संविधान निर्माताओं ने भले ही अल्पसंख्यक समुदायों की सुरक्षा और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बहुत सारे प्रावधान किए हों, लेकिन जब हम तिहत्तर सालों का जायज़ा लेते हैं तो पाते हैं कि हमारी व्यवस्था हर मोर्चे पर पूरी तरह से नाकाम साबित हुई है। सांप्रदायिक पार्टियों को तो छोड़ दीजिए, वे राजनीतिक दल और सरकारें भी ख़ुद को साबित नहीं कर सकी हैं, जो धर्मनिरपेक्षता को अपना आदर्श मानती रही हैं। हर नाज़ुक मौक़ों पर वे फिसली हैं और अक्सर बहुसंख्यक समुदाय की अवैधानिक इच्छाओं एवं दबावों के समक्ष उन्होंने घुटने टेक दिए हैं।
आज़ादी के बाद से ही सांप्रदायिक दंगों का एक सिलसिला अबाध रूप से चला आ रहा है। इन दंगों में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों का बड़े पैमाने पर मारा जाना और फिर उन्हें इंसाफ़ न मिलना भी जैसे उसका एक तयशुदा पक्ष है। ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश मानने वाले देश का यह भयावह स्याह सच है, लेकिन वह इसको लेकर कतई शर्मसार नहीं है, शायद ये उससे भी बड़ी और कड़वी सचाई है।
कहा जाता है कि जो इतिहास को भूल जाते हैं वे उन्हें दोहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। हम इतिहास को लगातार भूलने की ग़लती करते हुए आज ऐसे मोड़ पर जा खड़े हुए हैं जहाँ बहुसंख्यकवादी फासीवाद का ख़तरा इतना बड़ा हो गया है कि हमें लोकतंत्र का वज़ूद ही ख़तरे में नज़र आने लगा है। हाशिमपुरा ऐसा ही एक भुलाया जा चुका इतिहास है।
हालाँकि 22 मई, 1987 को हुआ हाशिमपुरा कांड मुसलमानों की सामूहिक रूप से की गई स्वतंत्र भारत के इतिहास में हिरासती हत्याओं का सबसे बड़ा मामला था, मगर उसकी भी पृष्ठभूमि मेरठ के दंगे थे। बल्कि ये कहा जाना चाहिए कि दंगे के बहाने मुसलमानों को सबक सिखाने की एक नृशंस साज़िश थी। इस साज़िश में दूसरे समुदाय के चंद लोग या कोई संगठन विशेष ही शामिल नहीं थे बल्कि समूची व्यवस्था और तंत्र के हर अंग ने इसमें हिस्सेदारी की थी। क़रीब से देखने से पता चलता है कि किस तरह पुलिस, सेना, प्रशासन, मीडिया, राज्य सरकार और राजनीतिक दल एक साथ मिलकर एक बड़े हत्याकांड को अंजाम दे सकते हैं। यहाँ तक कि न्यायपालिका की भूमिका भी संदेहों से परे नहीं रही। इस लिहाज़ से इसे राज्य की ओर से संगठित नरसंहार के रूप में देखा जा सकता है।
'हाशिमपुरा 22 मई' के लेखक विभूति नारायण राय चूँकि घटना के वक़्त ग़ाज़ियाबाद में पुलिस कप्तान थे, इसलिए उन्होंने इसे न केवल क़रीब से देखा, बल्कि कहना चाहिए कि वे उन चंद लोगों में से हैं जिन्हें इस कांड की पहले-पहल सूचना मिली और जो घटनास्थल पर सबसे पहले पहुँचे। शुरुआती कुछ दिनों तक इस कांड से जुड़ी बहुत सारी गतिविधियों के भी वे गवाह रहे।
उत्तरप्रदेश की पीएसी द्वारा 42 बेकसूर मुसलमानों को मारने की इस बर्बर कार्रवाई ने उन्हें इस क़दर विचलित किया कि वे बाद की जाँच प्रक्रिया और फ़ैसला आने तक अदालती कार्रवाई पर भी नज़र गड़ाए रहे।
इस क़िताब में लेखक ने पिछले तैंतीस सालों में जो कुछ देखा, समझा और शोध के ज़रिए जो भी विवरण प्राप्त किए, उन्हें एक बड़ी तसवीर के साथ पिरोया है। बड़ी तसवीर, ताकि इस घटना को सही संदर्भों में समझा जा सके। इसीलिए वे हाशिमपुरा की ही बात नहीं करते, बल्कि ऐसे काँडों को करने और फिर उनके दोषियों को बचाने में तंत्र किस तरह से काम करता है, उस पर भी रोशनी डालते हैं।
