राष्ट्रहित में किसी भी उकसावे से बचें भारतीय मुसलमान
मात्र सत्ता में बने रहने के लिये देश में सत्ता के संरक्षण में एक विशेष सांप्रदायिक विचारधारा द्वारा देश में बहुसंख्यकवाद का जो ख़तरनाक खेल खेला जा रहा है, वह उस भारत वर्ष के अस्तित्व व धारणा के बिल्कुल विपरीत है जिसकी वजह से देश को 'अनेकता में एकता' रखने वाले विश्व के सबसे बड़े व लोकप्रिय लोकतंत्र के रूप में दुनिया जानती रही है। सांप्रदायिक सौहार्द भारत की रगों में प्रवाहित होने वाला वह स्वभाव है, जिसे तमाम कोशिशों के बावजूद समाप्त नहीं किया जा सकता।
यह रहीम, रसखान, कबीर और जायसी का देश है। यह उस वीर शिवाजी का देश है जिनके सेनापति व मुख्य सलाहकार व जासूस मुसलमान हुआ करते थे। यह उस महाराणा प्रताप का देश है जिनके सेनापति व अनेक सेनानी मुसलमान होते थे। यह उस अकबर महान का देश है जिसके सेनापति व तमाम सैनिक व अधिकारी हिन्दू होते थे। यह वह भारत है जहाँ अयोध्या सहित अनेक स्थानों पर मुग़ल शासकों द्वारा मंदिरों, गुरुद्वारों व जैन मंदिरों के लिये ज़मीनें दी गयीं व वज़ीफ़े निर्धारित किये गये। और यही धार्मिक एकता व सांप्रदायिक सद्भाव का सिलसिला अंग्रेज़ों को भारत से खदेड़ने तक जारी रहा।
आज भी भारतीय इतिहास में जिन क्रांतिकारियों के क़िस्से सबसे मशहूर हैं उनमें चंद्रशेखर आज़ाद, भगत सिंह, राजगुरु व राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों के साथ अशफ़ाक़उल्लाह ख़ान का नाम भी प्रत्येक देशवासी बड़े ही सम्मान से लेता है, उन्हें याद करता तथा उनके समक्ष नत मस्तक होता है। देश की आज़ादी के बाद भी देश का प्रथम परमवीर चक्र पाने वाले वीर अब्दुल हमीद थे जिन्होंने पाकिस्तान के विरुद्ध अपने अदम्य साहस व वीरता का परिचय देते हुए सीमा पर अपनी क़ुर्बानी दी। देश को कई मुसलिम वायु सेनाध्यक्ष मिले और यह सिलसिला भी भारत रत्न मिसाइलमैन ए पी जे अब्दुल कलाम तक चला।
1947 में हुए दुर्भाग्यपूर्ण विभाजन के बाद जहाँ कुछ सीमान्त प्रान्त के मुसलमानों ने कहीं विभाजनकारी नीति अपनाने वाली मुसलिम लीग के बहकावे में आकर तो कहीं विभाजन के समय छिड़ी सांप्रदायिक हिंसा का शिकार होकर या उससे बचने के भय से भारत छोड़ पाकिस्तान या तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया वहीं देश के बहुसंख्य मुसलमानों ने गाँधी, कांग्रेस व मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसी धर्मनिरपेक्ष विचारधारा का साथ दिया और स्वेच्छा से भारत में ही रहने का निर्णय लिया।
लगभग सत्तर वर्षों से सोने की चिड़िया कहा जाने वाला हमारा यह भारत इसी धार्मिक व सामाजिक सौहार्द की बदौलत तरक़्क़ी की राह पर आगे बढ़ रहा है। परन्तु हिंदुत्ववादी ताक़तों द्वारा जिस प्रकार इन्हीं सत्तर वर्षों में धीरे-धीरे हिन्दू महासभा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा इसी विचारधारा का पोषण करने वाले अनेक संगठनों ने बड़े ही नियोजित तरीक़े से अपनी जड़ें गहरी कीं और 2014 में अन्ना हज़ारे के सत्ता विरोधी आंदोलन के कंधे पर सवार होकर केंद्रीय सत्ता पर पहुँचने तक का सफ़र तय किया वह भी पूरा विश्व देख रहा है।
