क्या दाभोलकर, पानसरे हत्याकांड की जाँच का कोई निष्कर्ष कभी निकल पायेगा? अदालत ने जिस तरह से बार-बार इस मामले की जाँच को लेकर टिप्पणियां की है उससे तो अब ये आशंकाएं खड़ी होने लगी हैं कि कहीं न कहीं से कोई दबाव है जो पूरे प्रकरण की तह तक जाने में जाँच दल के समक्ष बाधाएं पैदा करता है। ये शंकाएं इस मामले में अब तक की गयी बॉम्बे हाई कोर्ट की टिप्पणियों में भी देखने को स्पष्ट नज़र आती हैं। इस मामले में अदालत ने सीबीआई, पुलिस के विशेष जाँच दल और राज्य सरकार को अनेकों बार खरी खरी सुनाई है लेकिन उसके बावजूद जाँच किसी निर्णायक मोड़ पर नहीं पहुंची है।
बुधवार को एक बार फिर अदालत ने जांच अधिकारियों को कहा कि ‘जांच ऐसे ही तो अधूरी नहीं छोड़ी जा सकती?’
अदालत ने कहा कि जाँच को लेकर पानसरे परिवार ने जो मांग की है उस पर 3 अगस्त तक निर्णय लेना ही पड़ेगा इसलिए अपना जवाब स्पष्ट शब्दों में पेश करें। दरअसल, यह मामला विचारधाराओं के टकराव का है। और इस टकराव के चलते 20 अगस्त 2013 में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की गई, 20 फरवरी 2015 को गोविंद पानसरे, 30 अगस्त 2015 को एक और बुद्धिजीवी एम.एम. कलबुर्गी की भी हत्या कर दी गई। इसी क्रम में बेंगलुरु में 5 सितंबर 2017 को पत्रकार गौरी लंकेश की भी उनके घर में गोली मारकर हत्या कर दी गयी थी। बॉम्बे हाई कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान राजनीतिक दलों को सलाह भी दी थी, ‘वे विरोध की आवाजों को दबने ना दें’। कोर्ट ने कहा था कि इस देश में कोई भी संस्थान सुरक्षित नहीं है, भले ही वो न्यायपालिका ही क्यों न हो। यही नहीं, अदालत ने यह तक कह डाला था कि भारत की छवि अपराध और बलात्कार वाले देश की बन गई है, देश ऐसी 'दुखद स्थिति' का सामना कर रहा है जहाँ कोई भी किसी से बात नहीं कर सकता या उन्मुक्त नहीं घूम सकता है। अधिकारी इस जाँच को अत्यावश्यक रूप में नहीं ले रहे हैं, क्या महाराष्ट्र के सीएम के पास वक्त नहीं है?
सामाजिक कार्यकर्ता और वामपंथी नेता गोविंद पानसरे की सात साल पहले कोल्हापुर में उनके घर के सामने हत्या कर दी गई थी। उनकी हत्या किन लोगों ने किस उद्देश्य से की, इस पर आज तक रहस्य बना हुआ है। दूसरी ओर पानसरे परिवार को अब तक न्याय का इंतज़ार है। परिवार ने मांग की है कि जाँच जल्द से जल्द पूरी हो और उन्हें न्याय मिले। पानसरे की बहू मुक्ता ने गुरुवार 8 जुलाई को बॉम्बे हाईकोर्ट में एक अंतरिम आवेदन दायर कर उनकी हत्या की जांच महाराष्ट्र सीआईडी से राज्य एटीएस को स्थानांतरित करने की मांग की थी। याचिका में दावा किया गया था कि 2015 से मामले की जाँच में कोई प्रगति नहीं हुई है और जाँच की स्थिति ‘निराशाजनक’ है। मेघा पानसरे ने दावा किया कि पानसरे, नरेंद्र दाभोलकर, कन्नड़ शिक्षाविद व कार्यकर्ता एमएम कलबुर्गी तथा पत्रकार गौरी लंकेश की हत्याओं के पीछे एक ‘बड़ी साज़िश’ थी। इसलिए भी उनके क़त्ल के पीछे की कड़ी व मुख्य साज़िशकर्ता की जाँच होनी चाहिए।’
मुक्ता पानसरे की इस याचिका को अदालत ने गंभीरता से लिया है और कहा है कि वह 3 अगस्त 2022 तक की समय सीमा देती है जवाब देने के लिए।
