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महामारी में अपने ही लोगों के प्रति इतने लापरवाह और अन्यायी क्यों हैं सत्ताधारी?

महामारी में अपने ही लोगों के प्रति इतने लापरवाह और अन्यायी क्यों हैं सत्ताधारी?

सन् 2020 में आई कोरोना महामारी के दौरान देश के करोड़ों मज़दूरों और उनके परिजनों की यंत्रणा, बेहाली और तकलीफ़ के बारे में जब कभी याद किया जायेगा, सत्ताधारियों की ‘हिन्दुत्व-वैचारिकी’ पर भी सवाल उठेंगे।

कोरोना जैसी भयावह महामारी से निपटने में हमारे देश की सरकार की रणनीति के दो प्रमुख आयाम हैं- लॉकडाउन और राहत आदि के लिए पैकेज! 24-25 मार्च की मध्यरात्रि हमारी सरकार ने लॉकडाउन लागू किया। तब देश में 536 लोगों के संक्रमित होने की ख़बर थी और मरने वालों की संख्या 9 थी। प्रधानमंत्री मोदी को लॉकडाउन की अपनी रणनीति पर इतना भरोसा था कि उन्होंने उसकी घोषणा के कुछ ही घंटे बाद अपने संसदीय क्षेत्र-वाराणसी के लोगों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये संबोधित किया और मिथक का सहारा लेते हुए कहा था कि महाभारत का युद्ध 18 दिनों में जीता गया था। कोरोना से हमारी जंग 21 दिनों की है, हम 21 दिन में जीतेंगे। 

तथ्य सामने हैं। देश में संक्रमित लोगों की संख्या एक लाख चौंतीस हज़ार से ऊपर और मरने वालों की संख्या अड़तीस सौ से ऊपर हो चुकी है। और ये सरकारी आँकड़े हैं। भारत में जिन कुछ राज्यों ने कोरोना से अपने लोगों की रक्षा करने में अब तक बड़ी कामयाबी दर्ज की है, उनमें केरल नंबर-वन राज्य है। उसने सिर्फ़ लॉकडाउन के बल पर यह नहीं किया, उसने राज्य के हर ज़िले-हर तालुका स्थित सरकारी अस्पतालों के नेटवर्क और शासकीय संयोजन के बल पर यह कामयाबी हासिल की। पूरे राज्य में कम्युनिटी किचेन खुले और सरकारी स्तर पर एनजीओ आदि के सहयोग से बुजुर्ग या लाचार लोगों को होम-डिलीवरी होने लगी। लोगों के प्रति गहरे लगाव के बगैर यह संभव नहीं होता।

केरल को भी लॉकडाउन से मदद मिली। पर निजी अस्पतालों से भरे गुजरात को ऐसी कामयाबी नहीं मिली। बहुचर्चित ‘गुजरात मॉडल’ चारों खाने चित्त दिखा। उसके सरकारी अस्पताल न सिर्फ़ बेहाली और बदइंतज़ामी के शिकार थे अपितु उनकी संख्या भी बहुत कम थी। एक बड़े सरकारी अस्पताल में तो वार्डों का बँटवारा भी सांप्रदायिक आधार पर किया गया था।

सरकार का दूसरा क़दम था-राहत पैकेज के नाम पर 20 लाख करोड़ रुपए की घोषणा। लेकिन अब सारे तथ्यों के प्रकाश में आ जाने के बाद पूरे भरोसे से कहा जा सकता है कि यह राहत का पैकेज न होकर एक तरह का ‘लोन-मेला’ साबित हुआ है, जिस मेले में शामिल होने के लिए कॉरपोरेट और कुछ क़ारोबारियों के सिवाय कोई भी आम आदमी शायद ही शरीक होना चाहेगा। मज़दूरों को सिर्फ़ भाषणों के शब्द मिले, राहत के नाम पर एक रूपइय्या भी नहीं।

सरकार के इन दोनों क़दमों की विफलता के ठोस कारण हैं। लॉकडाउन का बेहतर फ़ायदा तभी मिलता जब देश के सभी राज्यों में केरल की तरह व्यवस्थित लोक स्वास्थ्य संरचना होती या सरकार ने लॉकडाउन की शुरुआती अवधि में उसके लिए तेज़ी से प्रयास किया होता। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। आज जब हालात लगातार ख़राब हो रहे हैं, मोदी सरकार ने लॉकडाउन का दायरा सीमित करने का फ़ैसला किया है, बाज़ार और सरकार के कामकाज को काफ़ी हद तक खोल दिया गया है। यहाँ तक कि इसी सोमवार से घरेलू विमान सेवाएँ भी शुरू हो रही हैं। कुछ राज्यों ने इसका विरोध किया है। वे नहीं चाहते कि उनके राज्य में अवस्थित हवाई अड्डों से विमान सेवाएँ संचालित हों। 

