देश में पिछले कुछ सालों के दौरान तमाम संवैधानिक पदों में सबसे ज़्यादा बदनाम अगर कोई हुआ है तो वह है राज्यपाल का पद। वैसे यही सबसे ज़्यादा बेमतलब का पद भी है। इसीलिए भारी भरकम ख़र्च वाले इस संवैधानिक पद को लंबे समय से सफेद हाथी माना जाता रहा है और इसकी उपयोगिता तथा प्रासंगिकता पर अक्सर सवाल उठते रहते हैं।
सवाल उठाने का मौक़ा भी और कोई नहीं बल्कि कई राज्यपाल खुद ही अपनी उटपटांग हरकतों से उपलब्ध कराते हैं। ऐसे ज़्यादातर राज्यपाल उन राज्यों के होते हैं, जहाँ केंद्र में सत्तारूढ़ दल के विरोधी दल की सरकारें होती हैं।
संविधान निर्माताओं ने संविधान में जब राज्यपाल पद का प्रावधान किया था तो इसके पीछे उनका मक़सद केंद्र और राज्य के बीच बेहतर तालमेल बनाना और देश के संघीय ढांचे को मज़बूत करना था। यानी राज्यपाल के पद को केंद्र और राज्य के बीच पुल की भूमिका निभाने वाला माना गया था, लेकिन धीरे-धीरे यह पद सुरंग में तब्दील होता गया। इसके लिए किसी एक दल को ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है। जिस भी पार्टी या गठबंधन की केंद्र में सरकार बनी उसने अपने चहेते लोगों को राज्यपाल बनाया और उन राज्यपालों ने केंद्र में सत्ताधारी दल के विरोधी दलों की राज्य सरकारों को अस्थिर करने और उनके कामकाज में अड़ंगे लगाना शुरू कर दिए।
विपक्ष शासित राज्य सरकारों को राज्यपालों द्वारा परेशान या अस्थिर करने की हरकतें कांग्रेस के जमाने में भी होती थीं, लेकिन कभी-कभार ही। मगर पिछले छह-सात वर्षों के दौरान तो ऐसा होना सामान्य बात हो गई है। महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि राज्यों में तो वहां की सरकारों के ख़िलाफ़ राज्यपालों ने एक तरह से आंदोलन ही छेड़ रखा है। ऐसा लग रहा है मानो इन राज्यों के राजभवन पार्टी कार्यालय के रूप में तब्दील हो गए हैं और राज्यपाल नेता प्रतिपक्ष के भूमिका धारण किए हुए हैं।
कुछ राज्यों में तो इस समय राज्यपाल समानांतर सरकार चला रहे हैं। बिहार इसका एक अपवाद है। वहाँ बीजेपी के समर्थन वाली सरकार है और वह खुद भी सरकार में शामिल है, फिर भी वहाँ के राज्यपाल की स्वायत्त सत्ता है, जिसे लेकर सरकार और राज्यपाल में पिछले दिनों टकराव की स्थिति बनी। राज्यपाल फागू चौहान विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति और सेवा विस्तार को लेकर विवादों में घिरे। उन्होंने राज्यपाल बन कर आने के बाद से अपना गृह राज्य उत्तर प्रदेश के फैजाबाद से लाकर सुरेंद्र प्रताप सिंह को तो गोरखपुर से लाकर राजेंद्र प्रसाद को बिहार के अलग-अलग विश्वविद्यालयों का कुलपति बनवाया।
उनके लाए कई और लोग भी कुलपति बने। इनमें से कई लोगों के ऊपर रिश्वत लेने और दूसरी कई गड़बड़ियों के आरोप लगे हैं। इन आरोपों के बावजूद राज्यपाल कार्यालय से एक कुलपति को सेवा विस्तार और दूसरे विश्वविद्यालय का प्रभार भी मिला। जब बिहार सरकार को इसकी जानकारी हुई तो उसने तीन नए विश्वविद्यालयों को राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया। राज्यपाल इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने तीनों विश्वविद्यालयों की स्थापना संबंधी विधेयक को ही लटका दिया।
बहरहाल, विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति को लेकर बिहार की तरह केरल में भी राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान और राज्य सरकार के बीच ठनी हुई है। केरल के राज्यपाल कुलपतियों की नियुक्ति में राज्य सरकार की भूमिका से बेहद नाराज़ हैं।