दुनिया अब यह भी देख रही है कि सत्ता पाने के बाद इसी सत्ता पर क़ाबिज़ रहने के लिये इन्हीं शक्तियों द्वारा हिन्दुत्ववाद के नाम पर व भारतीय समाज को धर्म के नाम पर निरंतर विभाजित करने के लिये कितना घिनौना व ख़तरनाक खेल खेला जा रहा है।
किसान आंदोलन में शामिल लोगों को ख़ालिस्तानी तथा मुसलमानों को पाकिस्तान समर्थक बताया जा रहा है।
अल्पसंख्यक समुदाय के विरुद्ध लगातार बेरोक टोक भाषणबाज़ियां की जा रही हैं। हद तो यह कि इसी कट्टरपंथी विचारधारा द्वारा अब देश के उदारवादी हिन्दू समाज को शस्त्र धारण करने और मुसलमानों का नरसंहार करने जैसा उकसावे भरा आह्वान किया जा रहा है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के विरुद्ध इतनी अपमानजनक टिप्पणी की गयी जिसे लिखना भी मुनासिब नहीं। देश के हिन्दुओं को बर्मा की तर्ज़ पर रोहिंग्या नरसंहार का अनुसरण करने का आह्वान किया जा रहा है।
परन्तु वास्तव में यह देश के समग्र हिन्दू समाज की आवाज़ नहीं बल्कि उन निठल्ले, कट्टरपंथी अवसरवादियों व सत्ता भोगियों की आवाज़ है जो इसी धर्म आधारित ध्रुवीकरण का लाभ उठा कर सत्ता से चिपके रहना चाहते हैं। यह गाँधी नहीं बल्कि गोडसे की विचारधारा है। आज इसी विचारधारा के लोग गोडसे का महिमामंडन करते व उसकी मूर्ति स्थापित करते दिखाई दे रहे हैं।
दूसरी तरफ़ पूर्व नेवी प्रमुख अरुण प्रकाश तथा पूर्व सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक जैसे अनेक प्रमुख लोगों ने देश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने के ऐसे प्रयासों की निंदा की है और ऐसे तत्वों के विरुद्ध कार्रवाई की मांग की है। देश का एक बड़ा वर्ग इन सांप्रदायिक शक्तियों के विरुद्ध खड़ा हो गया है। यहां तक कि इन तत्वों के विरुद्ध प्राथमिकी भी दर्ज की जा चुकी है।
इन परिस्थितियों में देश के अल्पसंख्यक समाज के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे न तो इन अल्पसंख्यक विरोधी, गाँधी विरोधी व गोडसे समर्थकों के उकसावे में आयें, न ही असदुद्दीन ओवैसी जैसे उन नेताओं के बहकावे में आयें जो इन परिस्थितियों का लाभ उठाकर धर्म विशेष में अपना जनाधार बढ़ाने का प्रयास कर रहे हैं।
देश के अल्पसंख्यकों को किसी भी विभाजनकारी प्रयासों का विरोध करना चाहिये तथा देश के उन उदारवादी व धर्मनिरपेक्ष हिन्दुओं पर पूरा भरोसा करना चाहिये जिन्होंने सत्तर वर्षों तक इन्हीं सांप्रदायिक ताक़तों को सत्ता के क़रीब आने का अवसर नहीं दिया।
भारतीय मुसलमानों को किसी मुसलिम नेता की नहीं, बल्कि गांधीवादी सोच रखने वाले किसी ऐसे दल, नेता व नेतृत्व की ज़रूरत है जो इन साम्प्रदायिक शक्तियों का डट कर मुक़ाबला कर सके। यदि ये शक्तियां समाज को धर्म-जाति के नाम पर विभाजित कर देश को तोड़ना चाह रही हैं तो यह देश के अल्पसंख्यकों का कर्तव्य है कि वे राष्ट्रहित में परीक्षा की इस घड़ी में सांप्रदायिक सद्भाव व भाईचारे की मिसाल पेश करते हुए किसी भी उकसावे व बहकावे से बचने की पूरी कोशिश करें।
भारतीय मुसलमानों के समक्ष वर्तमान समय की यही सबसे बड़ी चुनौती है।