+
लिंचिंग पर सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के डंडे का भी डर नहीं?

लिंचिंग पर सरकारों को सुप्रीम कोर्ट के डंडे का भी डर नहीं?

क्या आपको किसी ऐसे केस के बारे में पता है जिसमें लिंचिंग यानी पीट-पीट कर मारे जाने के बाद पीड़ित परिवार को न्याय मिला हो? शायद मिला भी हो तो मुश्किल से ही याद कर पाएँ।

क्या आपको किसी ऐसे केस के बारे में पता है जिसमें लिंचिंग यानी पीट-पीट कर मारे जाने के बाद पीड़ित परिवार को न्याय मिला हो? शायद मिला भी हो तो मुश्किल से ही याद कर पाएँ। क्योंकि लिंचिंग के इतने मामले लगातार आ रहे हैं कि इनको याद रखना ही आसान नहीं है। चाहे वह गो तस्करी, गो हत्या के नाम पर लिंचिंग हो या बच्चों या अन्य चोरी के नाम पर। तबरेज़ अंसारी, अख़लाक़, पहलू ख़ान जैसे बहुचर्चित और देश की राजनीति को हिला देने वाले लिंचिंग के मामले का भी क्या हस्र हुआ, यह सबके सामने है। तबरेज़ लिंचिंग मामले में 11 अभियुक्तों पर से हत्या की धारा हटा ली गई है। उन मामलों का तो कोई हिसाब ही नहीं है जो राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ नहीं बन पाते। 

कई घटनाओं के चार साल से ज़्यादा हो गए, लेकिन अंतिम फ़ैसला नहीं आया है जबकि सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि ऐसे मामलों में छह महीने के अंदर फ़ैसला देने की कोशिश होनी चाहिए। लिंचिंग के लगातार आ रहे मामलों, इसे रोकने में पुलिस और सरकार की नाकामी पर ही सुप्रीम कोर्ट ने 2018 में एक दिशा-निर्देश जारी किया था। इसमें राज्य सरकारों, ज़िला प्रशासन और पुलिस को लिंचिंग रोकने की ज़िम्मेदारी दी गई थी और सरकारों को पीड़ित परिवार को तत्काल न्याय सुनिश्चित करने को कहा गया था। लेकिन क्या सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन हो रहा है? क्या क़ानूनी प्रक्रिया सही चल रही है?

सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश

राज्य सरकारें मॉब लिंचिंग रोकने के लिए हर ज़िले में एसपी रैंक के अधिकारी को नोडल अधिकारी नियुक्त करें।
लिंचिंग के मामलों की सुनवाई के लिए हरेक ज़िले में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बनाया जाए और कोशिश हो कि छह महीने के अंदर फ़ैसला आ जाए।
सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों को लागू करने में विफल रहने पर पुलिस और ज़िला प्रशासन की जानबूझकर की गई लापरवाही मानी जाएगी। 
राज्य सरकारें लिंचिंग के लिए योजना बनाएँ जिसमें कि पीड़ित परिवार को 30 दिनों के अंदर राहत मिले।
केंद्र और राज्य सरकारें रेडियो, टीवी और ऑनलाइन माध्यमों से यह चेतावनी दें कि मॉब लिंचिंग के गंभीर नतीजे भुगतने होंगे।
फ़ेक और ग़ैर-ज़िम्मेदार मैसेज, वीडियो फैलाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर ज़रूरी।

लिंचिंग पर सरकार, पुलिस रही नाकाम!

सुप्रीम कोर्ट के इन निर्देशों के बावजूद एक साल बाद भी हमले जारी हैं। पहले से कहीं ज़्यादा और लगातार। यही कारण है कि मामले नहीं रुके तो इसी साल जुलाई में सुप्रीम कोर्ट ने दिशा-निर्देशों के क्रियान्वयन को लेकर केंद्र, राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग और विभिन्न राज्यों को नोटिस जारी किए। इन निर्देशों में सभी प्रकार की विजिलैंटिज़्म के ख़िलाफ़ ज़िलेवार निगरानी, विशेष अदालतें, मामलों के तेज़ी से निपटारे, आरोपियों के ख़िलाफ़ छह महीने का ट्रायल और मुक़दमों की जाँच में अपनी ड्यूटी से विफल रहने पर पुलिस और ज़िला प्रशासन के लिए जुर्माने का प्रावधान भी शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बावजूद लिंचिंग के मामलों में न तो हर ज़िले में फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट बने और न ही एसपी रैंक का नोडल अधिकारी। न तो छह महीने में फ़ैसले आ रहे हैं और न ही 30 दिन के अंदर पीड़ित परिवारों को राहत मिलने की ख़बरें हैं।