उन्होंने कन्नूर विश्वविद्यालय, कालड़ी के शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय आदि में कुलपति की नियुक्ति का विरोध किया। उन्होंने सरकार से कहा है कि वह विश्वविद्यालयों के कामकाज में दख़ल देना बंद करे या एक अध्यादेश लाकर राज्य के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति का पद खुद संभाल लें ताकि वे कुलपति के पदों पर अपने मनचाहे लोगों को नियुक्त कर सकें। राज्यपाल सरकार से इतने नाराज़ हैं कि उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि राज्य की उच्च शिक्षा व्यवस्था कुत्तों के हाथ में चली गई है।
केरल में इससे पहले भी सरकार और राज्यपाल के बीच ऐसा ही टकराव पैदा हुआ था। केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए संशोधित नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ जब केरल विधानसभा मे प्रस्ताव पारित हुआ था तो राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान ने उसे पता नहीं किस आधार असंवैधानिक बता दिया था। बाद में जब राज्य सरकार ने इस क़ानून को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तो राज्यपाल ने इस पर भी ऐतराज जताया और कहा कि सरकार ने ऐसा करने के पहले उनसे अनुमति नहीं ली। यही नहीं, राज्यपाल इस मुद्दे को लेकर मीडिया में भी गए। मीडिया के सामने भी वे राज्यपाल से ज़्यादा केंद्र सरकार के प्रवक्ता बनकर पेश आए और नागरिकता संशोधन क़ानून पर राज्य सरकार के एतराज को खारिज करते रहे।
उधर अपने पद की गरिमा और संवैधानिक मर्यादा लांघने को लेकर अक्सर चर्चा में रहने वाले महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी अपनी राजनीतिक ढिठाई का प्रदर्शन करते हुए एक साल से ज़्यादा समय से विधान परिषद के 12 सदस्यों का मनोनयन की फाइल रोक कर बैठे हैं। अपने इस रवैये को लेकर हाई कोर्ट की ओर से शर्मिंदा करने वाली टिप्पणी किए जाने के बाद भी राज्यपाल सरकार की ओर से भेजी गई 12 नामों की मंज़ूरी नहीं दे रहे हैं।
दरअसल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुवाई में चल रही महाविकास अघाड़ी की सरकार शुरू से ही राज्यपाल के निशाने पर रही है। अव्वल तो उन्होंने केंद्र सरकार और बीजेपी के प्रति अपनी वफादारी का परिचय देते हुए शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के गठबंधन के बहुमत को नज़रअंदाज़ कर बीजेपी के बहुमत के दावे का परीक्षण किए बगैर अचानक रात के अंधेरे में ही देवेंद्र फड़णवीस को शपथ दिला दी थी। यह और बात है कि फड़णवीस को महज दो दिन बाद ही इस्तीफा देना पड़ा था और राज्यपाल को न चाहते हुए भी महाविकास अघाड़ी के नेता उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलानी पड़ी थी।
कोश्यारी ने पूरी कोशिश इस बात के लिए की कि उद्धव ठाकरे छह महीने की निर्धारित समय सीमा में विधान मंडल का सदस्य न बनने पाएँ।
वह मामला भी आखिरकार तब ही निबटा जब ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दखल देने की गुहार लगाई। प्रधानमंत्री के दखल से ही वहां विधान परिषद के चुनाव हुए और ठाकरे विधान मंडल के सदस्य बन पाए थे।
यही नहीं, कुछ महीनों पहले जब कोरोना संक्रमण के ख़तरे को नज़रअंदाज़ करते हुए महाराष्ट्र के बीजेपी नेताओं ने राज्य के बंद मंदिरों को खुलवाने के लिए आंदोलन शुरू किया तो राज्यपाल ने खुद को उस मुहिम से जोड़ते हुए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को एक पत्र लिखा। उन्होंने अपने पत्र में मंदिर न खोलने के लिए ठाकरे पर बेहद अशोभनीय तंज करते हुए कहा, ''पहले तो आप हिंदुत्ववादी थे, अब क्या सेक्युलर हो गए हैं?’’