दरअसल, इस मामले में अदालत ने जिस तरह से जाँच एजेंसियों व महाराष्ट्र पुलिस पर टिप्पणियाँ की हैं वे साधारण नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पुलिस इतनी लापरवाह हो गयी है या राजनीतिक दबाव उसकी जाँच प्रक्रिया को पंगु कर रहा है? महाराष्ट्र में विगत कुछ वर्षों में दाभोलकर-पानसरे की जाँच का मामला हो, भीमा -कोरेगांव और उससे उपजे शब्द अर्बन नक्सल का प्रकरण हो, सनातन संस्था के ख़िलाफ़ चल रही जाँच हो या महाराष्ट्र को-ऑपरेटिव बैंक मामला जिसमें अजीत पवार सहित क़रीब दो दर्जन राजनेता आरोपी हैं, इन सभी मामलों में अदालत ने न सिर्फ़ जाँच एजेंसियों के कामकाज पर उँगली उठाई है, अपितु उन्हें फटकार भी लगाई है कि वे मामलों की जांच क्यों नहीं कर रहे?
बुधवार को फिर से एक बार न्यायालय ने गोविंद पानसरे की जांच के मामले में गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) की जाँच को लेकर तीव्र नाराज़गी जताई। अदालत ने कहा कि प्रकरण को सात साल हो गए हैं। आख़िर कब तक इंतज़ार करना पड़ेगा।
दरअसल, बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक बार इस मामले में महाराष्ट्र की जांच एजेंसी और सीबीआई को कर्नाटक पुलिस का उदाहरण भी दिया था कि किस तरह से कर्नाटक पुलिस इसी प्रकार के गौरी लंकेश हत्या काण्ड में आरोपियों तक पहुँच कर उन्हें गिरफ्तार कर पूरी साज़िश का पटाक्षेप कर दिया। जबकि महाराष्ट्र पुलिस या सम्बंधित जांच एजेंसियां इस बात को लेकर समय बर्बाद कर रही हैं कि दाभोलकर पर जो गोलियां दागी गई हैं, उन्हें जांच के लिए स्कॉटलैंड यार्ड के पास भेजा जाए या गुजरात। बड़ी बात तो यह है कि कुछ महीनों बाद जांच एजेंसियाँ न्यायालय को बताती हैं कि स्कॉटलैंड यार्ड और भारत के बीच इस बात पर कोई करार न होने की वजह से गोलियों की जांच गुजरात में होगी। उस समय अदालत ने जांच एजेंसियों से पूछा था कि क्या अधिकारियों के बीच सामंजस्य की कमी है या फिर अधिकारियों ने अपनी जांच मात्र मोबाइल फोन रिकॉर्ड तक सीमित कर दी है।
सबसे गंभीर बात तो यह थी कि यह सब तब हो रहा है जब पूरे मामले की जाँच कोर्ट की निगरानी में हो रही है। इस मामले की जाँच से जुड़े पुलिस अधिकारियों के तबादले बिना अदालती आदेश के किये जाने पर रोक लगी हुई है। अदालत ने एक सुनवाई के दौरान तात्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को फटकार लगाते हुए कहा था कि राजनीतिक दलों और उनके प्रमुखों को परिपक्वता दिखानी चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि तर्कवादियों नरेंद्र दाभोलकर और गोविंद पानसरे की हत्याओं की जाँच में कोई बाधा पैदा नहीं हो।
यही नहीं, अदालत ने इस मामले में गिरफ्तार 9 आरोपियों के पक्ष को अपनी टिप्पणियों में शामिल किया है। अदालत ने कहा कि उन्हें कब तक गिरफ्तार रखा जा सकता है? लेकिन लगता है कि इन सब बातों का कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ा और आज सात सालों बाद भी जाँच एजेंसियाँ कोई ठोस निष्कर्ष अदालत के समक्ष नहीं रख सकी हैं।