गुलज़ार से वो मुलाकात, जो एहसास बन गई!
“जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस-पास होता है”
आज गुलज़ार की सालगिरह है। गुलज़ार साहब से हमारी बस तीन बार की ही मुलाक़ातें हैं। आख़िरी मुलाक़ात 2014 की है। गुलज़ार साहब से सबसे यादगार मुलाक़ात सन 2000 की है जब बीबीसी और दूरदर्शन के एक ज्वाइंट प्रोजेक्ट में हम लोग तीन चार दिनों तक दिल्ली के एम्बैसेडर होटल में थे। दूरदर्शन के साथ बीबीसी ने एक साल भर का एंटी लेपोरेसी प्रोजेक्ट किया था जिसका मक़सद सोशल एडवरटाईजिंग के ज़रिए समाज में लेपोरेसी यानी कुष्ठ रोग से जुड़ी भ्रांतियों और स्टिगमा को दूर करना था।
लखनऊ में शुरुआती बैठकों के बाद हम लोगों को दिल्ली कुछ रियल लाईफ़ स्टोरीज़ लेकर आने को कहा गया और इन स्टोरीज़ पर ब्रेन स्टार्मिंग के लिए बीबीसी ने एड गुरु एलिक पदमसी और गुलज़ार साहब को इंवाल्व किया। कैम्पेन के तहत हम लोगों को सोशल एडवरटाईजिंग के ज़रिए स्पाट्स बनाने थे और एक रियल लाईफ़ केस स्टडी पर टेलीफ़िल्म। टेलीफ़िल्म के लिए हमने लखनऊ केजीएमसी मेडिकल कॉलेज की एक नर्स की कहानी ली थी।
हमारी मामी की छोटी बहन के हसबैंड डॉ. निर्मल श्रीवास्तव थे। डॉ. निर्मल लखनऊ लेपोरेसी के हेड थे जिन्होंने हमें ये केस स्टडी बताई थी। जिस नर्स की कहानी थी वो निर्मल मौसा के वार्ड में ही थी और लेपोरेसी का दाग़ छुपाने के लिए कलाई में बैंडेज लगाए रखती थी। निर्मल मौसा ने उसकी काउंसलिंग की और ईलाज करवा कर उसे लेपोरेसी से निजात दिलाई। जब गुलज़ार साहब को नर्स का प्लॉट बताया तो कुर्सी खींच कर हमारे सामने बैठ गए। थोड़ी देर बाद पूछा, 'तुमने हमारी फ़िल्म ख़ामोशी देखी है?' हमने जब कहा, 'देखी है। दो बार देखी है!' तो बोले, 'इस कहानी के लिए तुम्हें उसी गेट अप की, उतनी ही पैशनेट कैरेक्टर तलाशनी होगी। नर्स का ये किरदार लोकल यानी लखनऊ का ही होना चाहिए किसी जानी पहचानी टी.वी. या फ़िल्म एक्ट्रेस को मत चुनना वरना ये कैरेक्टर सीधे वहीदा जी से कम्पेरिज़न में आ जाएगा और पर्दे पर वैसा नर्स का कोई क़िरदार निभा ही नहीं सकता!'
गुलज़ार साहब ने आगे कहा, 'चैलेंज अब ये है कि लेपोरेसी को तुम कैसे रोमांटिसाइज़ करोगे? नर्स की इस कहानी के अलग अलग लाइफ़ इवेन्टस् बनाओ। उसके एक लव इंटरेस्ट को इंट्रोड्यूस करो और कल स्टोरी बोर्ड का स्केच लाओ!' देर शाम लखनऊ निर्मल मौसा को फ़ोन लगाया और नर्स की कहानी एक बार तफ़्सील से सुनी। अपनी तरफ़ से जितना लिख पाए लिखा और अगली सुबह गुलज़ार साहब के पास पहुंच गए। कहानी में एक जगह नर्स का लव इंटरेस्ट उसे प्रपोज़ करता है जिस पर लेपोरेसी का दाग़ होने की वजह से नर्स कोई जवाब नहीं देती और वापस चली जाती है। ये सीन हमने मेडिकल कॉलेज नर्स होस्टल के गेट पर प्लान किया था। सीन सुनकर गुलज़ार साहब ने कहा, 'प्रपोज़ल पर अगर नर्स ख़ामोश रहती है तो ये एक्सेपटेंस मानी जाएगी। प्रपोज़ल को रिजेक्ट कर दे तो ज़्यादा ठीक रहेगा!' हमने कहा, 'फिर तो गुलज़ार साहब कहानी ख़त्म हो जाएगी!' गुलज़ार बोले, 'नहीं कहानी में इंटरेस्ट तब आता है जब ऑडियंस को शॉक ट्रीटमेंट मिलता है। कहानी यहीं से आगे बढ़ती है!'
बहरहाल, लखनऊ आकर हमने कहानी को रिडेवलेप किया और पुष्पेश पंत से स्क्रीन प्ले लिखवा कर गुलज़ार साहब को भेज दिया। उनका गो अहेड आ गया और टेलीफ़िल्म शूट होकर टेलिकास्ट हो गई। ये बात सितम्बर 2000 की रही होगी। बाद में गुलज़ार साहब से दिल्ली में एक बार बस ऐसे ही चलते फिरते मुलाक़ात हुई। बात नहीं हो सकी। तक़रीबन दस साल बाद गुलज़ार साहब से 2014 में अच्छी ख़ासी मुलाक़ात हो सकी जब त्रिपुरारि शरण डीजी ने उन्हें बुलाया। अबकी बार गुलज़ार साहब से लम्बी मुलाक़ात हो सकी क्योंकि वो हमारे दफ़्तर में ही आए थे। हमने उनसे सन 2000 की बीबीसी प्रोजेक्ट के दौरान मुलाक़ात का ज़िक्र किया तो उन्हें कुछ कुछ याद आया लगा। जब हमने डिटेल में नर्स पर टेलीफ़िल्म का ज़िक्र किया तो उन्हें याद आ गया। गुलज़ार ने पूछा, 'टेलीफ़िल्म बन गई थी?' हमने कहा, 'जी लोगों का बहुत अच्छा रिस्पांस भी आया'। गुलज़ार फिर थोड़ा शिकायताना अंदाज़ में बोले, 'लेकिन तुमने हमें फ़िल्म दिखाई नहीं! चलो फिर कभी मुलाक़ात होगी और मुमकिन हो सके तो दिखा देना या लिंक भेज देना'।
इस बात को भी अब नौ साल हो गए। इस दौरान कितनी दफ़ा लखनऊ गए लेकिन दूरदर्शन जाकर टेलीफ़िल्म 'एहसास' न ला पाए। पता नहीं अब लखनऊ के अर्काइव में है भी कि नहीं!
(रमन हितकारी के फ़ेसबुक पेज से)