अगर आंबेडकर ने इसलाम क़बूल किया होता तब भी वह बीजेपी को स्वीकार्य होते?
कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से जारी देशव्यापी लॉकडाउन के बीच गुरुवार को बुद्ध पूर्णिमा की सुबह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संबोधन सुन कर कई तरह के ख़याल आए। प्रधानमंत्री ने संबोधन की शुरुआत में कहा कि मौजूदा समय में बुद्ध की शिक्षा प्रासंगिक है। यह एक सामान्य सी रस्मी बात है जो किसी भी महापुरुष को याद करते हुए कहीं भी कभी भी कही जा सकती है और इससे कोई असहमति भी नहीं हो सकती भले ही कहने वाले कोई भी हों जिनका बुद्ध की करुणा, प्रेम, भाईचारे की नीति पर विश्वास हो या न हो।
बुद्ध की शिक्षा (या शिक्षाओं) पर दुनिया भर के तमाम विद्वानों ने मोटी-मोटी पोथियाँ लिख डाली हैं। भारत के संदर्भ में बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का नाम सबसे प्रखर बुद्ध अनुयायी के रूप में उभरता है। हिंदू धर्म में जन्मे आंबेडकर ने छुआछूत के ख़िलाफ़ मुहिम के तहत बौद्ध धर्म स्वीकार किया था। आंबेडकर ने अपने एक प्रसिद्ध व्याख्यान 'बुद्ध अथवा मार्क्स' में बुद्ध की शिक्षाओं और मार्क्सवादी सिद्धांतों की तुलना करते हुए बुद्ध की शिक्षाओं को साम्यवाद से भी बेहतर बताया है।
आंबेडकर ने 1956 में काठमांडू में एक बौद्ध सम्मेलन में दिए अपने उस व्याख्यान में कहा था-
‘मनुष्य का विकास भौतिक रूप के साथ-साथ आध्यात्मिक रूप से भी होना चाहिए। समाज का लक्ष्य एक नवीन नींव डालने का रहा है, जिसे फ़्रांसीसी क्रांति द्वारा संक्षेप में तीन शब्दों में- भ्रातृत्व, स्वतंत्रता तथा समानता- कहा गया है। इस नारे के कारण ही फ़्रांसीसी क्रांति का स्वागत किया गया था। वह समानता उत्पन्न करने में असफल रही। हम रूसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि इसका लक्ष्य समानता उत्पन्न करना है परंतु इस बात पर अधिक ज़ोर नहीं दिया जा सकता कि समानता लाने के लिए समाज में भ्रातृत्व या स्वतंत्रता का बलिदान किया जा सकता है। भ्रातृत्व या स्वतंत्रता के बिना समानता का कोई मूल्य व महत्व नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये तीनों तभी विद्यमान रह सकते हैं जब बुद्ध का रास्ता अपनाया जाए। साम्यवादी एक ही चीज़ दे सकते हैं, सब नहीं।’
आंबेडकर ने 14 अक्टूबर 1956 को बौद्ध धर्म अपनाया। काठमांडू का व्याख्यान 20 नवंबर को हुआ। इस व्याख्यान को 2 दिसंबर को एक पतली सी पुस्तिका का रूप मिला। दुखद यह रहा कि 6 दिसंबर को आंबेडकर का देहावसान हो गया। हिंदू धर्म में जाति प्रथा से आहत और अपमानित आंबेडकर ने दलितों के राजनीतिक-सामाजिक उत्थान के लिए, उन्हें शिक्षित करने और एकजुट करने के लिए बाक़ायदा एलान करके एक रणनीति के तहत बौद्ध धर्म अपनाया था। हालाँकि हिंदू धर्म की वर्णाश्रमी जातिवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ आंदोलन में धर्म बदलने का विचार और उस पर अमल की बात आंबेडकर से पहले ज्योतिबा फुले ने भी उठायी थी।
बौद्ध धर्म अपनाने के सिलसिले में आंबेडकर का वह कथन याद करने की ज़रूरत है जिसमें उन्होंने कहा था कि 'मैं छुआछूत के कलंक के साथ पैदा हुआ हूँ क्योंकि इस पर मेरा वश नहीं था। इसके बावजूद मैं हिंदू के रूप में नहीं मरूँगा’।
दरअसल, दलितों के साथ सवर्ण जातियों के सदियों से जारी अमानवीय व्यवहार, छुआछूत, उत्पीड़न और अपमान को आंबेडकर ने निजी स्तर पर झेला था। उस सबकी कड़वाहट उनके आहत मन में बहुत गहरे धँसी हुई थी और उनकी नाराज़गी पत्थर की तरह सख़्त थी। उन्होंने साफ़ कहा था कि इन्सान को अहमियत न देने वाला धर्म उन्हें क़बूल नहीं है। दलितों के लिए धर्म बदलने की ज़रूरत पर उनका बेहद जोशीला भाषण 'मुक्ति कोण पथे' के नाम से प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने अस्तित्व की लड़ाई के मद्देनज़र दलितों के लिए धर्मांतरण की पुरज़ोर वकालत की थी।
आंबेडकर की पहली पसंद था ईसाई धर्म, इसलाम!