जब हालात इतने बुरे नहीं थे तो मोदी सरकार ने मिलों-दफ़्तरों के बंद होने से बेहाल हुए मज़दूरों को ट्रेन या बस सेवाएँ उपलब्ध कराने से इंकार किया था।

इस वक़्त दुनिया के 200 से ज़्यादा देश कोविड-19 जैसी भयानक महामारी की चपेट में हैं। इनमें विकसित भी हैं, विकासशील और बेहद ग़रीब भी। लेकिन कोरोना वायरस के हमले से अपने को बचाने की जद्दोजहद में जुटे दुनिया के किसी भी देश में मज़दूरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं देखा गया। अभूतपूर्व पलायन, उत्पीड़न और बेकारी।

लॉकडाउन के कुछ ही दिनों के अंदर जब मज़दूर सूरत, अहमदाबाद, तिरपुर, मदुरै, हैदराबाद, दिल्ली, गुड़गाँव, बंगलुरू, मुंबई और भिवंडी सहित दर्जनों औद्योगिक नगरों और केंद्रों पर रोज़गार, पगार और सरकार के किसी आपातकालीन-वित्तीय संरक्षण के बगैर जब वे भुखमरी की हालत में आने लगे तो उनका असंतोष सड़कों पर आ गया। तब दुनिया के तमाम देशों की तरह उन्हें कोई ठोस आर्थिक सुरक्षा कवच देने के बजाय शासन की पुलिस ने बाहर निकलने से रोकना और पीटना शुरू कर दिया।

सरकार ने ऐसा क्यों किया

सवाल उठता है कि एक स्वतंत्र देश में लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर आई सरकार ने ऐसा क्यों किया सन् 1896-1903 का प्लेग हो या 1918-20 की स्पेनिश फ्लू हो, उन दोनों महामारियों के दौरान भारत एक स्वतंत्र देश नहीं था। इसलिए उनमें मरने वाले लाखों लोगों और बेहाल होने वाले करोड़ों लोगों को बचाने की वैसी कोशिश नहीं हो पाई, जैसी किसी स्वतंत्र देश की लोकतांत्रिक और सभ्य सरकार अपने देशवासियों को बचाने के लिए करती है। ऐसे में आज यह सवाल उठना लाज़िमी है कि सन् 2020 में भारत जैसे एक स्वतंत्र और विकासशील देश की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार की अपने लोगों को बेहाली और महामारी से बचाने की कोशिशें इस कदर नाकाफ़ी और निराशाजनक क्यों नज़र आईं आम नागरिकों और ख़ासतौर पर मज़दूरों को बीमारी और बेहाली से बचाने के लिए मोदी सरकार के पास विकल्पों की कमी नहीं थी और न ही संसाधनों की कमी थी। फिर कहाँ गड़बड़ी हुई कि उत्तर भारत के तमाम राजमार्गों पर आज भी सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा कर अपने-अपने घर पहुँचने की कोशिश कर रहे ग़रीब मज़दूरों का रेला लगा हुआ है

हमें नहीं मालूम कि मोदी सरकार में समझदार, योग्य और संवेदनशील क़िस्म के सलाहकारों-जानकारों की कैसी टीम है पर यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि देश में ऐसे विशेषज्ञों या योग्य लोगों की कमी नहीं है।

सरकार चाहती तो ऐसे विशेषज्ञों को बैठाकर शुरू में ही आपातकालीन योजना बना सकती थी। लॉकडाउन या किसी भी अन्य पहल के लिए फ़रवरी के आख़िरी सप्ताह से ही तैयारी शुरू कर दी जाती। याद रहे, भारत में कोविड-19 का पहला मरीज़ 30 जनवरी को चिन्हित किया जा चुका था और केरल संक्रमण की आशंका भाँपते हुए फ़रवरी से ही आपातकालीन योजना को अमली जामा पहनाने लगा था। राज्य में इसके लिए अलग-अलग कमेटियाँ बनने लगी थीं और अस्पतालों को एलर्ट कर उन्हें ज़रूरी संरचनाओं और उपकरणों से सज्जित किया जाने लगा था।

तैयारी कैसी रही

ऐसे में केंद्र सरकार को फ़रवरी महीने से ही टेस्टिंग किट, पीपीई और राहत-पुनर्वास के बारे में प्रबंधन शुरू कर देना चाहिए था। दिल्ली के ‘तब्लीग़ी जमात’ सम्मेलन या अहमदाबाद  के ‘नमस्ते ट्रंप’ जैसे कार्यक्रमों को रद्द करा देना चाहिए था। पर यहाँ तो 13 मार्च तक अपने देश की सरकार का स्वास्थ्य मंत्रालय आधिकारिक बयान देता रहा कि कोरोना को लेकर भारत में किसी तरह की ‘मेडिकल इमरजेंसी’ नहीं पैदा होने वाली है। मार्च के आख़िरी सप्ताह तक भोपाल में सत्ता-पलट का मेला चलता रहा।

