हिंदी को तोड़ने वाली नहीं जोड़ने वाली जुबान बनाइए
चेन्नई की घटना है। कश्मीर में मानवाधिकार के प्रश्न पर एक सभा से वापस होटल जाना था। टैक्सी ली। होटल के रास्ते को समझने के लिए ड्राइवर से अंग्रेज़ी में बातचीत शुरू की। उसने उस ज़ुबान में जवाब दिया जो दिल्ली की टैक्सी में इस्तेमाल की जाती है। आश्चर्यमिश्रित प्रसन्नता हुई। पूछा, आप हिंदी बोल रहे हैं। जवाब मिला, 'उर्दू है साहब।' फिर हमने साथ-साथ रास्ता तय किया। एक उत्तर भारतीय हिंदी भाषी को तमिलभाषी चेन्नै उर्दू ने मंजिल तक पहुँचाया।
यह घटना बार-बार याद आती है। एक टेलीविज़न 'पत्रकार' 'हल्दीराम' की एक दुकान पर नमकीन का एक पैकेट उठाकर बार-बार पूछ रही थी कि यह उर्दू में क्या लिखा है। उससे ज़्यादा उसका हमलावर सवाल था कि उर्दू में क्यों लिखा है! क्या उर्दू में लिखकर कुछ छिपाने की कोशिश की जा रही है?
क्या इसमें कोई साजिश है? मुझे तब चेन्नई का वह सफर याद आया। उर्दू रास्ता उजागर करने वाली भाषा थी वहाँ छिपाने वाली नहीं। अगर मेरी जगह यह पत्रकार होती तो क्या वह हैरान होती कि उर्दू ने उसे गुमराह नहीं किया बल्कि रास्ता दिखाया? यह बात अलग है कि लोगों ने बतलाया कि वह उर्दू न थी, अरबी थी।
या वह यह सुनकर हैरान हो जाती कि अगर उसका सवाल सुनकर कोई उल्टा कहता कि आप यह उर्दू में क्या पूछ रही हैं। जैसे मैंने पूछा था कि क्या ड्राइवर हिंदी में बात कर रहा था। और मुझे यह नहीं लगा था कि उसने उर्दू में बात करके मुझे आत्मीयता का धोखा दिया था।
भाषा रास्ता दिखलाती है, वह खुद रास्ता भी होती है। कुछ दिन पहले दिल्ली में बेयरफुट कॉलेज के 50 साल के जश्न के मौके पर त्रिवेणी कला संगम गया तो कम्युनिस्ट पार्टी के नेता डी. राजा मिल गए। उन्होंने बाहर की तरफ इशारा करते हुए बतलाया कि तमिलनाडु से वे औरतें आई हैं जिन्हें और जिनके परिवारवालों को वीरप्पन के खिलाफ पुलिस अभियान के दौरान राज्य और पुलिस का दमन झेलना पड़ा था।
अरुणा रॉय और ऐनी राजा उन्हें सुन रही थीं। मैं उनके बीच जाकर बैठा। वे मेरे ही देश की औरतें थीं। मेरे ही देश की सुरक्षा के नाम पर उनके साथ बलात्कार किया गया था, उन्हें सालों-साल जेल में रखा गया था, उनके परिवार के मर्दों को मार डाला गया था। वे इस दमन के बारे में बतला रही थीं। जैसे चेन्नई में मुझे उर्दूभाषी ड्राइवर ने रास्ता दिखलाया था, वैसे ही दिल्ली में तमिलभाषी अरुणा रॉय और ऐनी राजा ने उनके दुःख और क्षोभ से जोड़ा। हिंदी और अंग्रेज़ी के सहारे।
मैं शर्मिंदा हुआ कि मैं सीधे हमवतनों से ही बात नहीं कर सकता। लेकिन अनुवाद का आविष्कार इसीलिए इंसानी समाज ने किया क्योंकि वह दो अलग-अलग भाषाओं के कारण बन गई खाई को पार करने के लिए पुल चाहता है। हम सब अनुवाद करनेवाले प्राणी हैं।
हिंदी में बात करें!
