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जज बनाने की सिफारिश के 4 साल अब मिलेगी सरकार से मंजूरी!

जज बनाने की सिफारिश के 4 साल अब मिलेगी सरकार से मंजूरी!

न्यायालयों में जजों के पद खाली रहने की बड़ी वजह क्या है? यदि अदालतों में वर्षों से लंबित मामलों को निपटारा करना है तो सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम की सिफारिशों को आख़िर लंबे समय तक केंद्र क्यों रोकता है? 

केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम की एक सिफ़ारिश को 4 साल बाद अब मंजूरी दे सकती है। कॉलिजियम ने 2018 में जम्मू कश्मीर में अधिवक्ता सादिक वसीम नगराल की नियुक्ति की सिफारिश की थी। लेकिन तब से इसको मंजूरी नहीं मिली। अब 'द इंडियन एक्सप्रेस' की रिपोर्ट में सूत्रों के हवाले से ख़बर दी गई है कि जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में अधिवक्ता सादिक वसीम नगराल की नियुक्ति की सिफारिश को मंजूरी देने के लिए सरकार तैयार है।

रिपोर्ट है कि नगराल को जज बनाने की सिफारिश सरकार के पास लंबित सबसे पुरानी सिफारिश है। 24 अगस्त, 2017 को हाई कोर्ट कॉलिजियम ने सबसे पहली बार सिफारिश की थी। उनकी उम्मीदवारी को 6 अप्रैल, 2018 को सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम द्वारा अनुमोदित किया गया था। इसके बाद जनवरी 2019 में और फिर मार्च 2021 में सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम ने अपना निर्णय दोहराया। परंपरागत रूप से माना जाता है कि सरकार कॉलिजियम की सिफारिश को स्वीकार करने के लिए बाध्य है यदि निर्णय दोहराया जाता है।

अब जैसी की ख़बर आ रही है, यदि सरकार सादिक नगराल के नाम पर मुहर लगा देती है तो वह जम्मू के पहले मुस्लिम जज होंगे। नगराल ने पूर्ववर्ती जम्मू और कश्मीर राज्य के वरिष्ठ अतिरिक्त महाधिवक्ता के रूप में कार्य किया है और ज़्यादातर गृह मंत्रालय का प्रतिनिधित्व किया है। केंद्र सरकार के वकील के रूप में उन्होंने उच्च न्यायालय के समक्ष सेना, बीएसएफ़ और सीआरपीएफ़ सहित सुरक्षा बलों का प्रतिनिधित्व किया है।

सादिक नगराल जैसी सिफारिशों में इतनी देरी को देखकर सीधा सवाल उठता है कि अदालतों में खाली पद भरने में सरकार आख़िर क्यों देरी कर रही है?

खुद भारत के मुख्य न्यायाधीश इस बात को लेकर चिंतित रहे हैं। यह चिंता कितनी बड़ी है, यह इससे समझा जा सकता है कि पिछले साल अक्टूबर महीने में सीजेआई एनवी रमना ने ही कहा था कि उस साल मई से सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम ने जजों के लिए 106 नाम और मुख्य न्यायाधीश के लिए 9 नाम भेजे थे, लेकिन सरकार ने अक्टूबर महीने तक सिर्फ़ 7 जजों और एक मुख्य न्यायाधीश के नाम को ही हरी झंडी दी थी।

इसका साफ़ मतलब है कि सुप्रीम कोर्ट का पैनल जिन नामों की पूरी जाँच-पड़ताल कर सिफ़ारिश करता है सरकार उस पर मुहर लगाने में देरी करती है। इसका सुप्रीम कोर्ट कई बार ज़िक्र कर चुका है।

पिछले साल अगस्त महीने में ही सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के बढ़ते खाली पदों को भरने में केंद्र सरकार की ओर से हो रही देरी पर नाराज़गी जताई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट कॉलिजियम द्वारा सिफारिशों को मंजूरी देने के वर्षों बाद भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं होने का कारण सरकार का ‘अड़ियल रवैया’ है।

तब सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने टिप्पणी की थी कि दिल्ली उच्च न्यायालय मामले की जल्द सुनवाई करने की स्थिति में नहीं है, क्योंकि यह अपनी आधी क्षमता से काम कर रहा है।

सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी इसलिए अहम थी कि अदालतें लंबित मामलों के भार तले दबते जा रही हैं फिर भी अदालतों में जजों के पद ज़्यादा ही खाली होते जा रहे हैं। यह सिर्फ़ ज़िला अदालतों की स्थिति नहीं है, बल्कि हाई कोर्ट की भी स्थिति है। सुप्रीम कोर्ट के बार-बार नाराज़गी जताने के बाद भी इसमें देरी हो रही है। खाली पद लगातार बढ़ते ही जा रहे हैं। 2006 में देश भर के उच्च न्यायालयों में जहाँ स्वीकृत 726 पदों में से 154 खाली थे वहीं अब स्वीकृत क़रीब ग्यारह सौ पदों में से क़रीब आधे खाली हैं। 

बता दें कि जजों के पद खाली होने का असर लंबित मामलों पर भी पड़ा। 2006 में उच्च न्यायालयों में जहाँ क़रीब 35 लाख केस लंबित थे वे बढ़कर अब 57 लाख से ज़्यादा हो गए हैं। ज़िला अदालतों में 2006 में जहाँ क़रीब ढाई करोड़ केस लंबित थे वे अब पौने चार करोड़ से ज़्यादा हो गए हैं।

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