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क्या दीपेंद्र के 'हरियाणा मांगे हिसाब' ने भी कांग्रेस की लुटिया डुबोई?

क्या दीपेंद्र के 'हरियाणा मांगे हिसाब' ने भी कांग्रेस की लुटिया डुबोई?

दीपेंद्र हुड्डा के अभियान 'हरियाणा मांगे हिसाब' ने क्या बीजेपी को काफ़ी ज़्यादा फायदा पहुँचाया? लोकसभा चुनाव के बाद पिछड़ चुकी भाजपा के लिए क्या यह 'संजीवनी' साबित हुआ?

लोकसभा चुनाव के परिणामों के बाद हरियाणा में भाजपा के लगभग दस साल के शासनकाल के प्रति आमजन के साथ-साथ भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी एक निराशा, हताशा और नाराजगी स्पष्ट दिखाई देने लगी थी। अलग-अलग सामाजिक वर्ग अपनी अपेक्षाओं के पूरा न हो पाने से भाजपा की नीतियों के प्रति अपना विश्वास खो रहे थे और सरकार की आलोचना करने में भी मुखर होने लगे थे। विधानसभा चुनावों में भाजपा के पास अपनी उपलब्धियां बताने के लिए कुछ विशेष थी नहीं। प्रदेश के मुद्दे भाजपा के सामने मुंह बाये खड़े थे। किसानों से लेकर कर्मचारी तक, बेरोजगार युवाओं से लेकर महिला, गृहणियों तक, हर वर्ग सरकार की कार्यप्रणाली से क्षुब्ध था।

भाजपा ने लोकसभा चुनावों में अपना रणनीतिक दांव अन्य 'पिछड़ा वर्ग' का चल दिय था जिसका लाभ भाजपा को अपने गढ़ में दक्षिण हरियाणा व जी टी रोड बेल्ट में मिला। भाजपा विधानसभा चुनावों में जीत के लिए अबकी बार फिर भी आश्वस्त नहीं थी। प्रदेश में विभिन्न गुटों को साधने की चुनौतियाँ अलग से भाजपा की चिंता बढ़ाये हुए थी। कार्यकर्ताओं की नाराजगी दूर करने के लिए पंचकूला में की गयी बैठक में कार्यकर्ताओं की कम संख्या और उठते हुए सवालों ने भाजपा को गहरी परेशानी में धकेल दिया था। गृहमंत्री अमित शाह ने कार्यकर्ताओं को साफ़ कर दिया था कि टिकट न मिलने पर वो पार्टी से नाराज ना हों बल्कि पूरी ऊर्जा से चुनावों में जुट जाएँ। पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की कार्यशैली के कारण उपजी नाराजगी को दूर करने में भाजपा जुटी हुई थी। नये मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी अपने कार्यों से प्रदेश में कोई प्रभाव बनाने की जद्दोजहद में उलझे हुए थे।

प्रदेश की परिस्थितियों और लोकसभा चुनावों में 5 सीटों की जीत से प्रदेश कांग्रेस उम्मीदों की नयी उड़ान पर सवार अपने हौसलों को नए परिभाषा में ढालने में लग गई थी। जनता में व्याप्त असंतोष को अपनी जीत का मंत्र मान कर प्रदेश कांग्रेस अपनी गोलबंदी में मशगूल हो गई। आपसी गुटबाजी को कांग्रेस हल करने में पिछले पांच वर्षों में असफल रही। सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश में संगठन को बनाने में भी कांग्रेस कोई उपलब्धि हासिल नहीं कर पायी। पिछले पांच वर्षों से विपक्ष में रहते हुए कोई बड़ा आंदोलन, बेरोजगारी-मंहगाई-किसानों के मुद्दों को लेकर कांग्रेस जमीन पर खड़ा करने में भी सक्षम साबित नहीं हुई। कोई ठोस रणनीति कांग्रेस की राहुल गाँधी की भारत जोड़ो यात्रा के बाद प्रदेश में सामने नहीं आयी। लोकसभा चुनावों में मिली जीत और मतदाताओं के समर्थन के बाद प्रदेश में बनी हुई भाजपा के विरोध की दशा के आसरे प्रदेश कांग्रेस ने चुनावों में अपनी जीत को मान कर केन्द्रीय नेतृत्व को आश्वस्त करने की मुहिम बना ली। टिकट बँटवारे में एकतरफा वर्चस्व का संकेत व संदेश पूरी तरह नकारात्मक रूप में पूरे प्रदेश में फ़ैल गया।