आम लोगों, ख़ासकर मज़दूरों और कर्मचारियों को भूख और बेहाली से बचाने के लिए सरकार दुनिया के दूसरे देशों में घोषित विशेष महामारी-पैकेजों से भी प्रेरणा ले सकती थी।

अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, डेनमार्क, फ्रांस, सिंगापुर, जापान, थाइलैंड, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि ने अपनी-अपनी वित्तीय स्थिति के हिसाब से जिस तरह के पैकेज के ऐलान ही नहीं, उन्हें लागू कराए, उससे भी अपने लिए काफ़ी कुछ तलाशा जा सकता था। फिर ऐसा क्यों नहीं हो सका सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यही है। इस टिप्पणी में ऊपर दिए ठोस तथ्यों की रोशनी में देखें तो इस सवाल का जवाब खोजना ज़्यादा कठिन नहीं।

सरकार अपनी विफलता को ढंकने के लिए नये-नये नारों की जुगाली में जुटी हुई है। कोराना के दौर में अचानक ‘आत्मनिर्भर भारत’ का नारा आया है। इस नारे को हम सातवें दशक से सुनते आ रहे हैं। पर मोदी सरकार ने कोरोना मोर्चे पर अपनी विफलता के कवच के तौर पर इसे उछाला।

इस बार उनका यह जुमला अब तक काम करता नहीं नज़र आ रहा है क्योंकि ‘आत्मनिर्भर भारत’ के नाम पर उनकी सरकार ने जो कार्यक्रम पेश किया, वह ‘कॉरपोरेट कंट्रोल्ड भारत’ का था। राजनीति ‘हिन्दुत्व वैचारिकी’ की और आर्थिकी ‘कॉरपोरेट और एमएनसी’ की।

इस पूरे परिप्रेक्ष्य और वैचारिकी के संदर्भ में इस वक़्त मुझे ‘हिन्दुत्व-दर्शन’ के विद्वान अध्येता डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर याद आ रहे हैं। उन्होंने हिन्दुत्व की विचारधारा का उसकी ऐतिहासिकता और पौराणिकता की रोशनी में गंभीर अध्ययन किया था। अपनी अलग-अलग किताबों में उन्होंने कई जगह इस बात को शिद्दत के साथ रेखांकित किया है कि भारत को सिर्फ़ एक जातिविहीन सामाजिक चेतना और नियमों की नई संवैधानिक व्यवस्था से ही सहेजा और संचालित किया जा सकता है। उन्होंने बार-बार कहा कि हिन्दू (या जिसे ‘हिन्दुत्व’ भी कह दिया जाता है) कोई धर्म नहीं है, नियमों की एक संहिता है, एक वर्ग नैतिकता का क़ानूनी रूप। (Annihilation of Caste-Dr B R Ambedkar, page-50) फिर इसकी सामाजिकता पर सवाल उठाते हुए वह अन्यत्र कहते हैं कि इसमें बंधुत्व का घोर अभाव है। इसके लिए वह उक्त वैचारिकी को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। (संपूर्ण वांग्मय-खंड 6, पृष्ठ-75, डॉ. आम्बेडकर फ़ाउंडेशन, सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय द्वारा प्रकाशित) इसीलिए वह ‘हिन्दू-राष्ट्र’ की धारणा का हमेशा विरोध करते रहे।

सन् 2020 में आई कोरोना महामारी के दौरान देश के करोड़ों मज़दूरों और उनके परिजनों की यंत्रणा, बेहाली और तकलीफ़ के बारे में जब कभी याद किया जायेगा, सत्ताधारियों की ‘हिन्दुत्व-वैचारिकी’ पर भी सवाल उठेंगे। यही सत्ताधारी भारत को ‘हिन्दू राष्ट्र’ में तब्दील करना चाहते हैं। पर इनके शासन के दौर में सड़क पर भूख से मरते और ट्रकों या अन्य वाहनों से कुचल कर मरते मज़दूरों, जिनका बड़ा हिस्सा अपने को हिन्दू ही कहता-समझता है, की तसवीरें शायद ही समाज की स्मृति से कभी ग़ायब होंगी। लंबे समय तक यह सवाल मौजूदा सत्ताधारियों का पीछा करता रहेगा कि एक स्वतंत्र देश की निर्वाचित सरकार अपने ही लोगों के प्रति इस क़दर लापरवाह, अन्यायी कैसे रही अपने ही नागरिकों को लेकर बंधुता का ऐसा अभाव क्यों

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