+
किसान आंदोलन को कमज़ोर करता है ग्रेटा का अभियान

किसान आंदोलन को कमज़ोर करता है ग्रेटा का अभियान

भारत के किसान आंदोलन के साथ ग्रेटा तनबर्ग (थनबर्ग) के खड़े होने से मुश्किलें किसानों की भी बढ़ती दिख रही हैं और भारत सरकार की भी।

भारत के किसान आंदोलन के साथ ग्रेटा तनबर्ग (थनबर्ग) के खड़े होने से मुश्किलें किसानों की भी बढ़ती दिख रही हैं और भारत सरकार की भी। भारत सरकार को देश की वैश्विक छवि की चिंता है तो आंदोलनकारी किसानों को अपने देश से भावनात्मक लगाव बनाए और बचाए रखने की। मगर, सियासत अगर किसी की मज़बूत हो रही है या होने वाली है तो वह सत्ताधारी बीजेपी की ही है। अन्य किसी दल को इस प्रकरण से कोई सियासी फायदा नहीं होने वाला है, उल्टे उनका सियासी नुक़सान होगा।

ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट से जुड़े टूलकिट के ज़रिए तीन अभियान चलाए जा रहे हैं-

  1. किसान आंदोलन के प्रति समर्थन जुटाने का अभियान
  2. संयुक्त राष्ट्र में भारत की शिकायत का अभियान
  3. भारत को ब्रिटिश मदद रोकने के लिए ब्रिटिश सांसदों से समर्थन का अभियान

बौद्धिक विमर्श में भले ही भारत के किसानों के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग जुटाने की आज़ादी का बचाव किया जा रहा हो, लेकिन घरेलू आंदोलनों में विदेश से मदद या फिर अपने ही देश के ख़िलाफ़ यूएन जाने या अपने ही देश को विदेशी (यहाँ ब्रिटिश) मदद रोकने का समर्थन ख़ुद आंदोलनकारी किसान कर पाएँगे- इसकी संभावना बहुत कम है। इसकी वजह अतीत में है।

भारतीय आंदोलनों को विदेशी मदद से रहा है परहेज

भारत ऐसा देश रहा है जहाँ स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे आंदोलनकारियों ने भी तत्कालीन अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध विदेशी मदद स्वीकार करने से परहेज किया। महात्मा गांधी ने जहाँ पहले विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की सेना में भर्ती होने के लिए नौजवानों को प्रेरित किया, वहीं दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भी युद्धरत ब्रिटिश शासन की मजबूरी का फ़ायदा उठाने से भी वह बचते रहे। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जर्मनी, इटली, रूस, जापान सबसे मदद माँगी, लेकिन उनकी पहल को भारत में लोकप्रियता नहीं मिल सकी। (ऐसा लिखने का मतलब यह क़तई नहीं है कि स्वतंत्रता आंदोलन में नेताजी की भूमिका को कमतर आँका जाए।)

आज़ाद हिन्दुस्तान में भी भारतीय जनता का स्वभाव बदला नहीं है। कश्मीर के मुद्दे को यूएन में ले जाना पंडित जवाहरलाल नेहरू की भूल माने जाने का मनोविज्ञान भी यही है।

हालाँकि भारत के प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने ऐसा किया था, मगर कांग्रेस के भीतर ही विरोध के स्वर उठने लगे थे।

ख़ुद नरेंद्र मोदी भी उदाहरण हैं। मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी पर गुजरात दंगे को आधार बनाकर अमेरिका ने वीजा देने से मना कर दिया। मगर, घरेलू सियासत में इसका राजनीतिक नुक़सान होने के बजाए मोदी और उनकी पार्टी बीजेपी को फ़ायदा ही हुआ। वजह साफ़ है कि भारत की जनता नस्लवादी अमेरिका को इस काबिल नहीं समझती कि वह भारत को धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाए।

 - Satya Hindi

16 वर्ष की उम्र से ग्रेटा थनबर्ग को पर्यावरण के लिए लड़ते हुए तमाम भारतीयों का समर्थन मिला है। अमेरिका से दो-दो हाथ करने को भी सराहा गया है। इस वक़्त भी भारतीय किसान आंदोलन के साथ शासन के बर्ताव पर ग्रेटा की प्रतिक्रिया अस्वाभाविक या ग़ैरवाजिब नहीं है। फिर भी भारत के आम किसानों को ग्रेटा थनबर्ग की सहानुभूति आकर्षित नहीं करती। वजह यह है कि भारत का किसान ख़ुद को सशक्त मानता है। अपनी लड़ाई वह ख़ुद लड़ सकता है, जानता है। किसान संघर्षरत ज़रूर हैं और उन्हें इस बात का भी इल्म है कि देश लोकतंत्र के एक ख़राब दौर से गुज़र रहा है। मगर, इसका मतलब यह नहीं कि उन्हें अपने आंदोलन को सफल बनाने के लिए विदेशी अभियान की ज़रूरत पड़ेगी।

वीडियो में देखिए, किसान आंदोलन मोदी सरकार को पड़ेगा भारी?