दरअसल, हरियाणा की राजनीति में कांग्रेस की ओर से भूपेंद्र हुड्डा की अपने पुत्र के लिए महत्वाकांक्षा ने एक तरह की वर्चस्ववदिता का आधार पिछले काफी समय से बनाना शुरू कर दिया था। 'अबकी बार हुड्डा सरकार' का एक संदेश स्थापित करने की कवायद हुड्डा के खेमे से निरंतर की जाने लगी और इसी के इर्द गिर्द हरियाणा में गोलबंदी शुरू की गयी। प्रदेश के अन्य कांग्रेस नेताओं को बौना करने की कवायद भी हुड्डा खेमे से लगातार की जाती रही।

लोकसभा चुनाव से पहले कुमारी सैलजा की पूरे हरियाणा में राजनीतिक यात्रा ने हरियाणा में अन्य जातियों को कांग्रेस की ओर पलटने में एक भूमिका निभायी उसका परिणाम लोकसभा चुनावों में साफ़ देखने को मिला जिससे कांग्रेस 5 सीटों पर विजयी हुई। विधानसभा चुनाव आते आते भूपेंद्र हुड्डा ने प्रदेश में एक रणनीति के तहत कांग्रेस पार्टी से खुद को बड़ा बना कर दिखाने के प्रयासों में पूरी ताक़त झोंक दी। चुनाव से पहले के प्रचार 'कांग्रेस की सरकार' से ज़्यादा 'हुड्डा की सरकार' पर केंद्रित कर दिए।

विधानसभा चुनावों में भाजपा के पास दस साल के कार्यकाल के बाद कोई उपलब्धि बताने लायक कोई संवाद नहीं था। हर मुद्दे पर विफलता को ढकने के लिए बार बार पिछड़ा वर्ग और दलितों को लुभाने के प्रयास भाजपा कर रही थी।

कांग्रेस को लोकसभा में प्रदेश की दोनों आरक्षित सीटों पर मिली सफलता से प्रेरित हो कर कुमारी सैलजा ने फिर से हरियाँ में एक और यात्रा निकलने की घोषणा कर दी जिसका उद्देश्य कांग्रेस की झोली में और अधिक सफलता को लाना था। लेकिन भूपेंद्र हुड्डा खेमे को सैलजा का बढ़ता रुतबा नागवार गुजरने लगा और अपना आधिपत्य बढ़ाने के लिए आनन-फानन में दीपेंद्र हुड्डा ने एक समानांतर अभियान 'हरियाणा मांगे हिसाब' की घोषणा कर दी। हालाँकि इस अभियान को केंद्रीय नेतृत्व से अनुमती नहीं मिली। सैलजा की यात्रा से पहले ही दीपेंद्र हुड्डा ने अपने खेमे को इकट्ठा करके पंचकुला में जा कर हरियाणा मांगे हिसाब अभियान की शुरुआत कर दी।

हरियाणा मांगे हिसाब के बाद भाजपा को बैठे बिठाये कांग्रेस और हुड्डा के पिछले 10 साल के कार्यकाल का हिसाब मांगने का जो मौक़ा मिला उसको भाजपा ने अपने प्रचार का आधार बना लिया। भाजपा ने अपने हिसाब बताने से पहले ही कांग्रेस से हिसाब मांगना शुरू कर दिया। नौकरियों में पक्षपात से ले कर पैसों में नौकरियां बाँटने की बात हो या दलितों पर हुई हिंसा की बात या अन्य मुद्दे। भाजपा ने कांग्रेस को घेर कर अपना रास्ता आसान कर लिया। खर्ची पर्ची के नैरेटिव ने हुड्डा के कार्यकाल के कांग्रेस शासन को लोगों के जेहन में फिर से ताज़ा करने में पूरा जोर लगा दिया। प्रधानमंत्री की रैलियाँ भी इसी बिंदु पर केंद्रित रहीं जिसका प्रभाव यह हुआ कि पूरा चुनाव धीरे धीरे कांग्रेस के हाथों से खिसक गया। टिकटों के बंटवारे में भूपेंद्र हुड्डा खेमे की मनमानी ने आमजन खासकर अन्य पिछड़े वर्गों में एक असुरक्षा की भावना को जागृत कर दिया। अबकी बार हुड्डा सरकार खुद को जीता हुआ मान कर अपनी गोलबंदी में मशगूल हो गई। यहीं से चुनाव में जो चूक हुई उसको कोई भी विश्लेषक पकड़ नहीं पाया। बचा खुचा काम बागियों ने करवा दिया जिनको कांग्रेस ने मनाने की कोई कोशिश गंभीरता से नहीं की।

चुनाव परिणामों के बाद भी प्रदेश कांग्रेस में हुड्डा खेमे को ज्यादा चिंता नेता विपक्ष बनाने बनवाने की है, न कि हार की ज़िम्मेदारी स्वीकारने की। अब हरियाणा किससे हिसाब मांगे ये आगे पांच साल में शायद स्पष्ट हो पाए।

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