कहा जा सकता है कि वे किसी सांप्रदायिक घटना के बजाय सांप्रदायिकता के ढाँचे की बात करते हैं, उस नफ़रत और हिंसा की बात करते हैं जो पूरी व्यवस्था को चलाने वालों के अंदर भरी हुई है और हमेशा अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ काम करती रहती है। ज़ाहिर है कि इसमें अल्पसंख्यक विरोधी दुराग्रहों और बहुसंख्यकवादी मानसिकता की चीरफाड़ भी शामिल है।
एक सौ साठ पन्नों की क़िताब की शुरुआत लेखक को यह सूचना मिलने से होती है कि ग़ाज़ियाबाद के मकनपुर इलाक़े में बहुत सारे मुसलमानों की लाशें मिली हैं और ये काम सांप्रदायिकता के लिए कुख्यात पीएसी के जवानों का है। विभूति नारायण तुरंत घटनास्थल पर रवाना होते हैं, जहाँ उनका सामना एक लोमहर्षक दृश्य से होता है। उन लाशों के बीच से उन्हें एक जीवित इंसान बाबूदीन मिलता है जो उन्हें पूरी कहानी बताता है। उसी के ज़रिए पता चलता है कि पीएसी ने गंगनहर में भी बहुत सारे मुसलमानों की हत्याएँ करके नहर में फेंक दिया है।
घटना के तारों को जोड़ते हुए लेखक ने बताया है कि 21 मई को बीजेपी नेता शकुंतला शर्मा के भाँजे की आँख में गोली लगी जिससे प्रभात कौशिक नामक इस युवक की मौत हो गई। प्रभात का बड़ा भाई सतीश चंद्र कौशिक स्थानीय फौज में मेजर था। इस घटना के बाद शहर में सेना और पुलिस के अधिकारियों के बीच कई गुपचुप मंत्रणाएं हुईं और फिर हाशिमपुरा हत्याकांड की साज़िश रची गई। अगले दिन पीएसी का एक ट्रक हाशिमपुरा पहुँचा जहाँ उसने तलाशी के नाम पर स्वस्थ एवं हट्टे-कट्टे मुस्लिम जवानों को चुनकर बैठाया और फिर गंगनहर तथा मकनपुर की नहर में जाकर उन्हें बर्बरतापूर्वक मार डाला।
इस भीषण काँड के संभावित दुष्परिणामों का अंदाज़ा लगते ही पुलिस अधीक्षक राय सक्रिय हो जाते हैं ताकि मेरठ के दंगों की आँच से ग़ाज़ियाबाद भी न जल उठे। वे वरिष्ठ अधिकारियों को इसकी सूचना देते हैं और फिर शुरू होता मंथन का सिलसिला कि इस नए संकट से निपटा कैसे जाए।
विडंबना ये रही कि सब कुछ जानने और तमाम सबूत तथा चश्मदीद गवाह होने के बावजूद कोई अपराधियों को पकड़ने की बात नहीं कर रहा था। नीचे से लेकर ऊपर तक के अधिकारी और यहाँ तक कि प्रदेश का राजनीतिक नेतृत्व तक इस मामले में बहुत उदासीन नज़र आ रहा था। मेरठ से सांसद मोहसिना किदवई को विचार विमर्श से बाहर रखा जाता है क्योंकि वे मुसलिम थीं। तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह कड़ा क़दम उठाने से कन्नी काट जाते हैं।
यह ज़रूर है कि प्रधानमंत्री राजीव गाँधी और उनका कार्यालय हत्यारों को सज़ा और पीड़ित परिवारों को मुआवज़ा दिलवाने में पूरी दिलचस्पी दिखाता है। वह लगातार राज्य सरकार पर दबाव बनाता है, मगर उससे भी बात नहीं बनती। शायद सूबे में आने वाले चुनावों के मद्देनज़र वह भी बाद में शांत पड़ जाता है।
लेकिन मुज़रिमों को सज़ा दिलवाने की ज़िम्मेदारी न निभाने वालों में केवल तत्कालीन सरकार नहीं थी। उसके बाद जितनी भी सरकारें आईं, उनमें से किसी ने इसमें दिलचस्पी नहीं दिखाई। इनमें मुलायम, मायावती की वे सरकारें भी शामिल थीं जो मुसलमानों को अपना बड़ा वोट बैंक मानकर चलते हैं। बीजेपी से कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ था, क्योंकि उसके एजेंडे में मुसलमानों को इंसाफ़ दिलाना कभी था ही नहीं।