यह जानना बहुत दिलचस्प होगा कि धर्मांतरण की रणनीति के तहत हिंदू धर्म के विकल्पों के बारे में सोचते समय बौद्ध धर्म आंबेडकर की पहली पसंद नहीं था, न ही धर्म परिवर्तन का यह विचार एक झटके में आया था। शुरू में तो आंबेडकर दलितों के धर्म परिवर्तन के लिए बौद्ध धर्म के मुक़ाबले ईसाई धर्म और इसलाम को बेहतर मानते थे। 1927 में 'बहिष्कृत भारत' में उनकी एक टिप्पणी इस बात की तस्दीक़ करती है जिसमें उन्होंने कहा था कि - ‘बौद्ध या आर्यसमाजी होने से उन लोगों के पूर्वाग्रहों पर कोई ख़ास असर नहीं होने जा रहा है जो ख़ुद को उच्चवर्ण का बताते हैं और इसलिए हम नहीं देखते कि इस रास्ते को अपनाने का कोई मतलब है। अगर हम हिंदुओं के पूर्वाग्रहों का कामयाबी से मुक़ाबला करना चाहते हैं तो हमें किसी विद्रोही समुदाय की हिमायत को पक्का करने के लिए या तो ईसाइयत या इसलाम को अपनाना होगा। सिर्फ़ तभी जाकर अछूत होने का दाग़ धुलेगा।’
दिलचस्प बात यह भी है कि इस कथन के महज़ दो साल के भीतर ही 1929 में आंबेडकर की राय बदली और उन्होंने क्रिश्चियनिटी को अपनी लिस्ट से हटा दिया। तब सिर्फ़ इसलाम उनकी पसंद रह गया था।
आंबेडकर को लगता था कि मुसलमानों के अल्पसंख्यक होने के बावजूद हिंदू उनसे वैसा व्यवहार करने की हिम्मत नहीं कर सकते जैसा वो दलितों के साथ सदियों से करते आ रहे थे क्योंकि मुसलिम समाज एक इकाई के तौर पर ज़्यादा संगठित था जबकि दलितों की आवाज़ संगठित नहीं थी। आंबेडकर उस समय मानते थे कि सिर्फ़ मुसलमान ही दलितों के समर्थन में खड़े हो सकते हैं।
इसलाम के बजाय बौद्ध धर्म अपनाने के फ़ैसले तक पहुँचने में आंबेडकर को दो दशकों से भी ज़्यादा वक़्त लगा। जाति का सवाल उनके समूचे सामाजिक-राजनैतिक चिंतन का केंद्र बिंदु था।
हिन्दू धर्म के अलावा सभी धर्मों के लगातार अध्ययन के बाद आंबेडकर को यह लगने लगा था कि बौद्ध धर्म को छोड़कर सभी समुदायों में जाति आपसी संघर्ष और शोषण का एक प्रमुख कारण बनी हुई थी। आंबेडकर का कहना था कि बौद्ध धर्म को बाक़ी धर्मों पर तरजीह देने की वजह उसकी तीन प्रमुख बातें थीं- एक तो अन्धविश्वास और अलौकिकता के ख़िलाफ़ बौद्धिकता (प्रज्ञा), दूसरा- करुणा और तीसरा समता।
आंबेडकर ने धर्म परिवर्तन के लिए बाहर से आये इसलाम और ईसाईयत के बजाय अंततः बौद्ध धर्म को चुनते समय उसकी स्थानीयता को भी एक कारण माना था। उन्होंने कहा था- ‘बौद्ध धर्म अपना कर देश को सबसे बड़ा लाभ पहुँचा रहा हूँ क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का एक हिस्सा रहा है। मैंने इस बात का खयाल रखा है कि मेरा धर्म परिवर्तन इस ज़मीन की संस्कृति की परंपरा और इतिहास को नुक़सान नहीं पहुँचाएगा।’
इतिहास के पन्ने पलटते समय मौजूदा राजनीतिक सामाजिक परिदृश्य के संदर्भ में मन में आज यह सवाल उठना लाज़िमी है कि अगर आंबेडकर ने बौद्ध धर्म की जगह इसलाम क़बूल कर लिया होता क्या तब भी वह बीजेपी और आरएसएस के लिए उतने ही स्वीकार्य, आदरणीय और स्मरणीय होते
विडम्बना ही है कि अप्प दीपो भव का मंत्र देने वाले मूर्तिभंजक बुद्ध को उनके नाम पर धर्म चलाने वाले अनुयायियों ने भगवान बना कर मूर्तियों में कैद कर दिया और बौद्ध धर्म आडंबरों का शिकार हो गया। आंबेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले भी आज उस बहुसंख्यक सांप्रदायिक राजनीति के मौन-मुखर समर्थक और साझेदार बने हुए हैं जिसने सदियों उनका शोषण किया और जिससे मुक्ति के लिए आंबेडकर पूरा जीवन संघर्ष करते रहे।