लेकिन प्रायः हिंदी वालों को अपनी इस अपर्याप्तता पर कोफ़्त नहीं होती, वे कभी अपनी भर्त्सना नहीं करते। वे चाहते हैं और मानते हैं कि यह तमिलभाषियों का या मिजो भाषियों की जिम्मेदारी है कि वे राष्ट्रभाषा हिंदी में बात करें। क्यों वे हिंदी में बात नहीं कर सकते? अगर वे ऐसा न करें तो वे भारत की मुख्यधारा में कैसे शामिल होंगे? जब उन्हें यह बतलाया जाता है कि हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा नहीं तो पहले तो वे मानने से इनकार कर देते हैं और फिर संविधान देखने पर संविधान निर्माताओं को कोसने लगते हैं।
यह जिम्मा बाकी सबका है कि वे हिंदी जानकर भारत की मुख्यधारा में शामिल हों, हम कोई और जुबान नहीं सीखेंगे। यह हिंदीवालों की समझ रही है।
इसी समझ के कारण त्रिभाषा सूत्र को हिंदीभाषी क्षेत्रों में विफल कर दिया गया। उसके पीछे इरादा था भारत के लोगों को एक दूसरे से जोड़ने का। दक्षिण भारत में प्रायः लोगों ने इस सूत्र की भावना का वास्तव में आदर किया। अपनी भाषा के साथ हिंदी सीखी। हमारे राज्यों में हमने धोखा किया। कोई और भारतीय भाषा सीखने की जगह हमने संस्कृत चुन ली। वह भी संस्कृत सीखने के लिए नहीं, इसलिए कि उसमें पंडितजी उदारता से अंक का वितरण करते थे। अभी भी दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के छात्र दूसरे विषय के विकल्प में संस्कृत चुन लेते हैं। भाषा जानने के मकसद से नहीं। इसलिए कि संस्कृतवाले नंबर दिल खोल कर देते हैं।
इस धोखाधड़ी से क्षुद्र और आत्मघाती लेन-देन वाली सांसारिकता का पता चलता है जो हिंदी की दुनिया की बीमारी बन गई है। जो हिंदी की दुनिया है, वही मोटा-मोटी संस्कृत का संसार भी है। हिंदी के लोग होते जाते हैं सांस्कृतिक रूप से विपन्न लेकिन राजनीतिक रूप से वे ताकतवर हैं क्योंकि अंक उनके पास हैं। संख्या उनके इलाकों में है। इस वजह से खुद को भारत का केंद्र मानने लगते हैं। वे मानते हैं भारत उनकी मिल्कियत है।
नेहरू ने किया था आगाह
संविधान सभा में हिंदी पर बहस के दौरान जवाहरलाल नेहरू ने इस खतरे से आगाह किया था। उन्होंने हिंदी वालों को कहा था कि उन्हें खुद को भारत का गुरुत्वाकर्षण केंद्र मानने के लोभ से बचने की ज़रूरत है। भाषा जोड़ती है तो वह तोड़ती भी है। यह अहंकार कि हमीं भारत हैं, हिंदी को जोड़ने की जगह तोड़ने वाली जुबान बना देता है।
हिंदी वालों ने खुद अपने इलाकों में उर्दू के साथ जो बर्ताव किया, वह बाकी भाषाओं में उस के प्रति आशंका पैदा करने के लिए काफी था।
हिंदी वालों को यह बात समझनी थी कि अगर दक्षिण भारत में हिंदी के लिए कुछ जगह बनी है तो वह उर्दू के कारण है जो ऐतिहासिक कारणों से पहले से दक्षिण में मौजूद थी। यह उर्दू उस हिंदी के काफी पहले से थी जिसे प्रवर्तित करने का श्रेय भारतेंदु हरिश्चंद्र को दिया जाता है और जिसका साल भी निश्चित कर दिया गया है:1873।
जो हिंदी खुद को इस उर्दू से तोड़ती या अलग करती है जो दरअसल उसकी बुनियाद है, उसे सहज ही दूसरी भाषावालों को कबूल करना कठिन होगा। आज जो हिंदी को रिश्ता बनानेवाले रूप में प्रस्तावित कर रहे हैं, वे उसे उर्दू से शुद्ध करने के लंबे अभियान में अब तक कामयाब नहीं हो पाए हैं लेकिन वह शुद्धि अभियान चलाए ही जा रहे हैं।
यह कोई अचरज की बात नहीं कि हिंदी वालों ने अपने इलाके की भाषाओं को ही अपनी उपभाषा घोषित कर दिया। वे जो इस हिंदी के पहले से बोली जाती रही हैं, जिनमें लोग अपने दुःख-सुख के गीत गाते रहे हैं यानी मैथिली, भोजपुरी, मगही, अवधी या ब्रज को इस हिंदी के लिए जगह खाली करनी थी। आप इन्हीं इलाकों की उन ज़ुबानों की बात तो छोड़ ही दें जिन्हें आदिवासी बोलते रहे हैं। गोंडी, मुंडारी, भीली, संथाली और उनकी तरह की बीसियों भाषाएँ!
हिंदी की जीत
यह कहा जा रहा है कि ऐसी कई भाषाओं को देवनागरी के तौर पर लिपि मिल गई है। इसे भी हिंदी की जीत के रूप में पेश किया जा रहा है। इसी से मालूम हो जाता है कि इरादा हिंदी के क्षेत्र विस्तार का है, विभिन्न भाषाओं के लोगों को आपस जोड़ने का नहीं।
हिंदीवाद एक तरह का अलगाववादी राष्ट्रवाद है। भारत जैसे देश में, जिसकी ताकत उसकी बहुसांस्कृतिकता और बहुभाषिकता से है, हिंदी को सिर्फ इस आधार पर कि उसे बोलनेवालों की तादाद सबसे ज़्यादा है, भारत के दूसरे इलाकों पर आरोपित नहीं किया जा सकता। लेकिन पिछले 7 सालों में यह कोशिश लगातार की जा रही है। इसका विरोध करने का दायित्व हिंदी भाषियों का है।