पुलिस की ‘गंभीर लापरवाही’ 

लिंचिंग के मामले में पुलिस की गंभीर लापरवाहियाँ भी सामने आती रही हैं। कई बार कोर्ट ने इसके लिए फटकार भी लगाई है। पहलू ख़ान के मामले में भी ऐसा हुआ था। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार, पहलू ख़ान के मामले में अपने फ़ैसले में अदालत ने सभी छह आरोपियों को बरी करने में संदेह का लाभ दिया था, लेकिन यह भी कहा था कि राजस्थान पुलिस की जाँच में गंभीर कमियाँ थीं। फ़ैसले में अदालत ने मामले में प्राथमिकी दर्ज करने में देरी के लिए पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा कि इसने जाँच अधिकारी की ओर से ‘गंभीर लापरवाही’ दिखाई। इसमें कहा गया है कि जाँच अधिकारी ने पहलू ख़ान के बयान को 16 घंटे बाद थाने में दिया, यह बड़ी लापरवाही है। लिंचिंग के वक़्त बनाए गए वीडियो की फ़ोरेंसिक जाँच भी नहीं कराई गई थी।

अदालत ने यह भी नोट किया कि जाँच अधिकारी ने अस्पताल में मरनेे से पहले दिए गए पहलू के बयान को दर्ज करने से पहले डॉक्टरों से इस बात का प्रमाण पत्र नहीं लिया था कि वह अपना बयान दर्ज कराने की स्थिति में हैं या नहीं।

फ़ेक न्यूज़ पर कितनी कार्रवाई?

ऐसी रिपोर्टें आती रही हैं कि पुलिस को संदेह है कि फैलाए जा रहे फ़ेक न्यूज़ और मैसेज एक बड़े अभियान का हिस्सा हैं जिसमें राजनीति से जुड़ी फ़ेक न्यूज़ को कुछ ज़्यादा ही फैलाया जाता है। सोशल मीडिया पर ऐसी फ़ेक सामग्री की भरमार है, जिससे कई बार मॉब लिंचिंग की घटानाएँ हो जाती हैं। लेकिन शायद ही रिपोर्ट दर्ज हो पाती है।

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में ही अगस्त महीने में भीड़ द्वारा हमले की 58 घटनाएँ रिपोर्ट की गईं। पुलिस ने अफ़वाह फैलाने वालों के ख़िलाफ़ एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाने की चेतावनी दी। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार, पुलिस ने 80 ऐसे लोगों को गिरफ़्तार किया जो फ़ेक न्यूज़ फैला रहे थे। हालाँकि, हज़ारों फे़क न्यूज़ के सामने यह संख्या कुछ भी नहीं है। दूसरे राज्यों में भी ऐसी ही स्थिति है।

अब कुछ राज्यों में सुगबुगाहट

सुप्रीम कोर्ट की जुलाई में सख्त टिप्पणी के बाद मणिपुर और राजस्थान ने क़ानून बनाने में जल्दी दिखाई। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार, बंगाल ऐसा तीसरा राज्य होगा जो लिंचिंग को ऐसा अपराध बनाएगा जिसमें आजीवन कारावास और पाँच लाख रुपये का जुर्माना लगाया जाएगा। पश्चिम बंगाल लिंचिंग (रोकथाम) बिल 2019 में यह भी प्रावधान है कि अफ़वाह फैलाना अपराध होगा और जेल की सजा होगी। मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में इस पर क़ानून लाने पर विचार किया जा रहा है।

अब सुप्रीम कोर्ट के डंडे का राज्य सरकारों, ज़िला प्रशासन और पुलिस पर कितना असर पड़ता है, यह बाद में पता चलेगा। लेकिन जिस तरह से राजनीतिक फ़ायदे के लिए लिंचिंग का इस्तेमाल किया जा रहा है उससे इसको पूरी तरह से अमल में लाए जाने पर संदेह है।

सत्य हिंदी ऐप डाउनलोड करें