भारत से बाहर रद्द नहीं हो सकते कृषि क़ानून

एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत के तीन क़ानूनों को रद्द कराने का मंच देश की संसद या फिर अदालत है। इसलिए कृषि क़ानूनों को ख़त्म कराने के लिए कोई अभियान देश से बाहर चले तो यह फलदायी कैसे हो सकता है! ऐसा नहीं है कि यह अभियान एक-दो दिन से चल रहा हो। एक महीने से यह अभियान चल रहा है जिसकी पुष्टि थनबर्ग के टूलकिट के ज़रिए संबंधित वेबसाइट पर जाने से होती है। इस एक महीने में महज 1 लाख 32 हजार लोग अब तक इस अभियान से जुड़ पाए हैं। वैश्विक स्तर पर यह संख्या बहुत छोटी इसलिए है क्योंकि भारत में इस या उस पक्ष के यू-ट्यूब वीडियो के व्यूअर्स भी मिलियन में होते हैं।

टूल किट में #AskIndiaWhy के साथ यह सवाल उठाया गया है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों के ख़िलाफ़ हिंसा का सहारा भारत सरकार क्यों ले रही है?

इस सवाल के साथ याचिका को यूएन तक पहुँचाने की इस मुहिम में इन पंक्तियों के लिखे जाने तक महज 2,927 लोगों ने ही हस्ताक्षर किए हैं। यह मुहिम असफल ही कही जाएगी।

भारत सरकार के लिए यह चिंता का सबब ज़रूर है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसा अभियान चल पड़ा है जो उसके शासन के तौर-तरीक़ों को वैश्विक मंच पर चर्चा का विषय बना रहा है। कश्मीर मुद्दे पर पहले भी ऐसी कोशिशों को भारत झेलता रहा है। लिहाज़ा कोई असर भारत सरकार पर पड़ेगा, इसकी संभावना बहुत कम है।

 - Satya Hindi

ग्रेटा के टूल किट पर एफ़आईआर बेमतलब

वहीं सच यह भी है कि भारत सरकार इस दबाव को हावी नहीं होने देने के लिए जो रास्ता अख्तियार कर रही है उससे वास्तव में यह दबाव और बढ़ेगा। ग्रेटा थनबर्ग के ख़िलाफ़ दो समूहों में तनाव पैदा करने जैसे आरोपों के मद्देनज़र दिल्ली पुलिस का टूल किट बनाने वाले अज्ञात लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज करना उल्टा पड़ सकता है। इससे भारत सरकार के दमनकारी होने के दावे की ही पुष्टि होगी। ग्रेटा थनबर्ग को अदालत तक खींचने या जवाब-तलब करने में शायद ही भारत कभी सफल हो पाए। ऐसे में दिल्ली पुलिस की कवायद का कोई मतलब नहीं निकलता।

यह बात साफ़ है कि ग्रेटा थनबर्ग भले ही किसानों के लिए वैश्विक स्तर पर कुछ समर्थन जुटा लें, लेकिन उससे भारत में किसानों का आंदोलन मज़बूत नहीं होगा। बल्कि, यह कमज़ोर होगा। यह अभियान आंदोलनकारियों के विरुद्ध शासन को ही मज़बूती प्रदान करेगा।

अच्छा यह होगा कि आंदोलनकारी ऐसे अभियान से ख़ुद को दूर रखें। भारत के विपक्ष को भी यह साफ़ करना होगा कि वह सरकार के ख़िलाफ़ संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय मंच पर ले जाने के समर्थन में क़तई नहीं हैं।

यह बेशक़ीमती सवाल है कि ग्रेटा थनबर्ग के ट्वीट से जो अंतरराष्ट्रीय साज़िश सत्ताधारी दल ढूंढ रही है वह रची हुई किसकी है? नफ़ा-नुक़सान का सिद्धांत तो यही कहता है कि जिसे फायदा हो रहा हो साज़िश उसी की हो सकती है। ऐसे अंतरराष्ट्रीय साज़िश न कभी बेनकाब हुए हैं और न इस मामले में भी होने वाले हैं। जाहिर है इस नज़रिए से भी नुक़सान किसान आंदोलन और भारतीय विपक्ष का ही होना है।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें