैं। 

मुसलमानों के ख़िलाफ़ फैलाई नफ़रत

नफ़रत के पेशेवर व्यवसायियों ने कोरोना महामारी के दौरान भी नफ़रत का व्यवसाय करने के लिए ऐड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दिया। पूरे देश ने देखा कि किस तरह राजनीति व बिकाऊ मीडिया के संयुक्त नेटवर्क ने शुरू में जमाती लोगों के बहाने मुसलमानों के सिर पर महामारी के विस्तार का ठीकरा फोड़ने की भरपूर कोशिश की। 

पूर्वाग्रही लेखकों व पत्रकारों ने भी इस विषय में साम्प्रदायिकता का पूरा रंग भरने की कोशिश की। यहां तक कि इसे कोरोना जिहाद का नाम भी दे दिया गया। यही सिलसिला आगे बढ़कर मुसलमानों से सब्ज़ी व फल आदि न ख़रीदने के आह्वान तक पहुंचा। यहाँ तक कि वरिष्ठ विधायक व जनप्रतिनिधि स्तर के लोग भी रेहड़ी लगाने वाले मुसलमानों से बदसुलूकी करते देखे गए। 

मानवता की सेवा को आगे आए लोग

इसके विपरीत समाज में एक-दूसरे के प्रति दयाभाव रखने की हजारों मिसालें भी इसी कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिलीं। पूरे देश में अनेकानेक समाजसेवी बिना किसी का धर्म या जाति पूछे हुए श्रमिकों व उनके परिजनों को खाना-पानी-जूता-चप्पल-दवाइयां विश्राम स्थल व नक़दी जैसी सुविधाएं दे रहे थे। 

न सिख धर्म के लोग किसी का धर्म-जाति पूछ कर किसी को भोजन दे रहे थे न हिन्दू या मुसलिम धर्म के लोग। यहाँ तक कि पुलिस व अन्य कई सरकारी विभागों के लोगों द्वारा भी रसोई चलाकर मानव जाति की सेवा का पुनीत कार्य किया गया।

मुसलिमों ने दिया हिंदू की अर्थी को कंधा

लॉकडाउन के दौरान कई ऐसी ख़बरें भी आईं, जो इंसानियत की मिसाल पेश करने वाली थीं। पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के लोहाईतला गांव में विनय साहा नामक एक वृद्ध की मौत हो गई। इस गांव में साहा परिवार ही अकेला हिंदू परिवार है और बाक़ी सौ से ज़्यादा मुसलिम परिवार हैं। साहा परिवार के सभी मुसलिम पड़ोसी इस विपत्ति की घड़ी में मदद के लिए सामने आए। उन्होंने न केवल अर्थी को कंधा दिया बल्कि शव यात्रा के दौरान “राम नाम सत्य है” का उच्चारण भी किया। लॉकडाउन की वजह से साहा परिवार के सगे-संबंधी नहीं पहुंच सके थे। इसलिए शव को15 किमी दूर शवदाह गृह तक ले जाना संभव नहीं हो पा रहा था। परन्तु गांव के सभी मुसलिम पड़ोसियों ने “राम नाम सत्य है” का उच्चारण करते हुए अपने कंधे पर शव रखकर 15 किलोमीटर चलकर उसे शवदाह गृह तक पहुँचाया। 

उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में भी मोहल्ला आनंद विहार साठा निवासी एक हिन्दू परिवार में एक  बुज़ुर्ग रविशंकर का निधन हो गया। वहां भी लॉकडाउन के चलते अर्थी उठाने के लिए उनका कोई संबंधी रिश्तेदार मौजूद नहीं था। लॉकडाउन की वजह से संबंधियों ने आने में असमर्थता ज़ाहिर की। जब स्थानीय मुसलमानों को इस बात का पता चला तो मुसलमानों ने अर्थी को कंधा दिया व “राम नाम सत्य” बोलते हुए श्मशान घाट ले जाकर शव का अंतिम संस्कार कराया। 

इसी तरह राजस्थान के पाली में रामनगर माेहल्ले में जामा मसजिद के पास रहने वाले 60 वर्षीय हीरा सिंह की अर्थी को उनके मुसलिम पड़ाेसी न केवल कन्धा देते नज़र आए बल्कि उनके पड़ोस में रहने वाले 6 साल के मुसलिम बच्चे हुसैन ख़ान ने उनकी चिता काे मुखाग्नि भी दी।

कानपुर के रसूलाबाद इलाक़े के जोत गांव में रहने वाले क़ासिम अली देश में कोरोना का संकट समाप्त करने के मक़सद से रामायण का पाठ करते देखे व सुने गए।

कई जगह मुसलिम रोज़दारों को अपना रोज़ा तोड़ कर अपने हिन्दू भाई या बहन की जान बचाने के लिए रक्तदान करते देखा गया तो कई मुसलमानों ने ईद जैसे पवित्र त्यौहार पर नये कपड़े ख़रीदने के बजाए भूखे-प्यासे व पैदल चल रहे श्रमिकों की सेवा में पैसे ख़र्च करना ज़रूरी समझा। 

कहीं श्रमिकों के लिए बिना धर्म जाति का भेद किये बिना सांझी रसोई चलती दिखाई दी तो कहीं अनिरुद्ध झारे नाम का एक हिन्दू युवक ग़यूर अहमद नाम के एक विकलांग मुसलिम युवक को उसकी विकलांगों वाली साइकिल पर बिठाकर राजस्थान के भरतपुर से उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर तक 350 किलोमीटर दूर उसके घर तक लाया जबकि अनिरुद्ध नागपुर का रहने वाला था। 

इसी तरह की न जाने कितनी घटनाएं केवल इसी लॉकडाउन के दौरान घटी हैं। ये घटनायें इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए पर्याप्त हैं कि फ़साद, वैमनस्य, नफ़रत, साम्प्रदायिकता व दंगे आदि मानव रचित व बड़े स्तर पर किये गए प्रबंधन व साज़िश के फलस्वरूप ही संभव होते हैं जबकि प्रेम, परोपकार, सह्रदयता, सद्भाव, परमार्थ व धर्मनिरपेक्षता जैसी बातें मानव में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं। 

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