भगत सिंह कोश्यरी के साथ देवेंद्र फडणवीस
पश्चिम बंगाल में राज्यपाल जगदीप धनखड़ के साथ राज्य सरकार का टकराव भी जगजाहिर है। ताजा मामला हावड़ा नगर निगम संशोधन विधेयक का है। विधानसभा से पास होने के बाद राज्यपाल की मंजूरी के लिए फाइल गई है और मंजूरी से पहले राज्यपाल और जानकारी मांग रहे हैं। इस मामले में स्पीकर के साथ भी उनकी नोक-झोंक हुई है। इसी साल राज्य में विधानसभा चुनाव होने के पहले तो राज्यपाल धनखड़ ने केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी के साथ मिलकर सूबे की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के ख़िलाफ़ एक तरह से युद्ध ही छेड़ रखा था।
धनखड़ से पहले उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ बीजेपी नेता केसरी नाथ त्रिपाठी पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। उनका भी पूरा कार्यकाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से टकराव में ही बीता था।
राजस्थान, पंजाब, और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार हैं। इन राज्यों में भी राज्यपाल और सरकार के बीच आए दिन टकराव के हालात बनते रहते हैं। कुछ समय पहले केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए विवादास्पद कृषि क़ानूनों पर विचार करने के लिए इन राज्यों की सरकारों ने अपने यहाँ राज्य विधानसभा का विशेष सत्र बुलाना चाहा तो इसके लिए पहले तो वहाँ के राज्यपालों ने मंजूरी नहीं दी और और कई तरह के सवाल उठाए। बाद में केंद्र सरकार के निर्देश पर विधानसभा सत्र बुलाने की मंजूरी दी भी तो विधानसभा में राज्य सरकार द्वारा केंद्रीय कृषि संबंधी केंद्रीय क़ानूनों के विरुद्ध पारित विधेयकों और प्रस्तावों को मंजूरी देने से इंकार कर दिया।
पिछले सात सालों के दौरान राज्यों में चुनाव के बाद विपक्ष को सरकार बनाने से रोकने, विपक्षी दलों की सरकारों को विधायकों की ख़रीद-फ़रोख्त के ज़रिए गिराने या गिराने की कोशिश करने और वहाँ बीजेपी की सरकार बनाने के कारनामे भी ख़ूब हुए हैं। इन सभी खेलों में राज्यपालों ने अहम भूमिका निभाई है। इस सिलसिले में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी का ज़िक्र तो ऊपर हो ही चुका है। उनके अलावा कर्नाटक में वजुभाई वाला, राजस्थान में कलराज मिश्र, जम्मू-कश्मीर में सत्यपाल मलिक, मध्य प्रदेश में लालजी टंडन (अब दिवंगत), मणिपुर में नज़्मा हेपतुल्लाह और गोवा की पूर्व राज्यपाल मृदुला सिन्हा (अब दिवंगत), मध्य प्रदेश में आनंदीबेन पटेल, उत्तर प्रदेश में रामनाईक, राजस्थान में कल्याण सिंह आदि के दलीय राजनीति से प्रेरित असंवैधानिक कारनामे भी जगजाहिर हैं।
सत्यपाल मलिक
राज्यपाल के पद पर रहते हुए अशोभनीय और विभाजनकारी राजनीतिक बयानबाजी करने वालों में मेघालय, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहे तथागत रॉय का नाम भी उल्लेखनीय है। पश्चिम बंगाल में बीजेपी के अध्यक्ष रहे तथागत रॉय ने राज्यपाल रहते हुए महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ़ करने से लेकर मुसलमानों का मताधिकार छीन लेने जैसे कई विवादास्पद बयान दिए। लेकिन उनका सबसे चौंकाने वाला बयान था कि भारत में हिंदू-मुसलिम समस्या का समाधान सिर्फ़ गृहयुद्ध से ही निकल सकता है। हैरानी की बात है कि उनके इस बेहद आपत्तिजनक और भड़काऊ बयान का भी केंद्र सरकार और राष्ट्रपति ने संज्ञान नहीं लिया।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि राज्यपाल पद के अवमूल्यन में कांग्रेस शासन के दौरान जो कमियाँ रह गई थीं, वह पिछले छह-सात वर्षों के दौरान केंद्र सरकार के संरक्षण में तमाम राज्यपालों ने अपने कारनामों से पूरी कर दी हैं। राज्यपालों के अमर्यादित, असंवैधानिक और गरिमाहीन आचरण के जो रिकॉर्ड इस दौरान बने हैं, उनको अब शायद ही कोई तोड़ पाएगा।