हरियाणा विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस का चुनावी गठबंधन नहीं होना था, यह लगभग शुरू से ही तय था। इसकी चर्चा भी बहुत हुई है। लेकिन इस बीच हरियाणा में ही इंडिया गठजोड़ ने जो एक प्रयोग किया है उसकी ज्यादा चर्चा नहीं हो रही। भिवानी विधानसभा सीट पर कांग्रेस ने अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं किया है उसकी जगह टिकट दिया गया है सीपीएम के कॉमरेड ओमप्रकाश को। जब चुनावी माहौल किसी पार्टी के पक्ष में दिख रहा हो और वह अपने सहयोगी के लिए एक सीट खाली छोड़ दे, हम चाहें तो इसे दरियादिली भी कह सकते हैं और चाहें तो इसमें कई और समीकरण खोज सकते हैं।
वैसे, भिवानी विधानसभा सीट कांग्रेस के लिए कभी आसान नहीं रही। 1967 में जब हरियाणा राज्य की स्थापना के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए तो यह सीट कांग्रेस ने नहीं भारतीय जनसंघ ने जीती थी। अभी तक हुए 13 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने भिवानी सीट सिर्फ तीन बार ही जीती है। 2005 के बाद तो कांग्रेस इस सीट पर कभी नहीं जीत सकी। इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने ऐसी सीट इंडिया गठबंधन के सहयोगी के हवाले की है जहां पर उसकी संभावनाएं थोड़ी कम हैं।
भाजपा के लगातार दो कार्यकाल के खिलाफ पूरे हरियाणा में जिस तरह की एंटी-इनकंबेंसी है, भिवानी भी शायद उससे अछूता नहीं होगा। इसके अलावा भाजपा के घनश्याम सर्राफ लगातार तीन बार से इस सीट को जीत रहे हैं इसलिए उनके खिलाफ थोड़ी बहुत ही सही एंटी इनकंबेंसी की संभावना होगी ही। भिवानी सीट की एक खासियत यह है कि यहां ब्राह्मण और बनिया मतदाता काफी संख्या में हैं जो हरियाणा में भाजपा का आधार वोट भी है। बेशक, यहां जाट और दलित मतदाताओं की संख्या कम नहीं है जो अगर एकजुट हो जाएं तो चुनावी समीकरण बदल भी सकते हैं।
यह समीकरण कॉमरेड ओमप्रकाश को जीत दिलाएगा या नहीं, यह इस पर निर्भर करेगा कि इंडिया गठबंधन की मुख्य सहयोगी कांग्रेस उनके समर्थन में किस हद तक उतरती है। कॉमरेड ओमप्रकाश भिवानी का परिचित चेहरा हैं और साल भर उन्हें लोग तरह-तरह के आंदोलन करते हुए देखते रहे हैं। इसलिए उनके पास जमीनी कार्यकर्ता भी हैं। लेकिन चुनाव लड़ने के लिए जिन संसाधनों की ज़रूरत होती है उसके लिए उन्हें कांग्रेस के सहयोग की ज़रूरत हो सकती है। यही वह जगह है जहां कांग्रेस का सहयोग उनके लिए महत्वपूर्ण होगा।
बाकी विधानसभा क्षेत्रों की तरह ही भिवानी से भी बड़ी संख्या में लोगों ने टिकट के लिए अर्जी दी थी। कांग्रेस ने उन सभी अर्जियों को दरकिनार करते हुए कॉमरेड ओमप्रकाश को टिकट दिया। कांग्रेस ने जिन्हें टिकट नहीं दिया उन्हीं में से एक स्थानीय नेता अभिजीत लाल सिंह अब स्वतंत्र उम्मीदवार की तरह से मैदान में हैं। बाकी जिन्हें कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया वे कॉमरेड ओमप्रकाश के समर्थन में उतरते हैं या नहीं, नतीजों का रुख इस पर भी निर्भर करेगा।
हरियाणा में वामपंथी पार्टियों का बड़ा आधार कभी नहीं रहा। उसके कुछ नेता छोटी-छोटी पाॅकेट में सक्रिय रहे हैं लेकिन किसी का भी इतना प्रभाव नहीं रहा कि चुनाव नतीजों पर बड़ा असर दिखा सकें। असर तभी दिखता है जब वे राष्ट्रीय स्तर के किसी गठजोड़ का हिस्सा हों।
इसके पहले 1987 का विधानसभा चुनाव ऐसा मौका था जब संयुक्त मोर्चे के सदस्य के तौर पर वामपंथियों को हरियाणा में नौ सीटें दी गईं थीं। पांच सीपीआई को और चार सीपीएम को। इनमें शाहाबाद से सीपीआई के हरनाम सिंह और तोहाना से सीपीएम के हरपाल सिंह चुनाव जीते थे। उस समय हवा पूरी तरह लोकदल के चौधरी देवीलाल के पक्ष में थी, वे चाहते तो सीट देने से इनकार कर सकते थे लेकिन उन्होंने गठबंधन का सम्मान करने का फैसला किया।
कुछ इसी तरह का फैसला इस बार कांग्रेस ने किया है। भिवानी विधानसभा सीट का नतीजा चाहे जो निकले, लेकिन इससे इंडिया गठजोड़ के प्रति कांग्रेस की प्रतिबद्धता जरूर स्थापित हो गई है। ऐसा आम आदमी पार्टी से चुनावी समझौता न हो पाने के बावजूद है।