इस पुस्तक की विशेषता उस छानबीन में है जो बताती है कि इस काँड की वज़ह हर स्तर पर अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ मौजूद दुराग्रह और कूट-कूटकर भरी हुई सांप्रदायकिता थी। पुलिस महकमे के लोग तो हम यानी हिंदू और वे यानी मुसलमान की भाषा में बात करते थे। राजनीति में ये अवसरवादिता के रूप में काबिज़ थी। न्याय के प्रति किसी की कोई प्रतिबद्धता नहीं थी। सबके सब लीपा-पोती में लगे हुए थे। बाद में जाँच का काम सीआईडी की क्राइम ब्रांच को दे दिया गया और उसने इस तरह काम किया कि अट्ठाईस साल बाद जब फ़ैसला आया तो सारे अपराधी दोषमुक्त हो गए। कई महत्वपूर्ण लोगों से उसने पूछताछ नहीं की, कई उसके सामने पेश हुए ही नहीं और कई महत्वपूर्ण सूत्रों को उसने यूँ ही छोड़ दिया।
किताब ने इस पूरे कांड के दौरान मीडिया की भूमिका को भी स्पष्ट किया है। मीडिया ने इस घटना को न केवल दबाया, बल्कि अपराधियों को छिपाने-बचाने की कोशिशें भी कीं। वे हिंदुत्ववादी एजेंडे को लेकर चल रहे थे, उन्हें मुसलमानों के इस नरसंहार से कुछ लेना-देना नहीं था। वे तो उस हत्यारी पीएसी के बचाव में भी खड़े थे।
दो स्थानीय अख़बारों के सांप्रदायिक चरित्र का क़िताब में खुलकर उल्लेख किया ही गया है, मगर राष्ट्रीय कहे जाने वाले अख़बारों को भी नहीं बख़्शा गया है। एक राष्ट्रीय अख़बार के बेहद प्रतिष्ठित संपादक की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह भी लगाती है। उन्होंने इस घटना की रिपोर्ट छापी ही नहीं। बाद में लेखक ने उसे उस समय के लोकप्रिय साप्ताहिक अख़बार चौथी दुनिया में प्रकाशित करवाया।
वास्तव में ये क़िताब भारतीय राष्ट्र-राज्य के सांप्रदायिक चरित्र का जीता-जागता दस्तावेज़ है। हालाँकि ये दस्तावेज़ भी तैंतीस साल पहले की घटना पर आधारित है और उसके बाद से परिस्थितियाँ काफी बिगड़ चुकी हैं और शायद इसीलिए बिगड़ी हैं क्योंकि हाशिमपुरा को चुनौती के रूप में लेते हुए उससे निपटा नहीं गया, उसके समक्ष समर्पण कर दिया गया। ख़ास तौर पर पीएसी के ख़ौफ़ के सामने। पीएसी 1973 में विद्रोह कर चुकी थी, इसलिए उसे छेड़ने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ रही थी। लेकिन इसके पीछे हिंदुओं के अतिवादी तबके को नाराज़ न करना भी एक वज़ह थी।
हालाँकि क़िताब को पढ़ते हुए लगातार इस बात की कमी खटकती है कि इसके बहुत से पहलुओं पर और सामग्री होनी चाहिए थी। ख़ास तौर पर राजनीतिक एवं प्रशासनिक पक्ष पर। इस दौरान स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय राजनीति कैसे आगे बढ़ी या ठंडी पड़ गई। शहाबुद्दीन, चंद्रशेखर एवं सुब्रमण्यन स्वामी की प्रेस कॉन्फ्रेंस का क्या असर हुआ या नहीं हुआ। चौथी दुनिया में रिपोर्ट छपने के बाद मीडिया में कैसी हलचल मची वगैरा वगैरा।
ये बेहद अफ़सोसनाक़ है कि इस ज़रूरी विषय पर ये क़िताब इतनी देर से आई है। इसे कम से कम ढाई-तीन दशक पहले आना चाहिए था, भले ही अदालती प्रक्रिया के अंजाम का ज़िक्र उसमें न होता। तब शायद इसका महत्व और उपयोगिता और बढ़ जाती। ये अफ़सोस तब और बढ़ जाता है जब पता चलता है कि मूलत: हिंदी में लिखे जाने के बावजूद इसके प्रकाशन में तीन साल लग गए। हालाँकि इसके अँग्रेज़ी और उर्दू संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं।